सबसे बड़ी समस्या असमानता है / नवारुण भट्टाचार्य
आजकल मैं इस बात को लेकर बहुत परेशान हूँ कि आज हमारे पार्लियामेंट में पांच सौ पैंतालीस सांसदों में करीब तीन सौ करोड़पति हैं। हमारे देश की राजनीति में यह एक खतरनाक ट्रेंड है। ये जनता के बारे में क्या सोचेंगे? आम आदमी की आवाज सुननेवाला अब कहां है। मैं समझता हूं कि भारत की सबसे बड़ी समस्या असमानता है। दिन ब दिन यह असमानता बढ़ती जा रही है। देश के विभिन्न हिस्सों में बढ़ती हिंसा की वजह भी यही है। लालगढ़ में क्या हुआ? आजादी के इतने साल बाद भी वहां विकास नहीं हुआ। न शिक्षा, न स्वास्थ्य। सरकार को इसके बारे में सोचना होगा। सिर्फ पुलिस या सेना भेजकर वह हालात पर काबू नहीं पा सकती। बल्कि इससे जनता में और प्रतिरोध बढ़ेगा। सरकार जनता को कसूरवार ठहराना बंद करे। पष्चिम बंगाल में सीपीएम की आज जो दशा हुई है वह उसकी एंटी पीपुल नीतियों की वजह से ही हुई है। उसने इंडस्ट्रीयलाइजेशन को जबरन जनता पर थोपा है। आगे तो सीपीएम को और भी सेटबैक लगनेवाला है, यदि कोई मिरैक्कल ;चमत्कारद्ध नहीं हुआ तो।
नक्सलवाद की समस्या को ही देखिये! यह सच है कि नक्सलियों में बहुत से ग्रुप हैं। सभी ग्रुप माआवादी नहीं हैं। मेरा खयाल है कि सरकार का नक्सलियों के साथ डायलाग करना बहुत जरूरी है। माओवादियों से भी डायलाग करना चाहिए। पुलिस और सेना की दमन की कोशिशें बेकार साबित होंगी। सरकार बार-बार नक्सलियों को हथियार सरेंडर कऱने कह रही है। यह प्रस्ताव ठीक नहीं है। मगर सीसफायर हो सकता है। सीसफायर करके सरकार बातचीत कर सकती है। अभी माओवादियों के पास जितना हथियार है उससे दस गुणा हथियार पुलिस और सैनिक बलों के पास है। यह नक्सलवाद की समस्या का सोल्यूशन नहीं है, न यह निगोसियेषन की लैंग्वेज है। सरकार चाहे तो सीसफायर अभी हो सकता है। सरकार माओवादियों के साथ मीडिया के थ्रू नहीं बल्कि सीधे बातचीत करे। इस बातचीत में तीसरे पक्ष यानी सिविल सोसायटी की बात को भी सुनना होगा।
सरकार जिस तरह नक्सलवाद का दमन कर रही है उससे देश के वामपंथी बुद्धिजीवी आतंकित महसूस कर रहे हैं। यह माओवादियों ने नहीं बल्कि सरकार ने किया है। लेकिन इससे हमलोग नहीं डरेंगे। एक बहुत बड़ा तबका हमारे साथ है। महाश्वेता देवी, अरुंधति राय सरीखी शख्सियत हैं। आनेवाले समय में सरकार पर और प्रेशर बढ़ेगा क्योंकि यह रीयल आवाज है। सिविल सोसायटी की आवाज है। सरकार को इनकी आवाज सुनना चाहिए। उसको यह सोचना चाहिए कि जो लोग इस मसले को उठा रहे हैं वे सभी सोसायटी में सम्मानित हैं और उन्हें कोई लोभ नहीं है।
दरअसल असमानता अपर क्लास को इंस्टीट्यूशनालाइजेशन करती है, मिडिल क्लास को ग्लैमराइज करती है और गरीब को ब्रूटाइस करती है। इसलिए फ्यूचर मुझे बहुत डार्क दिख रहा है। ऐसे विकट समय में लेखक को जनता के साथ रहना चाहिए। उसे करोड़पतियों के साथ नहीं रहना चाहिए। साहित्य अकादेमी के पुरस्कारों को सरकार प्राइवेटाइज कर रही है। यह बहुत निंदनीय है। सभी जगह प्राइवेटाइजेशन नहीं होता। प्रेम में प्राइवेताइजेशन नहीं होगा। सरकार की यह करतूत बहुत अफसोसनाक है और एक खतरनाक संकेत भी है। रेड सिग्नल है। हमारी सरकार यह सब करेगी, यह मैं सोच भी नहीं सकता। ऐसा पहले बंगलादेश में होता था। वहां लेखकों को फिलिप्स अवार्ड दिया जाता था। सैमसंग कंपनी रवींद्रनाथ टैगोर के नाम पर अवार्ड देगी तो इससे उनका इंसल्ट होगा। यह अधिकार उनको किसने दिया। सरकारी खर्च में कटौती के नाम पर यह किया जा रहा है। सरकार सैन्य खर्च बढ़ा रही है। कामन वेल्थ गेम्स पर अंधाधुंध खर्च कर रही है। लेकिन वहां खेलेगा कौन? कितना मेडल हमें मिलेगा? यह बहुत शर्म की बात है। यह जो कुछ हो रहा है एक कल्चरल वर्कर होने के कारण मुझे बहुत शर्म और दुख हो रहा है।
