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लेखकीय स्वतंत्रता और बाज़ार (अब्दुल बिस्मिल्लाह ने शशिकांत से कहा)

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जब इतिहास करवट लेता है या जब समय बदलता है तब उसका प्रभाव जीवन के प्रत्येक पक्ष पर पड़ता है। साहित्य और कला की विधाएं उससे अछूती नहीं रह सकतीं। इस संदर्भ में काफी विचार होता रहा है और चिंताएं जाहिर की जाती रही हैं। लेकिन यह सच है कि जो बदलाव हो रहे हैं उन्हें चंद लोगों के विचार रोक नहीं सकते। लेकिन फिर भी हम लेखक और कलाकार इस पर विचार विमर्श करने से खुद को रोक नहीं सकते।  साहित्य के वर्तमान परिदृश्य पर गौर करें तो बाज़ार का दबाव एक बड़ा मसला बनकर उभरा है। कला और साहित्य पर बाज़ार का इतना दबाव पहले कभी नहीं था जितना आज है। अब सवाल यह उठता है कि इस दबाव को पैदा करनेवाली कौन सी शक्तियां हैं? यह सच है कि लेखक या कलाकार यह दबाव पैदा नहीं कर रहा है। रचनाकार खुद को अभिव्यक्त करने के लिए रचना करता है। स्वान्त: सुखाय वाली बात तो अब रही नहीं। हां अपनी अभिव्यक्ति को वह अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहता है। इसके लिए आज कई नए माध्यम भी आ गए हैं। और जब सारे माध्यम बाज़ार से ही संचालित हो रहे हैं तो लेखक और कलाकार क्या करे। आज के  बाज़ारवादी दौर में यदि कोई लेखक या कलाकार खुद को बाज़ार की गिरफ़्त