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फ्रेंकफर्ट विश्व पुस्तक मेले में उदय प्रकाश

जर्मनी के सुप्रसिद्ध शहर फ्रेंकफर्ट विश्व पुस्तक मेले की वही खासियत है जो फ़िल्म के क्षेत्र में कान फ़िल्म महोत्सव का है। यूरोप में हर साल आयोजित होने वाले इस विश्व पुस्तक मेले के आयोजक पिछले कुछ सालों से एशियाई मुल्कों के लेखन और साहित्य को तवज्जो देने लगे हैं। इसके पीछे की वजह क्या वैश्विक आर्थिक मंदी के दौर में एशिया के दो सबसे बड़े मुल्कों- भारत और चीन के विश्व की प्रमुख आर्थिक ताकतों और बड़े बाज़ार के रूप में उभरना है या सचमुच एशियाई मुल्कों के साहित्यिक लेखन ने गुणवत्ता की वजह से पिछले वर्षों में दुनिया का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित करने में सफल रहा है। मालूम हो सन २००७ के फ्रेंकफर्ट विश्व पुस्तक मेले में भारत को गेस्ट आफ आनर बनाकर यहाँ के लेखन को ख़ास तवज्जो दी गई थी। इस साल १४ से १८ अक्टूबर तक आयोजित फ्रेंकफर्ट विश्व पुस्तक मेले में गेस्ट आफ आनर या कहें प्रमुख अतिथि भारत के पड़ोसी देश चीन को बनाया गया. चीन ने पिछली वर्षों में आर्थिक और तकनीकी क्षत्र में जो प्रगति की है उसकी झलक उनके पुस्तक प्रकाशन, मेले में लगे उनके बुक स्टाल और उनके सांस्कृतिक रंगारंग कार्यक्रमों में साफ़ तौर पर द

जब सरकार हाथ खड़े कर दे!

इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि वैश्विक आर्थिक मंदी के दौर में एक बड़ी आर्थिक ताकत के रूप में उभर रहे मुल्क की सरकार एक बेहद नाज़ुक , मानवीय और लोककल्याणकारी मसले पर भरी अदालत के सामने अपनी हाथ खड़ी कर दे। अभी हाल ही में केन्द्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट के सामने राजधानी दिल्ली में मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों की देखभाल करने में अपनी असमर्थता जाहिर की। सरकार के नुमाइंदे ने अदालत में कहा कि सरकार ने मनोरोगियों की भलाई के लिए नीति ज़रूर बनाई है लेकिन वह उनकी देखभाल नहीं कर सकती, जबकि कोर्ट चाहता था कि सरकार राजधानी की सड़कों और गलियों में भटकते और बेइन्तहा जुर्मों के शिकार बनते ऐसे मनोरोगी पुरषों और महिलाओं के अभिभावक के रूप में काम करे। मालूम हो कि दिल्ली की गलियों में मानसिक रूप से विक्षिप्त हालत में भटकती पूर्व मॉडल गीतांजलि की पीड़ा को मीडिया द्वारा उजागर करने के बाद कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए इस राष्ट्रीय समस्या के बारे में सरकार से जवाब तलब किया था. चीफ जस्टिस एपी शाह तथा एस मुरलीधर की बेंच द्वारा गठित समिति ने बताया

लेखक की सक्रियता और बेचैनी

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पागल भिखारी और बिसलेरी की बोतल

हर पागल भिखारी के पास होती है एक गठरी उसमें होते हैं - कुछ गंदे , फटे - पुराने कपड़े सूखे बासी बैंगन आलू माचिस की खाली डिब्बियां और बिसलेरी , अक्वागार्ड या किनले की कुछ खाली बोतलें। पानी पीकर फेंकी बोतलें बीच सड़क पर पड़ी देख लपक कर उठा लेता है पागल भिखारी और लगा लेता है अपने सीने से ताकि रौंद न दे उसे पीछे से आ रही कोई कार अपने पहियों के नीचे। बीच सड़क पर पड़ी बोतलें पहले रोती हैं अपने इस हाल पे जार - जार फ़िर सोचती हैं - अपनी आंखों के आंसू पोछ कितना है सुकून इस पागल भिखारी के पास इतना नहीं देती थी हमें कार न बहुराष्ट्रीय पानी बेचनेवाली कंपनियों का सरदार। ग़लत थीं हम नहीं पहचान पाईं उन्हें मतलबी थे वे सिर्फ़ पानी से था उन्हें सरोकार इसीलिए फेंक दिया जब उन्होंने हमें कार के पार पीछे से आ रही थी एक कार नहीं होता यदि यह यह तैयार बीच सड़क पर पड़ी होती हमारी लाश बार - बार रौंदी जातीं हम उन्हीं कारों के पहियों के नीचे जिनमें बैठे लोगों की बुझाती