लेखकों को इस मामले में अहम रोल निभाना होगा। उन्हें प्रोटेस्ट कभी नहीं छोड़ना चाहिए। लेखन और लेखन के बाहर दोनों जगह प्रतिरोध होना चाहिए। हमलोग कभी इसको स्वीकार नहीं करेंगे। यह सीधी बात है।
राजकमल चैधरी को मैं बहुत बड़ा लेखक मानता हूं लेकिन उनको वो सम्मान नहीं मिला। वे बहुत पावरफुल रायटर हैं। उन पर अश्लीलता का आरोप लगाया गया। अश्लीलता सोसायटी पैदा करती है। यदि सोसायटी अश्लील होगा तो लेखक क्या करेगा? अष्लीलता एक सोशल प्रोड्यूस है। लेखक जब उसको देखता है तभी तो उसके बारे में लिखता है।
आज मुझे इस बात का डर है कि हमारी सोसायटी का अमेरिकीकरण हो रहा है। सिर्फ मलेटरी पावर, बिजनेस या ट्रेड का टर्नओवर बढ़ने से कोई कंट्री सुपर पावर नहीं हो सकता। कल्चरल पावर भी होना चाहिए क्योंकि यह महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस का भी दश है। जो कुछ बाहर चल रहा है उसका प्रभाव सोसायटी पर पड़ेगा ही लेकिन इसका विरोध करना लेखक का धर्म है। अफसोस इस बात का है कि आज मध्यवर्ग के कुछ लेखक भी बाजारवादी हो गए है। आनेवाले समय में यह और भी बढ़ेगा क्योंकि लेखन एक कमोडिटी बनता जा रहा है। जब कोई चीज कमोडिटी बन जाती है तो उसे अच्छा पैकेजिंग चाहिए। लेखक का एक अलग तरह का जीवन दर्षन होता है। सच्चे लेखक का जीवन, उसका दर्शन और उसका विचार समाज से बंधा हुआ है। यह कमोडिटी सेल नहीं है।
ऐसे हालात में जेनुइन रायटर की सांस बंद हो जाएगी। दिल्ली में पावर है, मनी है। यहां रहते हुए भी उदयप्रकाश यदि खुद को विक्टिम महसूस कर रहे हैं वे ट्रू लेखक हैं। यह आज के समय की असलीयत है। ऐसे समय में कुछ लोगों को विक्टिमाइज किसा जाएगा क्योंकि यहां लेखकों का एक तबका प्रो स्टेबलिशमेंट, प्रो सत्ता-प्रतिष्ठान है। लेकिन सच्चे लेखक का सबसे बड़ा प्रोटेक्षन होता है उसका रीडर और जनता को ऐसे लेखकों का सम्मान करना चाहिए। थर्ड वर्ल्ड में लेखक का व्यक्तिगत जीवन भी थर्ड वर्ल्ड की तरह होना चाहिए क्योंकि यह अमेरिका नहीं है, यूरोप नहीं है।
नक्सलवाद की समस्या को ही देखिये! यह सच है कि नक्सलियों में बहुत से ग्रुप हैं। सभी ग्रुप माआवादी नहीं हैं। मेरा खयाल है कि सरकार का नक्सलियों के साथ डायलाग करना बहुत जरूरी है। माओवादियों से भी डायलाग करना चाहिए। पुलिस और सेना की दमन की कोशिशें बेकार साबित होंगी। सरकार बार-बार नक्सलियों को हथियार सरेंडर कऱने कह रही है। यह प्रस्ताव ठीक नहीं है। मगर सीसफायर हो सकता है। सीसफायर करके सरकार बातचीत कर सकती है। अभी माओवादियों के पास जितना हथियार है उससे दस गुणा हथियार पुलिस और सैनिक बलों के पास है। यह नक्सलवाद की समस्या का सोल्यूशन नहीं है, न यह निगोसियेषन की लैंग्वेज है। सरकार चाहे तो सीसफायर अभी हो सकता है। सरकार माओवादियों के साथ मीडिया के थ्रू नहीं बल्कि सीधे बातचीत करे। इस बातचीत में तीसरे पक्ष यानी सिविल सोसायटी की बात को भी सुनना होगा।
सरकार जिस तरह नक्सलवाद का दमन कर रही है उससे देश के वामपंथी बुद्धिजीवी आतंकित महसूस कर रहे हैं। यह माओवादियों ने नहीं बल्कि सरकार ने किया है। लेकिन इससे हमलोग नहीं डरेंगे। एक बहुत बड़ा तबका हमारे साथ है। महाश्वेता देवी, अरुंधति राय सरीखी शख्सियत हैं। आनेवाले समय में सरकार पर और प्रेशर बढ़ेगा क्योंकि यह रीयल आवाज है। सिविल सोसायटी की आवाज है। सरकार को इनकी आवाज सुनना चाहिए। उसको यह सोचना चाहिए कि जो लोग इस मसले को उठा रहे हैं वे सभी सोसायटी में सम्मानित हैं और उन्हें कोई लोभ नहीं है।
