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अप्रैल, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पुण्यतिथि के बहाने फणीश्वरनाथ रेणु को याद करते हुए

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ग्यारह अप्रैल को फणीश्वरनाथ रेणु की पुण्यतिथि है। 1977 में इमरजेंसी खत्म होने के डेढ़-दो महीने बाद ही उनकी मौत हो गई थी। रेणु को हम क्यों याद करते हैं? अभी तक का जो हिंदी साहित्य है उसमें सबसे उत्कृष्ट किसानी जीवन का साहित्य है। फणीश्वरनाथ रेणु के साथ एक शब्द आया- आंचलिकता। यद्यपि यह शब्द पंत जी का है। रेणु के साहित्य को आंचलिक साहित्य कहा गया। उसके बाद हिंदी साहित्य में आंचलिकता की पृवृत्ति पहचानी गई। रेणु का साहित्य वस्तुत: व्यतीतमानता (यानी जो हमेशा के लिए बीत रहा है, गुजर रहा है) का साहित्य है। इसका एक ऐतिहासिक कारण है। आज़ाद हिंदुस्तान में चुनाव हुए, पंचवर्षीय योजनाएं बनीं, सड़कों का निर्माण हुआ और इन सबके साथ विस्थापन का बड़ा दौर शुरू हुआ। गांव के लड़के शिक्षा और नौकरी के लिए बड़ी तादाद में शहरों-महानगरों में आए। वहां उनको नौकरी मिली। शादी करके वे वहीं बीवी-बच्चों के साथ रहने लगे। यानी इनके लिए परिवार का मतलब था पत्नी और बच्चे। यह मध्यवर्ग कहलाया। यह मध्य वर्ग पैदा तो हुआ गांव में, वहीं पला-पुसा लेकिन लेकिन रहने लगा शहर में। जो देहाती शहरी बन गया उसकी निगाह से गांव को देखता है उसको

संकीर्ण पूर्वाग्रहों के बीच निर्मल वर्मा : उदय प्रकाश

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निर्मल वर्मा आज ज़िंदा होते तो 81 बरस के होते। आज 3 अप्रैल ही के दिन 1929 में वे पैदा हुए थे। वे प्रेमचंद, और जैनेंद्र के बीच की एक ऐसी धारा थे जिसमें उन्होंने कहानी की ही नहीं, गद्य की अन्य विधाओं में भी नई संभावनाएं खोजीं। अक्सर आलोचना में उनको प्रेमचंद या भीष्म साहनी जैसे लेखकों के बीच रखकर देखने की कोशिश की जाती रही है जो कि सही नहीं है।  निर्मल जी ने नई कहानी या हिंदी की आधुनिक कहानी का जन्म ही प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी से माना था। हिंदी गद्य में उपन्यास के रूप और संरचना को लेकर आलोचकों में लंबे अर्से तक दुविधा रही। यह कभी न भूलें कि निर्मल वर्मा ने भारतीय उपन्यास की एक मौलिक और तर्कसंगत अवधारणा प्रस्तुत की। गद्य का कोई ऐसा रूप नहीं है जिसमें उनकी प्रतिभा अपने शिखर तक न पहुंची हो- चाहे निबंध हो या कहानी, डायरी अथवा अनुवाद। मेरी दृष्टि में वे हिंदी के अबतक के अप्रतिम अनुवादक थे। ‘कारेलयापेक की कहानियां’, ‘एमेकेएकगाथा’, ‘रोमियो-जूलियट’ तथा ‘अंधेरा’ जैसे अनुवाद आज भी अप्रतिम हैं। महादेवी वर्मा के शब्द-चित्रों के बाद “शायद ही किसी हिंदी लेखक ने ऐसी गद्य रचनाएं की हों जैसी निर्मल जी ने

खून-ए-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंनें : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की जन्मशती पर विश्वनाथ त्रिपाठी के संस्मरण

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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को पहली बार मैंने तब देखा था जब सज्ज़ाद जहीर की लंदन में मौत हो गई थी और वे उनकी ला श को लेकर हिंदुस्तान आए थे, लेकिन उनसे बाक़ायदा तब मिला था जब मैं प्रगतिशी ल लेखक संघ का सचिव था। यह इमरजेंसी के बाद की बात है। उन दिनों मैं ख़ूब भ्रमण  करता था। बड़े-बड़े लेखकों से मिलना होता था।  फ़ैज़ साहब से मैंने हाथ मिलाया। बड़ी नरम हथेलियां थीं उनकी। फिर एक मीटिंग में प्रगति शील साहित्य को लोकप्रिय बनाने की बात चल रही थी। मैंने फ़ैज़ साहब से पूछा कि आप इतना घूमते हैं , लेकिन हर जगह अंग्रे जी में स्पीच देते हैं, ऐसे में हिंदुस्तान और पाकिस्तान में हिंदी-उर्दू के प्रगति शी ल साहित्य का प्रचार कैसे होगा? फ़ैज़ साहब ने कहा ,  ‘‘ इंटरने श नल मंचों पर अंग्रे जी में बोलने की मज़बूरी होती है, लेकिन आपलोगों का कम से कम उतना काम तो कीजिए जितना हमने अपनी ज़ुबान के लिए किया है। ’’  उसके बाद उनसे मेरा कई बार मिलना हुआ। फ़ैज़ साहब के बारे में ये एक बात बहुत कम लोग जानते हैं । उसे प्रचारित नहीं किया गया। जब गांधीजी की हत्या हुई थी तब फ़ैज़ साहब "पाकिस