दिल्ली से एक शाही सवारी की विदाई

" हाथों में चाबुक होठों पे गालियाँ बड़ी नाख्रेवालियाँ होती हैं तांगेवालियाँ। कोई तांगेवाली जब रूठ जाती है तो और भी हसीं हो जाती है ....." - फर्राटे से ताँगे पर भागती उस दौर की बेहद खूबसूरत अभिनेत्री हेमा मालिनी और धर्मेन्द्र पर फिल्माया गया " शोले " फ़िल्म का ये गाना १९८० - ९० के दशक में खूब हिट हुआ था। कभी राजों - महराजों की शानो - शौकत का प्रतीक था तांगा। वक्त के साथ हर ख़ासोआम की पसंदीदा सवारी बन गया तांगा। इसी का एक रूप था बग्घी। तब तक कारें नहीं आई थीं हमारे देश में या आई भी थीं तो गिनी - चुनी तादाद में। गाँव की पगडंडियों से लेकर कस्बों , छोटे - बड़े शहरों यहाँ तक कि दिल्ली , कलकत्ता के रईस से रईस इलाकों में हर ख़ासोआम की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का एक अहम् हिस्सा बन गए थे ताँगे और बग्घी। बहुत दिनों तक इंसानों के एक जगह से दूसरी जगह जाने का के अहम् जरिया था तांगा। व्यापार , कारोबार और माल ढुलाई के लिए बैलगाड़ी तो थी ही , ताँगे और बग्घियों का भी खूब इस्तेमाल होता था। और तो और अरावली की पहाड़ियों पर लुटियन क्षेत्र में भी घुमते थे ताँगे और बग्घियों के पहिये

बेबाक लिखने की सज़ा !

मंटो साहब को गुज़रे आज करीब पचपन  साल हो चुके हैं। ‘ कितने टोबाटेक सिंह ’ , ‘ काली सलवार ’ , ‘ खोल दो ’ , ‘ बू ’ सरीखी कहानियों के इस लेखक पर आज बड़े - बड़े लेखक , आलोचक , इतिहासकार , समाजवैज्ञानिक कभी रस्क , कभी फख्र तो कभी तारीफ़ करते हैं। लेकिन आज जब मैं मंटो की शख्सियत को समझने की कोशिश कर रहा हूँ तो मुझे लगता है कि मंटो महज़ एक लेखक या एक शख्सियत ही नहीं बल्कि एक मानसिकता है। एक ऐसी मानसिकता जो नाफा-नुकसान की चिंता किए बगैर जो मन की बात बड़ी बेबाकी से लिखने की कूव्वत रखता है। किसी से डरता नहीं , अपने हालात से भी नहीं , चाहे उसका अंजाम कुछ भी हो। अपने दौर की बड़ी से बड़ी शख्सियतों की गिरेबां पकड़ने में भी उसे कोई झिझक नहीं होती। इसीलिए ऐसे लेखक के खिलाफ सब एकजुट हो जाते हैं। कोई इसे ' बेवकूफ़ ' कहता है तो कोई ' बदतमीज़ ', ' बददिमाग ' या ' बदमिजाज '। ' पागल ' कहने वाली भी कम नहीं होते हैं। वे सचमुच इसे पागल कर देना चाहते हैं ताकि न रहे बांस न बजे बांसुरी। मंटो के साथ भी ज़माने वालों ने कुछ ऐसा ही बर्ताव