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अपने हिस्से का औरों को पिला देते थे फ़राज़

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भारतीय उपमहाद्वीप के चोटी के शायरों में शुमार अहमद फ़राज़ साहब ने अपनी रचनाओं के माध्यम से हमेशा हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच रिश्तों की बेहतरी की हिमायत की. 25 अगस्त 2008 को इस्लामाबाद में उन्होंने आख़िरी सांस ली. फ़राज़ साहब गुर्दे की बीमारी से पीड़ित थे. संसद पर आतंकी हमले के बाद जब लंबे समय तक हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच रिश्ते ख़राब रहे और सन 2004 में रामपुर, उत्तर प्रदेश में हिंद-पाक दोस्ती के लिए अंतरष्ट्रीय मुशायरे का आयोजन किया गया तो सेहत ठीक न होने के बावजूद इस तरक्कीपसंद शायर (फ़राज़ साहब) ने उसमें शिरकत की. एक हफ्ते की हिंदुस्तान यात्रा में उन्होंने तीन-चार दिन दिल्ली में भी बिताये. इस दौरान उन्होंने जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिंद-पाक संबंधों पर एक लेक्चर भी दिया था. उस मौके पर उनसे हुई अविस्मरणीय बातचीत हुई. 1 जुलाई 2004 की सुबह जब मुझे ख़बर मिली की फ़राज़ साहब रामपुर से दिल्ली लौटकर आ गए हैं तो ख़याल आया कि क्यों न आज अपने पसंदीदा शायर से मिल लिया जाए. नई दिल्ली में  इंडिया इन्टरनेशनल सेंटर के कमरा नंबर 29 में ठहरे हुए थे फ़राज़ साहब. झट से उन्हें फोन किया.

क्रिकेट, नेता, एक्टर - हर महफिल की शान.../ निदा फाजली

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"क्रिकेट, नेता, एक्टर - हर महफिल की शान, स्कूलों में कैद है गालिब तेरा दीवान" - हमारे देश की मौजूदा हालत कुछ ऐसी ही है। क्रिकेट का खेल आज करोड़ों में घूम रहा है। दूसरी कलाएं भी बाजार का दामन थामकर फल-फूल रही है लेकिन शब्द और उसकी संस्कृति की कद्र दिन-ब-दिन कम होती जा रही है। ऐसे माहौल में साहित्य और उसके सरोकारों की गंभीर बातें पढ़ने-सुनने में न किसी की रुचि है न किसी के पास फुरसत। जब साहित्य का ही महत्व नहीं रह जाएगा तो फिर साहित्यकारों की क्या जिम्मेदारी बनेगी। साहित्य की सबसे बड़ी खासियत कहें या दिक्कत यह है कि वह हमेशा जेनुइन सवाल पूछता है और राजनीति के सामने खतरा पैदा करता है। आजादी के बाद भारत ने काफी तरक्की की है- यह एक सच है लेकिन यह तरक्की महानगरों और शहरों के मध्य और उच्च वर्ग तक सीमित है। इंडिया शाइनिंग का दूसरा सच यह है कि देश की तीन-चैथाई आबादी आज भी गरीबी और भूख से बेहाल है। हाल के दिनों में बेतहाशा बढ़ी महंगाई ने यहां के गरीब और आम आदमी का जीना दुश्वार कर दिया है। तरक्की का झुनझुना बजानेवाले ज्यादा दूर न जाएं, अपने महानगर या शहर की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने

नई पीढ़ी पर बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी / विश्वनाथ त्रिपाठी

