आत्महत्या करने वाले बिना किसी को बताए चुपके से आत्महत्या कर लेते हैं, किसी को बताते नहीं, जो बताते हैं वे शोले के वीरू की तरह तमाशा करते हैं. नत्था और उसका भाई ऐसे शातिर और चालाक किसान हैं जो आत्महत्या का नाटक रच कर सबको पगला दिए हैं. हिन्दुस्तान ही नहीं, पाकिस्तान की या किसी अन्य मुल्क़ की शायद (अपवाद में गिनी-चुनी) ही कोई पत्नी मुआवजे कि ख़ातिर अपने पति के मरने के फ़ैसले को आसानी से स्वीकार कर लेगी- मरना चाह रहे हो, पता नहीं, उसे बाद भी मुआवज़ा मिलेगा कि नहीं. जो साथी इसे व्यंग्य कि उत्कृष्ट फिल्म बता रहे हैं वे पता नहीं भीष्म साहनी का बहुचर्चित नाटक 'मुआवज़े' (एन.एस.डी. के कई शो देखे हैं मैंने, गज़ब का नाटक है) देखे हैं या नहीं, मैंने परसाई का व्यंग्य 'भोलाराम का जीव' पढ़ा है, शरद जोशी को भी थोड़ा-बहुत, और चार्ली चैप्लिन इज माय फेवरेट. हाँ ये संभव है कि मुझे व्यंग्य की समझ नहीं. मीडिया के इतिहास में कोई घटना तब तक खबर नहीं बनती जब तक वो घट नहीं जाती, ख़ासकर इलक्ट्रोनिक मीडिया के लिए. अव्वल ये कि हिन्दुस्तान में रोज़ हज़ारों घटनाएं मीडिया रिपोर्टिंग से महरूम रह जात...