दिल्ली से एक शाही सवारी की विदाई

"हाथों में चाबुक होठों पे गालियाँ बड़ी नाख्रेवालियाँ होती हैं तांगेवालियाँ। कोई तांगेवाली जब रूठ जाती है तो और भी हसीं हो जाती है....." - फर्राटे से ताँगे पर भागती उस दौर की बेहद खूबसूरत अभिनेत्री हेमा मालिनी और धर्मेन्द्र पर फिल्माया गया "शोले" फ़िल्म का ये गाना १९८०-९० के दशक में खूब हिट हुआ था।

कभी राजों-महराजों की शानो-शौकत का प्रतीक था तांगा। वक्त के साथ हर ख़ासोआम की पसंदीदा सवारी बन गया तांगा। इसी का एक रूप था बग्घी। तब तक कारें नहीं आई थीं हमारे देश में या आई भी थीं तो गिनी-चुनी तादाद में। गाँव की पगडंडियों से लेकर कस्बों, छोटे-बड़े शहरों यहाँ तक कि दिल्ली, कलकत्ता के रईस से रईस इलाकों में हर ख़ासोआम की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का एक अहम् हिस्सा बन गए थे ताँगे और बग्घी। बहुत दिनों तक इंसानों के एक जगह से दूसरी जगह जाने का के अहम् जरिया था तांगा। व्यापार, कारोबार और माल ढुलाई के लिए बैलगाड़ी तो थी ही, ताँगे और बग्घियों का भी खूब इस्तेमाल होता था।

और तो और अरावली की पहाड़ियों पर लुटियन क्षेत्र में भी घुमते थे ताँगे और बग्घियों के पहिये। दुनिया के सबसे बड़े गणतंत्र की शान के प्रतीक राष्ट्रपति भवन के लंबे-चौड़े आहाते में मेहमाननवाजी के काम भी आते थे ताँगे और बग्घी। विदेशी मेहमान इस शाही सवारी का लुत्फ़ उठाकर बड़ा फख्र महसूस करते थे।

यहाँ के टांगों, बग्घियों और बैलगाड़ियों पर बैठकर खिंचवाई न जाने कितनी तस्वीरें दुनिया की अनगिनत शख्सियतों के ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ा रही होगी। लेकिन दिल्ली सरकार की एक इकाई एमसीडी यानी म्यूनिसिपल कारपोरेशन आफ डेल्ही के अभी हाल में जारी एक तुगलकी आदेश के बाद महज़ पुरानी दिल्ली तक सिमटकर रह गई यह रोमांचक सवारी अब ग़ायब हो जायेंगी।

(२४ नवंबर २००९ के दैनिक भास्कर, दिल्ली में प्रकाशित)


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