एक बुजुर्ग के पास अतीत होता है और एक नौजवान के पास भविष्य- मेरे हिसाब से नई और पुरानी पीढ़ी के बीच का सबसे बड़ा फ़र्क यही है। आज मैं 79 साल का हूँ। नौकरी से रिटायर हुए 16-17 साल हो चुके हैं। भले ही एक बुजुर्ग के रूप में ही सही मैं आज 21 वीं सदी के हिंदुस्तान में सुकून से रह रहा हूं। इसके लिए मैं अपने समाज और इतिहास का कृतज्ञ हूं। हां कभी-कभार वर्तमान को अतीत से जोड़कर देखता हूं तो नई पीढ़ी को देखकर हैरानी होती है। अपने अनुभव से मैं यह कह रहा हूं कि आज के मेधावी विधार्थी पहले के जीनियस विधार्थी से कहीं ज्यादा जानते हैं। आज की नई पीढ़ी से मेरी एक गुजारिश है कि आज की नई पीढ़ी अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी को भी समझे। बड़े दुख के साथ मैं यह कह रहा हूं कि हमारी आज की नई पीढ़ी में सामाजिक ज़िम्मेदारी कम हो गई है। नई पीढ़ी को यह समझना होगा कि इतिहास ने उसके कंधे पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी है। समाज में फैली कुरीतियों के ख़िलाफ इस पीढ़ी को खड़ा होना चाहिए। फ़िजूलखर्ची रोकना चाहिए और पैसे के दिखावे से बाज आना चाहिए। पीछे पलटकर जब अपने अतीत को देखता हूं तो 60-61 साल पहले की स्मृतियां आखों के सामने आ जा

अटल बिहारी वाजपेयी - सेक्स और राजनीति का रिश्ता

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करोड़ों भारतीयों के अजीज हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दामन पर भी लगी हुई है दाग ! जी हाँ, यह कड़वा सच कोई वामपंथी नहीं बल्कि दक्षिणपंथी विचारधारा के ही एक दिग्गज महापुरुष बलराज मधोक ने अपनी आत्मकथा में लिखा है - " ..... मुझे अटल बिहारी और नाना देशमुख की चारित्रिक दुर्बलताओं का ज्ञान हो चुका था। जगदीश प्र० माथुर ने मुझसे शिकायत की थी की अटल ( बिहारी वाजपेयी ) ने 30, राजेंद्र प्रसाद रोड को व्यभिचार का अड्डा बना दिया है . वहां नित्य नई - नई लड़कियाँ आती हैं। अब सर से पानी गुजरने लगा है। जनसंघ के वरिष्ठ नेता के नाते मैंने इस बात को नोटिस में लाने की हिम्मत की। मुझे अटल के चरित्र के विषय में कुछ जानकारी थी। पर बात इतनी बिगड़ चुकी है , ये मैं नहीं मानता था। मैंने अटल को अपने निवास पर बुलाया और बंद कमरे में उससे जगदीश माथुर द्वारा कही गई बातों के विषय में पूछा। उसने जो सफाई दी बात साफ़ हो गई। तब मैंने अटल ( बिहारी वाजपेयी ) को सुझाव दिया

दिल्लीवासियों में प्रतिरोध की क्षमता कम हो गई है / पूर्व ए.सी.पी. चौधरी अतर सिंह

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आज से कोई 45 साल पहले मैंने दिल्ली पुलिस में बतौर थानेदार के रूप में ज्वाइन किया था। उस वक्त मैं दिल्ली से परिचित नहीं था। देहात से यहां आया था। यूपी में मेरठ जिले में मेरा गांव है। उस वक्त देश में नौकरी की इतनी मारामारी नहीं थी जितनी कि आजकल है। मैं हिस्ट्री में एमए कर रहा था। दिल्ली पुलिस में रिक्तियां निकलीं। मैंने उसमें दरख्वास्त दे दी और मुझे नौकरी मिल गई। उस वक्त ऐसा लगा जैसे पता नहीं मैंने क्या हासिल कर लिया है। दिल्ली में उस वक्त पुलिस ट्रेनिंग की कोई सुविधा नहीं थी। हमें फिल्लौर, जालंधर ट्रेनिंग के लिए भेजा गया। वहां से लौटने के बाद नई दिल्ली में पार्लियामेंट थाने में पहली पोस्टिंग हुई। उस वक्त पूरी दिल्ली में गो-हत्या के विरुद्ध आंदोलन चल रहा था। उसकी रोकथाम के लिए दिल्ली पुलिस को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। उसके बाद मैंने करीब 38-39 सालों तक विभिन्न वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के अंदर विभ्न्नि पदों पर सेवा कीआखिर में ए.सी.पी. के पद पर रिटायर हुआ. लगभग चार दशक की पुलिस सेवा में कई ऐसे मौके आए जहां मुझे चुनौतिपूर्ण हालात का सामना करना पड़ा जैसे 1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या हु

"बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना, आदमी को मयस्सर नहीं इन्सां होना।" / निदा फाजली