दरअसल असमानता अपर क्लास को इंस्टीट्यूशनालाइजेशन करती है, मिडिल क्लास को ग्लैमराइज करती है और गरीब को ब्रूटाइस करती है। इसलिए फ्यूचर मुझे बहुत डार्क दिख रहा है। ऐसे विकट समय में लेखक को जनता के साथ रहना चाहिए। उसे करोड़पतियों के साथ नहीं रहना चाहिए। साहित्य अकादेमी के पुरस्कारों को सरकार प्राइवेटाइज कर रही है। यह बहुत निंदनीय है। सभी जगह प्राइवेटाइजेशन नहीं होता। प्रेम में प्राइवेताइजेशन नहीं होगा। सरकार की यह करतूत बहुत अफसोसनाक है और एक खतरनाक संकेत भी है। रेड सिग्नल है। हमारी सरकार यह सब करेगी, यह मैं सोच भी नहीं सकता। ऐसा पहले बंगलादेश में होता था। वहां लेखकों को फिलिप्स अवार्ड दिया जाता था। सैमसंग कंपनी रवींद्रनाथ टैगोर के नाम पर अवार्ड देगी तो इससे उनका इंसल्ट होगा। यह अधिकार उनको किसने दिया। सरकारी खर्च में कटौती के नाम पर यह किया जा रहा है। सरकार सैन्य खर्च बढ़ा रही है। कामन वेल्थ गेम्स पर अंधाधुंध खर्च कर रही है। लेकिन वहां खेलेगा कौन? कितना मेडल हमें मिलेगा? यह बहुत शर्म की बात है। यह जो कुछ हो रहा है एक कल्चरल वर्कर होने के कारण मुझे बहुत शर्म और दुख हो रहा है।
लेखकों को इस मामले में अहम रोल निभाना होगा। उन्हें प्रोटेस्ट कभी नहीं छोड़ना चाहिए। लेखन और लेखन के बाहर दोनों जगह प्रतिरोध होना चाहिए। हमलोग कभी इसको स्वीकार नहीं करेंगे। यह सीधी बात है।
राजकमल चैधरी को मैं बहुत बड़ा लेखक मानता हूं लेकिन उनको वो सम्मान नहीं मिला। वे बहुत पावरफुल रायटर हैं। उन पर अश्लीलता का आरोप लगाया गया। अश्लीलता सोसायटी पैदा करती है। यदि सोसायटी अश्लील होगा तो लेखक क्या करेगा? अष्लीलता एक सोशल प्रोड्यूस है। लेखक जब उसको देखता है तभी तो उसके बारे में लिखता है।
आज मुझे इस बात का डर है कि हमारी सोसायटी का अमेरिकीकरण हो रहा है। सिर्फ मलेटरी पावर, बिजनेस या ट्रेड का टर्नओवर बढ़ने से कोई कंट्री सुपर पावर नहीं हो सकता। कल्चरल पावर भी होना चाहिए क्योंकि यह महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस का भी दश है। जो कुछ बाहर चल रहा है उसका प्रभाव सोसायटी पर पड़ेगा ही लेकिन इसका विरोध करना लेखक का धर्म है। अफसोस इस बात का है कि आज मध्यवर्ग के कुछ लेखक भी बाजारवादी हो गए है। आनेवाले समय में यह और भी बढ़ेगा क्योंकि लेखन एक कमोडिटी बनता जा रहा है। जब कोई चीज कमोडिटी बन जाती है तो उसे अच्छा पैकेजिंग चाहिए। लेखक का एक अलग तरह का जीवन दर्षन होता है। सच्चे लेखक का जीवन, उसका दर्शन और उसका विचार समाज से बंधा हुआ है। यह कमोडिटी सेल नहीं है।
ऐसे हालात में जेनुइन रायटर की सांस बंद हो जाएगी। दिल्ली में पावर है, मनी है। यहां रहते हुए भी उदयप्रकाश यदि खुद को विक्टिम महसूस कर रहे हैं वे ट्रू लेखक हैं। यह आज के समय की असलीयत है। ऐसे समय में कुछ लोगों को विक्टिमाइज किसा जाएगा क्योंकि यहां लेखकों का एक तबका प्रो स्टेबलिशमेंट, प्रो सत्ता-प्रतिष्ठान है। लेकिन सच्चे लेखक का सबसे बड़ा प्रोटेक्षन होता है उसका रीडर और जनता को ऐसे लेखकों का सम्मान करना चाहिए। थर्ड वर्ल्ड में लेखक का व्यक्तिगत जीवन भी थर्ड वर्ल्ड की तरह होना चाहिए क्योंकि यह अमेरिका नहीं है, यूरोप नहीं है।
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