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फ़रवरी, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक पुस्तक प्रेमी पोर्न स्टार से लन्दन के पब में साक्षात्कार : फ्रेंक हुज़ूर

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लन्दन के मशहूर 'हार्प' पब में वीक-एंड की एक रंगीन शाम " आई एम अ पोर्न स्टार.   मैं स्टोकहोम, स्वीडन की बाशिंदा हूँ. 15 साल की उम्र से ही पेरिस और लन्दन की  गलियों में गुलज़ार हूँ. क्या आपने   'दि गर्ल हू प्लेड विद फ़ायर'   नॉवेल    पढ़ा है?   जो कहानी इस   नॉवेल   की हीरोइन लिसाबेथ ( Lisbeth Salander ) की है, वही अफ़साना मेरा हैं. ये अफ़साना स्वीडन के फ्लैश  मार्केट में चाइल्ड र्ट्रैफिकिंग का एक बेहतरीन नमूना हैं. मैं भी उसी बाज़ार से होते-होते गुजिस्ता दस  सालों में अब मुरझाने सी लगी हूँ.": मिशेल.   लन्दन के मशहूर पब 'हार्प' में वीक-एंड की एक रंगीन शाम  मिशेल के साथ अनायास हुई अपनी मुलाक़ात की फ़ीचर-रपट पेश कर रहे हैं   फ्रेंक हुज़ूर   अपनी 'लन्दन  डायरी' में. - शशिकांत  "अब के गर तू मिले तो हम तुझसे ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ"   अहमद फ़राज़ की यह ग़ज़ल दिल-ओ-दिमाग़ पर रह-रह के हमला करती है, जब भी मेरी नज़र लन्दन के हर गलियों में गुलज़ार पब में मदहोश पब्लिक पर पड़ती हैं. यूँ तो शुक्रवार और शनिवार की हर वो शाम लन्दन
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साथियो, स्त्री और विज्ञापन मसले पर लगातार बहस होती रही है. सुप्रसिद्ध स्त्रीवादी लेखिका प्रभा खेतान जी से 2003 में IIC में इंटरव्यू में जब मैंने यह सवाल किया कि- "ये बताइये, विज्ञापनों में स्त्री के इस्तेमाल का दक्षिणपंथी भी विरोध करते हैं और वामपंथी भी. दोनों के विरोध में क्या फर्क है?" आदरणीय प्रभा जी नरभसा गईं. बेशक विज्ञापन का बाज़ार स्त्री को मौक़ा, रोज़गार, पैसा, आइडेनटिटी...बहुत कुछ दे रहा है...स्त्री की देह उसकी देह है, वो जैसा चाहे इस्तेमाल करे, पुरुष कौन होता है स्त्री देह की शुचिता का चौकीदार?...मामला बेहद जटिल है...देहवादी महिलाओं की अलग धारणा है, गैर देहवादी की भिन्न. जनसत्ता (20 मई 2000 और 8 जनवरी 2002) तथा SFI की पत्रिका  'स्टूडेंट स्ट्रगल'   के फरवरी 2002 अंक में प्रकाशित 3 लेखों को मिलाकर पेश कर रहा हूँ यह लेख. - शशिकांत विज्ञापन, बाज़ार और स्त्री  पिछले दिनों अंग्रेज़ी के एक अखबार (THE HINDU) ने पहले पन्ने पर एक आयुर्वेदिक दवा कंपनी का विज्ञापन छापा. विज्ञापन की पंक्तियाँ कुछ इस तरह थीं: "क्या आपकी पत्नी हर सुबह आपको इस फल (करेले

