पीपली लाइव इसलिए अच्छी नहीं लगी.....
- आत्महत्या करने वाले बिना किसी को बताए चुपके से आत्महत्या कर लेते हैं, किसी को बताते नहीं, जो बताते हैं वे शोले के वीरू की तरह तमाशा करते हैं. नत्था और उसका भाई ऐसे शातिर और चालाक किसान हैं जो आत्महत्या का नाटक रच कर सबको पगला दिए हैं.
- हिन्दुस्तान ही नहीं, पाकिस्तान की या किसी अन्य मुल्क़ की शायद (अपवाद में गिनी-चुनी) ही कोई पत्नी मुआवजे कि ख़ातिर अपने पति के मरने के फ़ैसले को आसानी से स्वीकार कर लेगी- मरना चाह रहे हो, पता नहीं, उसे बाद भी मुआवज़ा मिलेगा कि नहीं.
- जो साथी इसे व्यंग्य कि उत्कृष्ट फिल्म बता रहे हैं वे पता नहीं भीष्म साहनी का बहुचर्चित नाटक 'मुआवज़े' (एन.एस.डी. के कई शो देखे हैं मैंने, गज़ब का नाटक है) देखे हैं या नहीं, मैंने परसाई का व्यंग्य 'भोलाराम का जीव' पढ़ा है, शरद जोशी को भी थोड़ा-बहुत, और चार्ली चैप्लिन इज माय फेवरेट. हाँ ये संभव है कि मुझे व्यंग्य की समझ नहीं.
- मीडिया के इतिहास में कोई घटना तब तक खबर नहीं बनती जब तक वो घट नहीं जाती, ख़ासकर इलक्ट्रोनिक मीडिया के लिए. अव्वल ये कि हिन्दुस्तान में रोज़ हज़ारों घटनाएं मीडिया रिपोर्टिंग से महरूम रह जाती हैं, बिना घटी घटनाओं कि रिपोर्टिंग का तो सवाल ही नहीं उठता.
- हमारे मुल्क़ की मीडिया महानगर और शहर केन्द्रित है, गाँव और क़स्बे से उसका नहीं के बराबर सरोकार है. पीपली लाइव में मीडिया के इस बुनियादी सच को उलट दिखाया गया है.
- चुनावी संहिता के रहते किसी एक व्यक्ति ही नहीं सामूहिक हित का भी कोई सरकारी डिसीजन नहीं लिया जा सकता, रूटीन कामकाज को छोड़कर.
- आफ्टर पार्टीशन हिन्दुस्तान के ६२ साल के इतिहास में कोई भी कस्बाई स्तर पर बिना घटे कोई घटना तो दूर घटने के बाद भी चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दा नहीं नहीं बना, पीपली लाइव फिल्म को छोड़ कर.
- टीवी रिपोर्टर कामचोर होते हैं, ख़ासकर महिला टीवी रिपोर्टर. वे घटना कि जगह पर आईने लेकर सजती-संवारती हैं, फीड में दीन-रात भूखे-प्यासे ख़ाक छानने वाले दीपक चौरसिया जैसे सीनियर रिपोर्टर को ख़बर के इम्पोर्टेंस की समझ नहीं, ज़मीनी सच से दूर दफ्तर में बैठा बॉस उसे हड़काता है कि उसेप्राइम टाइम में ये ख़बर चाहिए, चुनाव का नेशनल इश्यू नहीं, बकवास दि ग्रेट. काश, ऐसा होता!
( शेष अगली डाक में)
और वह पत्रकार जो झोपड़ी के साथ जल मरा ?
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