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कॉमरेड ज्योति बसु की मौत से एक पूरा युग गुजर गया है। अपनी पूरी जिंदगी उन्होंने आम आदमी की राजनीति करते हुए गुजार दी। 1996 में उन्हें प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला था लेकिन उनकी पार्टी ने उन्हें बनने नहीं दिया। यदि उस वक्त उन्हें प्रधानमंत्री बनने दिया जाता तो मुल्क में आज लेफ्ट मूवमेंट का दूसरा रूप होता। यह एक बड़ा सच है कि सीपीआई और सीपीएम के विभाजन के बाद मुल्क में लेफ्ट मूवमेंट कमजोर हुआ। ऐसे मुश्किल हालात में कॉमरेड बसु लेफ्ट मूवमेंट के साथ ठीक उसी तरह खड़े रहे जिस तरह सज्जाद जहीर और मुल्कराज आनंद प्रोग्रेसिव मूवमेंट के साथ खड़े रहे। आज उनके इंतकाल के बाद जब मैं उनकी शख्सियत और उनके कॉमनमैन बेस्ड पौलिटिकल कंसर्न पर गौर करता हूं तो मुझे लगता है कि आधुनिक हिंदुस्तान के इतिहास में महात्मा गांधी और पंडित नेहरू के कद के नेता थे कॉमरेड ज्याति बसु , बल्कि कई मायने में वे पंडित नेहरू से भी बड़े थे। ज्योति बसु गांधी की तरह आम जनता के आदमी थे। पंडित नेहरू ने "डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया" लिखी जिसका "भारत: एक खोज" नाम से अनुवाद हुआ। मैंने उस पर एक शेर लिखा था- "स्टेशन पर खत

आज का बाजार और लेखक समाज / प्रो0 असगर वजाहत

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लेखक को अपने समय में समाज की समस्याओं पर पैनी निगाह रखना चाहिए और आम आदमी के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। यदि लेखक और समाज के बीच ऐसा कोई रिश्ता या तारतम्य आज बनता है तो वह निश्चित रूप से हमारे देश के लिए लाभदायक होगा। इस लिहाज से जब मैं आज के हिंदी-उर्दू लेखन और देश की सबसे बड़ी साहित्यिक संस्था साहित्य अकादमी की तरफ देखता हूं तो मायूसी होती है। हमारा आज का साहित्य मध्य वर्ग तक सीमित होकर रह गया है। ऐसा साहित्य नहीं लिखा जा रहा है जो मध्य वर्ग को कोई नई या सार्थक सोच दे सके। आज के हालात के समानांतर प्रतिरोधी दृष्टि विकसित करने में चुक गए हैं हम। अपनी आस-पास की दुनिया में हो रहे टूट-फूट पर ही हमारी कलम चल रही है। नई दुनिया रचने का काम हम नहीं कर रहे हैं। आज के वक्त के बहुत बड़े सवालों से हमारा समकालीन हिंदी लेखन जूझ रहा है- ऐसा मुझे नहीं लगता। चाहे दलित विमर्श हो या स्त्री विमर्श का मुद्दा। हमारे साहित्य में भी इसे एक राजनीतिक मुद्दे की तरह उठाया जा रहा है , एक सामाजिक , सांस्कृतिक और सामाजिक मुद्दे की तरह नहीं। स्त्री विमर्श एक हमारे पुरुषप्रधान भारतीय समाज के लिए एक ज्वलंत मुद्दा था , उ

बदलाव के साथ बुजुर्गियत / रमण दत्ता

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उम्र के छियासठवें साल में जी रहे इंसान के पास अपनी बीती ज़िन्दगी को याद कर उन्हें दोबारा जीने का वक्त ही वक्त होता है। सुबह या शाम को घर के पिछवाड़े के पार्क में घंटे भर की सैर , कुछ सोशल वर्क , फेंगसुई पर अंगेजी के एक अख़बार में साप्ताहिक कॉलम और घर के कुछ छोटे-मोटे काम - सर्विस से रिटायरमेंट के बाद का मेरा वक्तकुछ यूं ही कट रहा है। ज़िंदगी के इस मुकाम पर आज जब कभी पीछे मुड़कर देखता हूं और आज के ज़माने की अपने जमाने से तुलना करता हूं तो लगता है जैसे मैं किसी और दुनिया में आ गया हूं। हमारी आज की नई जेनरेशन में इतनी जागरूकता आ गई है कि उन्हें देखकर कभी-कभी हैरानी होती है। आज आम लोग भी जागरूक हो गए हैं , हमारे वक्त के अच्छे पढ़े-लिखे लागों से कहीं ज्यादा। एक चीज मुझे ख़ास दिखती है कि ज़िंदगी और करियर के प्रति आज के बच्चों का नज़रिया काफी बदल चुका है। शायद इसकी वजह आज का बदला हुआ माहौल है। पैसे में बड़ी ताकत होती है और टेक्नोलॉजी में भी। टेलिविजन , फिल्में , सीरियल्स , कम्प्यूटर आदि की इस बदलाव में बड़ी भूमिका रही है। एक पिता के नाते इस बदलाव को मैं अपने घर-परिवार में भी महसूस करता हूं

