साथियो, स्त्री और विज्ञापन मसले पर लगातार बहस होती रही है. सुप्रसिद्ध स्त्रीवादी लेखिका प्रभा खेतान जी से 2003 में IIC में इंटरव्यू में जब मैंने यह सवाल किया कि- "ये बताइये, विज्ञापनों में स्त्री के इस्तेमाल का दक्षिणपंथी भी विरोध करते हैं और वामपंथी भी. दोनों के विरोध में क्या फर्क है?" आदरणीय प्रभा जी नरभसा गईं. बेशक विज्ञापन का बाज़ार स्त्री को मौक़ा, रोज़गार, पैसा, आइडेनटिटी...बहुत कुछ दे रहा है...स्त्री की देह उसकी देह है, वो जैसा चाहे इस्तेमाल करे, पुरुष कौन होता है स्त्री देह की शुचिता का चौकीदार?...मामला बेहद जटिल है...देहवादी महिलाओं की अलग धारणा है, गैर देहवादी की भिन्न. जनसत्ता (20 मई 2000 और 8 जनवरी 2002) तथा SFI की पत्रिका  'स्टूडेंट स्ट्रगल'  के फरवरी 2002 अंक में प्रकाशित 3 लेखों को मिलाकर पेश कर रहा हूँ यह लेख. - शशिकांत

विज्ञापन, बाज़ार और स्त्री 
पिछले दिनों अंग्रेज़ी के एक अखबार (THE HINDU) ने पहले पन्ने पर एक आयुर्वेदिक दवा कंपनी का विज्ञापन छापा. विज्ञापन की पंक्तियाँ कुछ इस तरह थीं: "क्या आपकी पत्नी हर सुबह आपको इस फल (करेले का चित्र) का रस पिलाने की जिद करती है? एक अच्छी पत्नी आपकी हर समस्या का ख़याल रखती है और उसमें आपकी भागीदार बनती है...."
इसी तरह, करवा चौथ के मौक़े पर दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी के एक अखबार (हिन्दुस्तान) में पहले पन्ने पर एक अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा संस्थान से संबद्ध एक हेल्थकेयर सेंटर का विज्ञापन छपा. विज्ञापन में नीले आकाश में चौथ के चाँद के चित्र के नीचे मोटे अक्षरों में जो सन्देश दिया गया था, वह इस तरह है: "इस करवा चौथ केवल चाँद की तरफ नहीं अपने पति की सेहत की तरफ भी देखिए. हर साल आपने उनकी सेहत और लम्बी उम्र के लिए व्रत रखा. इस साल अपनी प्रार्थना को सशक्त कीजिए. उन्हें .....हेल्थ केयर सेंटर के प्रिवेंटिव हेल्थ चेकअप का उपहार दीजिए." 
लगभग एक चौथाई पृष्ठ के इस विज्ञापन में 'चेकअप' शब्द के ऊपर किनारे पर तारे का एक छोटा-सा निशाँ था. सिगरेट की डिब्बी पर 'वैधानिक चेतावनी' की तरह विज्ञापन के नीचे कोने में तारे के निशाँ के सामने छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा था: 'शुल्क एक हज़ार नौ सौ पचास रुपये से तीन हज़ार चार सौ पचास रुपये, उम्र  पर निर्भर.'
पहले विज्ञापन से स्पष्ट है कि यह न केवल पुरुष प्रधान भारतीय समाज में पति (पुरुष) द्वारा पत्नी (स्त्री) से की गई अपेक्षाओं को व्यक्त करता है, बल्कि परिवार और समाज में स्त्री की दशा को भी दर्शाता है. विज्ञापन की भाषा पर गौर करें तो हम पाएंगे कि यह विज्ञापन पुरुषों को संबोधित है. यानि उक्त दवा कंपनी एहतियात के तौर पर मधुमेह के मरीजों को फल या करेले का रस पीने की अगर सलाह देती है तो इसका  हक़दार सिर्फ पुरुष वर्ग ही है. 
यानि उत्पादक आयुर्वेदिक दवा कंपनी और पुरुष वर्ग के बीच सीधा संवाद है जिसमें न केवल पूरी आधी स्त्री आबादी गायब कर दी गई है बल्कि उससे अपेक्षा की गई है कि वह पुरुषों की सेहत-रक्षा के लिए एहतियात के तौर पर कदम उठाए, उनकी हर समस्या का ख़याल रखे और उसमें उनकी भागीदार बने. ऐसा करने पर ही वह अपने पति या पुरुष वर्ग से 'एक अच्छी पत्नी' का खिताब पाने की हक़दार होगी. 
