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दिसंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

साहित्य की स्वायत्तता पर पहरेदारी / राजेंद्र यादव

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आज हमें इस बात का बेहद अफसोस है कि हमारे यहां साहित्य और संस्कृति की कोई भी संस्था स्वायत नहीं है। वह या तो सरकारी लोगों से संचालित होती है या वहां पर कोई न कोई ऐसा तथाकथित साहित्यकार बैठा दिया जाता है जिसका एकमात्र उद्देश्य सत्ता का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन करना होता है। मैं खुद दो साल प्रसार भारती बोर्ड का मेंबर था। हमें आष्वासन दिया गया था कि प्रसार भारती को, जिसके अंतर्गत आकाशवाणी और दूरदर्शन- दोनों आते हैं, को स्वायत्तता दी जाएगी लेकिन वे कभी स्वायत नहीं हुए। सीईओ के नाम पर वहां हमेशा ऐसा सेक्रेटरी बैठा दिया जाता रहा था, जो एक तरफ मानव संसाधन मंत्रालय में सेक्रेटरी या ज्वाइंट सेक्रेटरी होता था और दूसरी तरफ प्रसार भारती का सीईओ यानी मुख्य कार्यकारी अधिकारी। मेरी और रोमिला थापर की हमेशा यही आवाज होती थी कि हमें अपने निर्णय स्वतंत्र रूप से लेने चाहिए और हमारे पास फाइनेंस या गलत कदम उठानेवालों के खिलाफ कार्रवाई करने की शक्ति भी होनी चाहिए। इसके बिना स्वायतता का कोई मतलब ही नहीं था। जब सारा पैसा सरकार देगी तो किसकी नियुक्ति कहां करनी है, यह सरकारी प्रतिनिधि ही तय करेगा। ऐसी स्वायत्तत

सबसे बड़ी समस्या असमानता है / नवारुण भट्टाचार्य

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आजकल मैं इस बात को लेकर बहुत परेशान हूँ कि आज हमारे पार्लियामेंट में पांच सौ पैंतालीस सांसदों में करीब तीन सौ करोड़पति हैं। हमारे देश की राजनीति में यह एक खतरनाक ट्रेंड है। ये जनता के बारे में क्या सोचेंगे? आम आदमी की आवाज सुननेवाला अब कहां है। मैं समझता हूं कि भारत की सबसे बड़ी समस्या असमानता है। दिन ब दिन यह असमानता बढ़ती जा रही है। देश के विभिन्न हिस्सों में बढ़ती हिंसा की वजह भी यही है। लालगढ़ में क्या हुआ? आजादी के इतने साल बाद भी वहां विकास नहीं हुआ। न शिक्षा, न स्वास्थ्य। सरकार को इसके बारे में सोचना होगा। सिर्फ पुलिस या सेना भेजकर वह हालात पर काबू नहीं पा सकती। बल्कि इससे जनता में और प्रतिरोध बढ़ेगा। सरकार जनता को कसूरवार ठहराना बंद करे। पष्चिम बंगाल में सीपीएम की आज जो दशा हुई है वह उसकी एंटी पीपुल नीतियों की वजह से ही हुई है। उसने इंडस्ट्रीयलाइजेशन को जबरन जनता पर थोपा है। आगे तो सीपीएम को और भी सेटबैक लगनेवाला है, यदि कोई मिरैक्कल ;चमत्कारद्ध नहीं हुआ तो। नक्सलवाद की समस्या को ही देखिये! यह सच है कि नक्सलियों में बहुत से ग्रुप हैं। सभी ग्रुप माआवादी नहीं हैं। मेरा खयाल है कि सर

बोलियों के साहित्य का सरोकार / मुरली मनोहर प्रसाद सिंह

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आज अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी पर निर्भर देश के अंदर बढ़ रहे आक्रामक पूंजीवाद की पृष्ठभूमि में बाजार समर्थक लेखकों की उपस्थिति चिंताजनक है। इसी  आक्रामक पूंजीवाद के दौर में एक तरह का आक्रामक व्यक्तिवाद भी विकसित हो रहा है। हमारे यहां के मध्यवर्ग में उस विकृत चेतना का देखदेखी में विकास हो रहा है। यह वर्ग अपने लिए अधिकाधिक सुख-सुविधाएं जुटाना अब गुनाह नहीं मानता। निजी स्वार्थलिप्सा में डूबे हुए कुछ लेखक भी इस क्रम में दिखाई पड़ जाते हैं। ऐसे लेखक पद और पुरस्कारों के लिए सत्ता के गलियारे में चक्कर मारते हैं और विभिन्न अकादमियों के अध्यक्ष और सचिवों की चापलूसी करने में वे संकोच नहीं करते। ऐसे लेखकों के सामने रखकर अगर आज के साहित्यिक परिदृष्य को रखकर निष्कर्ष निकाला जाए तो वह एकांगी होगा। दरअसल साहित्य का सृजन और साहित्य की जनता तक पहुँच एक व्यापक परिदृश्य में देखने के लिए आमंत्रित करती है। विभिन्न क्षेत्रों में खड़ी बोली हिंदी के हजारों की तादाद में ऐसे रचनाकार हैं जिनकी रचनाएं भले किताब के रूप में नहीं छपती हैं और न पत्र-पत्रिकाओं में आती हैं लेकिन ये विभिन्न अंचलों में आयोजित साहित्यिक
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दोस्तो , बशीर बद्र साहब ने कभी फरमाया था - "कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से ये नए मिजाज़ का शहर है ज़रा फासले से मिला करो।" इधर हमारे बड़े भाई निदा फाजली साहब फरमा रहे हैं - " बात कम कीजे जहानत को छुपाते रहिये ये नया शहर है कुछ दोस्त बनाते रहिये। " " दुश्मन लाख सही ख़त्म न कीजे रिश्ता दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिये।" " कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है जिन बातों को खुद नहीं समझे औरों को समझाया है। " "हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी जिसको भी देखना हो कई बार देखना।" "घर को खोजे रात-दिन घर से निकला पाँव वह रास्ता ही खो दिया जिस रस्ते था गाँव।"
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