नई पीढ़ी पर बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी / विश्वनाथ त्रिपाठी

एक बुजुर्ग के पास अतीत होता है और एक नौजवान के पास भविष्य- मेरे हिसाब से नई और पुरानी पीढ़ी के बीच का सबसे बड़ा फ़र्क यही है। आज मैं 79 साल का हूँ। नौकरी से रिटायर हुए 16-17 साल हो चुके हैं। भले ही एक बुजुर्ग के रूप में ही सही मैं आज 21 वीं सदी के हिंदुस्तान में सुकून से रह रहा हूं। इसके लिए मैं अपने समाज और इतिहास का कृतज्ञ हूं। हां कभी-कभार वर्तमान को अतीत से जोड़कर देखता हूं तो नई पीढ़ी को देखकर हैरानी होती है। अपने अनुभव से मैं यह कह रहा हूं कि आज के मेधावी विधार्थी पहले के जीनियस विधार्थी से कहीं ज्यादा जानते हैं।


आज की नई पीढ़ी से मेरी एक गुजारिश है कि आज की नई पीढ़ी अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी को भी समझे। बड़े दुख के साथ मैं यह कह रहा हूं कि हमारी आज की नई पीढ़ी में सामाजिक ज़िम्मेदारी कम हो गई है। नई पीढ़ी को यह समझना होगा कि इतिहास ने उसके कंधे पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी है। समाज में फैली कुरीतियों के ख़िलाफ इस पीढ़ी को खड़ा होना चाहिए। फ़िजूलखर्ची रोकना चाहिए और पैसे के दिखावे से बाज आना चाहिए।


पीछे पलटकर जब अपने अतीत को देखता हूं तो 60-61 साल पहले की स्मृतियां आखों के सामने आ जाती हैं। सन 1959 से मैं इस दिल्ली महानगर में रह रहा हूं। काशी विश्वविद्यालय से एमए करने के बाद मैंने एक साल नैनीताल में पढ़ाया। अक्टूबर 1959 को दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में मुझे लेक्चरर की नौकरी मिली। आज यह बताने में मुझे कोई संकोच नहीं होता कि जब मैं दिल्ली आने के बाद मैं अकेले में रोता था। खुद को अकेला महसूस करता था। इसकी एक वजह तो यह थी कि नैनीताल में मेरा मन लग गया था। नैनीताल ख़ूबसूरत शहर तो था ही वहां एक साल में ही विद्यार्थियों का मुझे बहुत प्यार मिला था।


नैनीताल और बनारस से दिल्ली बिल्कुल अलग थी। यहां के अध्यापकों के रहन-सहन और अमीरी ने मुझे सबसे ज़्यादा अचंभित किया। अमूमन अध्यापक लोग सादगीपूर्ण तरीक़े से रहना पसंद करते हैं लेकिन यहां के अध्यापक तब भी अच्छे-अच्छे कपड़े पहनते थे और उनके घरों में तमाम तरह की आधुनिक सुख-सुविधाएं दिखती थीं।


बनारस वाया नैनीताल होते हुए दिल्ली आए एक साधारण परिवार के 27 साल के युवक को अचंभित करने के लिए यह काफ़ी था। यहां शुरू-शुरू में कॉलेज के विधार्थी ही नहीं बल्कि शिक्षक लोग भी मुझे चिढ़ाते थे। खैर, साल पढ़ाने के बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में व्याख्याता के पद पर मेरा चयन हुआ। जहां साल पढ़ाने के बाद मैं रिटायर हुआ। आज जब उस जमाने को याद करता हूं तो बदलते दौर में कई अच्छाइयां और कई बुराइयां भी दिखती हैं।


वो नेहरू युग था। हर जगह नई-नई योजनाएं बन रही थीं। नए-नए कॉलेज, नए-नए विश्वविद्यालय, नई-नई अकादमियां बन रही थीं। उस वक्त के पढ़े-लिखे लोगों के जीवन में समाज और देश के प्रति कुछ मूल्य और कुछ आदर्श होते थे, आशाएं और आकांक्षाएं होती थीं। हम एक-दूसरे से प्रेरणा लेते थे। लेकिन आज के युवाओं के आत्मकेंद्रित व्यवहार को देखता हूं तो लगता है कि जमाना कितना बदल गया है। हां, स्त्री और दलित चेतना में आज के समय में जो बदलाव आया है यह काबिलेतारीफ़ है। (डॉ. त्रिपाठी दिल्ली विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त अध्यापक हैं और यह लेख शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित है / 21 जनवरी 2010, दैनिक भास्कर, नई दिल्ली में प्रकाशित)

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