यहाँ पर एक सवाल यह उठता है कि दवा कंपनी जिस मधुमेह से बचने के लिए एहतियात के तौर पर करेला का रस पीने की सलाह देती है, क्या यह बीमारी सिर्फ पुरुषों को होती है? लैंगिक विषमता वाले पुरुष प्रधान भारतीय समाज में ही यह संभव है कि स्त्री से 'एक अच्छी पत्नी' बनने की अपेक्षा की जाए.
उक्त विज्ञापन की भाषा से एक और बात तह झलकती है कि पुरुष आमतौर पर अपनी और बीवी-बच्चे की सेहत के प्रति लापरवाह रहते हैं, इसलिए स्त्रियों को चाहिए कि वे अपने पति की सेहत का ख़याल रखे. अगर 'एक अच्छी पत्नी' अपने पति की हर समस्या का ख़याल रखती है और उसमें उसकी भागीदार बनती है तो क्या पति की भी यह ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह अपनी पत्नी की हर समस्या का ख़याल रखे और उसमें बराबर का भागीदार बने?
विज्ञापन में विडम्बना यह है कि दवा कंपनी ही बतला रही है कि सेहत के मामले में स्त्रियों के साथ भेदभाव किया जाता है. सेहत और लिंग-भेद से संबंधित अध्ययनों से यह निष्कर्ष पहले ही निकल चुका है कि स्त्रियाँ अपनी सेहत संबंधी समस्याओं को तब तक छुपाती रहती हैं, जब तक स्थिति गंभीर नहीं हो जाती है. 
आज जबकि महिला और स्वास्थ्य संगठन, सरकारी-गैर सरकारी संस्थाएं, मीडिया वगैरह इस मुद्दे को उठाकर स्त्री स्वास्थ्य के प्रति स्त्रियों और पुरुषों में जागरूकता पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं, वहां यह विज्ञापन इस मुहिम को क्या कमज़ोर नहीं करता है? 
दरअसल, यह पहला ऐसा विज्ञापन नहीं है. टेलिविज़न और पत्र-पत्रिकाओं में ढेरों ऐसे विज्ञापन दिखलाए और छापे जा रहे हैं जिनमें लैंगिक भेदभाव स्पष्ट रूप से दिखता है. समाजशास्त्रियों का कहना है कि हमारे-आपके घर-परिवार और समाज में यदि लिंग-भेद है तो विज्ञापनों या अन्य बाज़ारवादी तंत्रों में भी यह दिखेगा, क्योंकि उत्पादक और उपभोक्ता ही नहीं बल्कि विज्ञापन निर्माता भी हमारे-आपके बीच के ही लोग होते हैं.
क्या यह सच नहीं है कि भोजन हो या शिक्षा अथवा चिकित्सीय देखभाल और पालन-पोषण, हमारे घर-परिवार और समाज में स्त्रियों के साथ हर जगह और हर मामले में भेदभाव किया जाता है. विकास और समानता का ढिंढोरा हम भले पीटते रहें लेकिन इसी लैंगिक भेदभाव की वजह से देश में बड़े क्रूर तरीक़े से हर साल करीब पचास लाख कन्या भ्रूणों की ह्त्या कर दी जाती है, जिसके परिणामस्वरूप न केवल भारत बल्कि पूरे दक्षिण एशिया का स्त्री-पुरुष अनुपात प्रभावित हुआ है. 
दुनिया में एक हज़ार पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या जहां एक हज़ार छह है, वहीं दक्षिण एशिया में एक हज़ार पुरुषों पर महज़ नौ सौ अडसठ स्त्रियाँ हैं. भारत में बड़ी तादाद में स्त्रियाँ खून की कमी से ग्रस्त हैं. यौन रोग, गर्भावस्था में उचित देखभाल और पोषक आहार की कमी, प्रसव वगैरह के दौरान भी बड़ी तादाद में स्त्रियाँ दम तोड़ देती हैं. 
मासूम बच्चियों से लेकर वृद्धाओं के साथ बलात्कार की ख़बरों से अखबारों के पन्ने और न्यूज़ चैनल पटे रहते हैं. लाखों बच्चियों और स्त्रियों को बाल वेश्यावृत्ति और वेश्यावृत्ति के धंधे में ज़बरन धकेल दिया गया है. घर की देहरी से लेकर कार्य-स्थलों तक कहीं भी स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं है. दहेज़, दहेज़-ह्त्या, बाल विवाह, विधवाओं की दुर्दशा, स्त्रियों पर अत्याचार वगैरह घटनाएँ बदस्तूर जारी हैं.
दूसरे (करवा चौथ) विज्ञापन को गौर से पढ़ने पर यह सवाल उठता है कि क्या वास्तव में यह विज्ञापन करवा चौथ व्रत के प्रति स्त्रियों में व्याप्त आस्था और अंधविश्वास को नकारता है या आधुनिकता और वैज्ञानिकता की आड़ में 'चिकित्सा सेवा' के बाज़ारीकरण को विज्ञापित करता है. 
