मातृभाषा से कोई समझौता नहीं

भारत का भाषाई नक्शा
साथियो, 
पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में पाकिस्तान सरकार द्वारा उर्दू थोपे जाने के विरोध में 21 फरवरी, 1952 को ढाका में छात्रों ने अपनी मातृभाषा बांग्ला के पक्ष में जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन किए, जिसमें पुलिस और सेना की गोली से बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी मारे गए। मातृभाषा के सवाल से शुरू हुआ यही आंदोलन बाद में बांग्लादेश की मुक्ति  के आंदोलन में बदल गया। पेश है 21फरवरी 2011को दैनिक भास्कर, नई दिल्ली में प्रकाशित गंगा सहाय मीणा का आलेख:

हममें से अधिकांश को शायद यह जानकारी नहीं है कि 21 फरवरी को दुनियाभर में 'अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। काफी समय से यूनेस्को भाषाओं को बचाने के प्रति जागरूकता फैलाने का काम कर रहा है। 
'अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस' मनाने की प्रथम घोषणा 17 नवंबर 1999 को यूनेस्को द्वारा ही की गई। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा औपचारिक रूप से प्रस्ताव पारित कर 2008 में इसे मान्यता दी गई। 2008 को संयुक्त राष्ट्र ने 'अंतरराष्ट्रीय भाषा वर्ष' के रूप में मनाया।''अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस' मनाने का उद्देश्य निर्धारित किया गया- विश्व में भाषाई और सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिकता को बढ़ावा देना। 
उल्लेखनीय है कि इस दिन का संबंध भारतीय उपमहाद्वीप से है। पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में पाकिस्तान सरकार द्वारा उर्दू थोपे जाने के विरोध में 21 फरवरी, 1952 को ढाका में छात्रों ने अपनी मातृभाषा बांग्ला के पक्ष में जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन किए, जिसमें पुलिस और सेना की गोली से बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी मारे गए। 
मातृभाषा के सवाल से शुरू हुआ यही आंदोलन बाद में बांग्लादेश की मुक्ति  के आंदोलन में बदल गया। पूर्वी पाकिस्तान (पूर्वी बंगाल) के भाषा आंदोलन का एक और महत्वपूर्ण पक्ष है- बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी ने उर्दू का विरोध करते हुए बांग्ला के पक्ष में आंदोलन कर यह साबित कर दिया कि भाषा का धर्म से अनिवार्य रिश्ता नहीं होता। बांग्लादेश में 1952 के शहीदों को याद करने के लिए 21 फरवरी को सार्वजनिक अवकाश रहता है।
यूनेस्को ने इस बार के 'अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस' की थीम रखी है- 'भाषाओं और भाषाई विविधता को बचाने और प्रोत्साहित करने के लिए सूचना और संचार तकनीकें।' हमारी मातृभाषाओं पर सबसे ज्यादा हमला बाजार और तकनीक के द्वारा ही हो रहा है। अंग्रेजी और दूसरी बड़ी भाषाएं एकमात्र विकल्प के रूप में पेश की जा रही हैं। दुनियाभर में मातृभाषाएं खतरे में हैं। यूनेस्को ने एक इंटरेक्टिव एटलस तैयार कर ऐसी भाषाओं की सूची तैयार की है जो खतरे में हैं। इनमें भारत की कई भाषाएं भी शामिल हैं। 
दुनिया की तमाम भाषाएं, जो हजारों वर्षों से अस्तित्व में हैं और कहीं न कहीं आज भी अनेक समाजों की अभिव्यक्ति को शब्द देती हैं और विभिन्न मानव समुदायों की सांस्कृतिक पहचान हैं, उनके अस्तित्व को खतरा हमारी पूरी स्मृति को खतरा है। मानव सभ्यता का इतिहास इस बात का गवाह है कि सभ्यताएं अपने वर्चस्व के लिए हथियारों के साथ विचारधारात्मक उपादानों का भी सहारा लेती रही हैं। 