समय और समाज का यथार्थ / उदय प्रकाश

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अच्छा लिखना जीवन जीने की तरह है। हिंदी ही नहीं किसी भी भाषा में लिखी गई कहानियों की जड़ें यथार्थ में होती हैं। लेखक चाहे कितना ही बड़ा स्वप्नजीवी क्यों न हो, यथार्थ से जुड़कर ही श्रेष्ठ कहानियां लिख सकता है। किसी भी लेखक के लिए उसका पाठक वर्ग महत्वपूर्ण होता है। यदि कोई लेखक अच्छा लिख रहा है तो इसका काफी हदतक श्रेय उसके पाठकों को दिया जाना चाहिए। हिंदी भाषा की एक ख़ास तरह की सांस्कृतिक बनावट है। हमारे समाज और हमारी भाषा में भी जातिवाद और सांप्रदायिकता है। भाषा में जितना तीव्र संघर्ष होता है समाज में हमें दूसरे स्तर पर उन्हें झेलना पड़ता है। 'मोहनदास' कहानी मैंने बहुत डिप्रेशन की स्थिति में गांव में रहकर लिखा। पिछले साल उस पर फिल्म भी बनी। मोहनदास कोई कल्पित पात्र नहीं है। मेरे गांव से छह-सात किलोमीटर बगल में बसोर जाति के एक युवक की सच्ची दास्तान है यह कहानी। आज का एक सच यह है कि जिसके पास ताकत नहीं है वह अपनी अस्मिता तक नहीं बचा सकता। इन्सान की बहुत सारी आकांक्षाएं होती हैं लेकिन जब उसके साथ घोर अन्याय होता है तो वह न्याय चाहता है। उसकी यह आकांक्षा कभी नहीं मरती। अच्छी कहानी कुछ इसी

दौलतपरस्ती बनाम सादगी

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'आग का दरिया ', 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो'.... सरीखी पोपुलर कृतियों की लेखिका महरूमा कुर्रतुल ऐन हैदर दौलतपरस्ती और उसके भौंडे प्रदर्शन को बेहद नापसंद करती थीं। हालांकि यह सच था कि वह ख़ुद एक रईस ख़ानदान से ताल्लुक़ रखती थीं। बावजूद इसके इस तरह की हरक़त उनपर नागवार गुजरती थी। इसे वह 'बेवकूफ़ाना हरक़त' कहती थीं। दरअसल उनकी इस सोच की वजह थी सामाजिक सरोकारों के प्रति उनका ख़ास रिश्ता अपने साक्षात्कारों में ग्लोबलाइजेशन के दौर में मुल्क के अंदर पैदा हुए नवदौलतियों की भर्त्सना करते हुए वह इनकी तुलना मुल्क के कुछ पुराने ख़ानदानी रईसों से करती थीं जो अथाह दौलतमंद होने के बावजूद सादगी से रहना पसंद करते थे और दौलत का कभी भौंडा प्रदर्शन नहीं करते थे। इस सिलसिले में वह स्व0 इंदिरा गांधी से जुड़ा अपना एक संस्मरण जरूर सुनाती थीं, जब इंदिरा जी ने मोलभाव करते हुए सौदा न पटने पर पसंद की हुई शॉल आखिरकार दुकानदार को लौटा दी थी। आज न कुर्रतुल ऐन हैदर हमारे बीच हैं और न इंदिरा गांधी, लेकिन सामाजिक सरोकार से जुड़े उनके ये संस्मरण आज हमारे लिए बेहद अहमियत रखते हैं। क़ाश, हमारे न