मातृभाषा से कोई समझौता नहीं

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भारत का भाषाई नक्शा साथियो,  पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में पाकिस्तान सरकार द्वारा उर्दू थोपे जाने के विरोध में 21 फरवरी, 1952 को ढाका में छात्रों ने अपनी मातृभाषा बांग्ला के पक्ष में जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन किए, जिसमें पुलिस और सेना की गोली से बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी मारे गए। मातृभाषा के सवाल से शुरू हुआ यही आंदोलन बाद में बांग्लादेश की मुक्ति  के आंदोलन में बदल गया। पेश है 21फरवरी 2011को दैनिक भास्कर, नई दिल्ली में प्रकाशित गंगा सहाय मीणा का आलेख: हममें से अधिकांश को शायद यह जानकारी नहीं है कि 21 फरवरी को दुनियाभर में 'अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। काफी समय से यूनेस्को भाषाओं को बचाने के प्रति जागरूकता फैलाने का काम कर रहा है।  'अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस' मनाने की प्रथम घोषणा 17 नवंबर 1999 को यूनेस्को द्वारा ही की गई। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा औपचारिक रूप से प्रस्ताव पारित कर 2008 में इसे मान्यता दी गई। 2008 को संयुक्त राष्ट्र ने 'अंतरराष्ट्रीय भाषा वर्ष' के रूप में मनाया।''अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस' मना

अंग्रेज़ी ही नहीं, हिंदी भी अभिजात भाषा है उनके लिए...!!!

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गाँव की पंचायत  मित्रो,  14  सितम्बर - हिंदी दिवस   कल बीत गया .  कई साल पहले    राष्ट्रीय सहारा में 'आम आदमी की भाषा का सवाल' शीर्षक से प्रकाशित अपना यह लेख आपके हवाले कर रहा हूँ.  इस लेख में अंग्रेज़ी के साथ-साथ खड़ी बोली हिंदी से भी सवाल पूछ रही हैं हिंदुस्तान के दीगर हिस्सों में बोली जानेवाली वे सैकड़ों बोलियाँ जिन्हें दूर-दराज़ के ठेठ देहाती, आदिवासी, दलित, पिछड़े लोग बोलते-बतियाते हैं...जिनके लिए खड़ी बोली हिंदी भी कुछ-कुछ अंग्रेज़ी जैसी ही है...!!! -शशिकांत  मनुष्य का इतिहास, उसकी परम्परा, संस्कृति, कला  वगैरह  भाषाओं और बोलियों के माध्यम से ही रूपाकार लेता है. हिन्दुस्तान अनंत भाषाओं और बोलियों का देश है. यहाँ अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र में रह रहे अलग-अलग मनुष्य समूह भिन्न-भिन्न भाषा-बोलियों के माध्यम से खुद को अभिव्यक्त करते हैं.  इन भाषा-भाषियों के बीच, भाषा (बोली नहीं) को लेकर अक्सर बहस और विवाद होते रहे हैं. लेकिन इस भाषा विवाद का स्वरूप और इसकी प्रकृति क्या रही है, यह एक विचारणीय मुद्दा है. पिछले दो दशकों में कुछ ऐसे भी विमर्श हुए हैं जिनके कारण देश और दु

भटका हुआ आंदोलन है नक्सलवाद: दिलीप सिमियन

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माओवाद पर लिखी दिलीप सिमियन (सीनियर फेलो, नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी) की किताब 'रिवोल्यूशन हाइवे' इन दिनों चर्चा में हैं. आज से कोई पांच-एक साल पहले वे यह किताब लिखने की तैयारी कर रहे थे. तब पटपडगंज स्थित उनके घर पर मिलना एक सुखद और विचारिक अनुभव था, ख़ासकर माओवादी विचारधारा पर उनके साथ बात करना. 1 अप्रैल 2006 को 'एक भटका हुआ आंदोलन है नक्सलवाद' शीर्षक से नवभारत टाइम्स ने उस बातचीत को प्रकाशित किया था. साथियों के हवाले कर रहा   हूँ.      - शशिकांत   यह कहना सही नहीं होगा कि हाल के वर्षों में नक्सली गतिविधियों में तेजी आई है। सच तो यह है कि 1967 में नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत के समय से ही उनकी गतिविधियां जारी हैं। हां, उनमें थोड़ा उतार-चढ़ाव आता रहा है। देश में 92 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। मजदूरों के खिलाफ ठेकेदार, बिचौलिये, मालिक या जमींदार की तरफ से हिंसा की जाती है। जिन उत्पादक रिश्तों में हिंसा एक दैनिक कर्म हो, वहां नक्सलवाद जैसी