आम जन को सत्ता से बेदखल करने का सबसे आसान उपाय होता है सत्ता को ऐसी भाषा में चलाना जो आम जनता समझती ही न हो। संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी इसके उदाहरण हैं। जब जनता सत्ता की कार्यपद्धति को समझेगी ही नहीं तो उस पर सवाल कैसे उठाएगी? लोकतंत्र, चूंकि जनता की भागीदारी का तंत्र माना जाता है, इसलिए इससे अपेक्षा होती है कि इसमें शासन को यथासंभव पारदर्शी बनाया जाए और शासन में जनता की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। 
भारत में होना यह चाहिए था कि भारतीय भाषाओं (हिंदुस्तानियों की मातृभाषाओं) को राजभाषा बनाया जाता और उनके प्रोत्साहन की हरसंभव कोशिश की जाती। लेकिन औपनिवेशिक मानसिकता ने अंग्रेजी को विकास का पर्याय मान लिया और भारतीय भाषाओं की लगातार उपेक्षा की। चीन, जापान, कोरिया, इटली, फ्रांस आदि देशों ने यह साबित कर दिया कि भाषा (कम से कम अंग्रेजी) का विकास से कोई अनिवार्य रिश्ता नहीं। 
पिछले वर्ष उत्तराखंड सरकार ने संस्कृत को राज्य की द्वितीय राजभाषा घोषित कर दिया। इस कदम के पीछे वही रूढ़ मानसिकता काम कर रही है कि सारा ज्ञान संस्कृत में भरा पड़ा है और संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की जननी है। ये दोनों भ्रामक धारणाएं हैं। प्राकृतिक-विज्ञानों, समाज- विज्ञानों और कला-संस्कृति संबंधी तमाम शोधों से पहली धारणा निर्मूल सिद्ध हो चुकी है। 
भाषा-वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों से साबित कर दिया है कि संस्कृत से सभी भारतीय भाषाओं की उत्पत्ति की बात में दम नहीं है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी, डॉ. रामविलास शर्मा आदि भाषाविदों के अध्ययन के मुताबिक संस्कृत कभी आमजन के बोलचाल की भाषा नहीं रही। 
आधुनिक भारतीय भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत की तुलना में उन लोक-भाषाओं से हुई होगी जो तब आमजन के बोलचाल की भाषाएं थीं, जब संस्कृत सत्ता और साहित्य की भाषा थी। भारतीय स्थानों के नामों का अध्ययन करने पर भी संस्कृत से शेष भारतीय भाषाओं के पैदा होने की बात निर्मूल साबित होती है। किसी भाषा से दूसरी भाषा पैदा होने की तुलना में भारतीय आर्यभाषा परिवार की भाषाओं के संस्कृत से आदान-प्रदान की संभावना अधिक दिखती है। 
अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर जिस सवाल पर हमें गहराई से विचार करने की आवश्यकता है, वह है- अपनी मातृभाषाओं की कीमत पर संस्कृत और अंग्रेजी जैसी भाषाओं के आगे घुटने टेकना कहां तक उचित है? मातृभाषाओं के विकास के लिए जरूरी है कि सरकार बोलियों और छोटी भाषाओं में भी रोजगार के अवसर पैदा करे। 
हिंदी के साथ भारत की राजभाषा तमिल, मलयालम, बांग्ला, मराठी आदि भारतीय भाषाएं होनी चाहिए और उत्तराखंड में संस्कृत के स्थान पर कुमायूंनी और गढ़वाली को द्वितीय राजभाषा बनाया जाना चाहिए (जिसकी मांगें भी उठ रही हैं)। भाषा के सवाल पर सोचते वक्त हमें लोकतंत्र की मूल प्रतिज्ञा -जनता की भागीदारी- को याद रखना है। अगर हम सत्ता  में जनता की भागीदारी के पक्षधर हैं तो हमें मातृभाषाओं को बचाना और उचित स्थान देना ही होगा। 
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई राज्यों में संस्कृत के लिए अलग मंत्रालय हैं, जबकि मातृभाषाओं की तरफ देखने वाला कोई नहीं। दुनियाभर के शिक्षाविद यह निष्कर्ष प्रस्तुत कर चुके हैं कि प्राथमिक शिक्षा के लिए सर्वोत्तम भाषा बच्चे की मातृभाषा होती है। इसी तरह मौलिक चिंतन भी अपनी भाषा में ही संभव है। भाषाएं सीखने से हमारा कोई विरोध नहीं है। व्यक्ति जितनी भाषाएं सीखे, उतना अच्छा है, लेकिन अपनी मातृभाषा की कीमत पर नहीं।

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