यह सच है कि आधुनिक मानसिकता कई तरह की धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं, क्रिया-कलापों, व्रतों, पर्व-त्योहारों वगैरह को मध्युगीन दकियानूसी मानसिकता की उपज मानती है. दरअसल आधुनिक मानसिकता एक ऐसी वैज्ञानिक/प्रायोगिक मानसिकता होती है जो तर्क, बुद्धि और वैज्ञानिक कसौटी पर कसकर ही किसी वस्तु, विचार या कार्य-व्यवहार को देखती है. 
इसी वजह से समय-समय पर परंपराएँ बदलती रहती हैं और कुछ लम्बे वक्त तक चलती चली जाती हैं. चलती चली जाने वाली परम्पराएँ चूंकि लोक में व्याप्त होकर संस्कृति का वृहत्तर हिस्सा बन जाती हैं इसलिए ऐसा होता है. सती प्रथा, पर्दा पर्था, बाल विवाह, दहेज़ जैसी कुप्रथाओं का पीछे छूट जाना और पर्व-त्योहारों, व्रतों, धार्मिक-सांस्कृतिक अनुष्ठानों वगैरह का बने रहना इसकी मिसाल है.
दरअसल, करवा चौथ भारतीय विवाहिता स्त्रियों के द्वारा पूजा जानेवाला एक ऐसा व्रत है जिसे वे अपने पति की अच्छी सेहत और उनकी लम्बी आयु के लिए रखती है. हालांकि स्त्रीवादी नज़रिए से भी इस व्रत का मूल्यांकन करने की ज़रुरत है, लेकिन प्रसंगवश यहाँ गौर करने की बात यह है कि यह व्रत सिर्फ अनपढ़ या मध्ययुगीन मानसिकता वाली अन्धविश्वासी स्त्रियाँ ही नहीं, बल्कि बड़ी तादाद में पढी-लिखी, आधुनिक स्त्रियाँ भी रखती हैं, जो भलीभांति जानती हैं कि उनके पति की लम्बी आयु अच्छी सेहत के लिए उनके खान-पान और रहन-सहन के तौर-तरीक़े का ध्यान रखना ज़रूरी है और सेहत संबंधी किसी तरह की दिक्क़त होने पर उनका ईलाज करवाना ज़रूरी है. 
पति के अलावा भाइयों और बच्चों के लिए रखे जानेवाले व्रतों के साथ भी यही बात लागू होती है. पति, बच्चे या परिवार के सदस्यों पर आई इस तरह के 'संकट की स्थिति' में स्त्रियाँ अपने जातीय सेवा भाव की वजह से उनकी भलीभांति सेवा-सुश्रूसा, ईलाज और देखभाल करती हैं. 
इसीलिए उक्त विज्ञापन अपने व्यावसायिक हित के लिए पति की सेहत और उसकी लम्बी उम्र के लिए करवा चौथ का व्रत रखनेवाली लाखों-करोड़ों स्त्रियों की आस्था और  विश्वास को न केवल खंडित करता है, बल्कि उन्हें चिकित्सा बाज़ार का उपभोक्ता बनाने के लिए उकसाता भी है.
दरअसल आज के बाज़ारवादी माहौल में उपभोक्ताओं को रिझाना अब बाज़ार के बाएँ हाथ का खेल हो गया है. बाज़ार के हाथ में ग़रीब से ग़रीब और कृपण शख्स को भी उपभोक्ता बनाने की जादू की छड़ी है. बाज़ार यह जान गया है कि इंसान की सबसे बड़ी कमज़ोरी उसका घर-परिवार, उसकी आस्था और उसका विश्वास होता है. इन सबके बीच घुसपैठ कर बाज़ार को व्यापक और विस्तृत किया जा सकता है, घटिया से घटिया और बेकार से बेकार उत्पाद बेचा जा सकता है. 
फिर हमारे यहाँ पुरुष और स्त्री की आस्था और विश्वास तथा घर-परिवार के प्रति उनके समर्पण-भाव में भी फर्क होता है. इसीलिए शायद हिन्दुस्तानी स्त्रियाँ व्रत-त्यौहार कुछ ज़्यादा ही करती हैं, क्योंकि वे पति, बच्चे और परिवार की हिफाज़त चाहती हैं. पराधीन जो ठहरीं! इन सबकी दुहाई देकर कंजूस से कंजूस स्त्री की भी अंटी से पैसा निकलवाया जा सकता है.
वास्तव में देखा जाए तो आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित निजी क्लीनिकों, हेल्थ केयर सेंटरों, नर्सिंग होमों और पाँचसितारा अस्पतालों के रूप में चिकित्सा क्षेत्र आज एक ऐसे बाज़ार के रूप में  विकसित होता जा रहा है, जहां 'सेवा परमोधर्मः' की जगह लिखा होगा 'पहले पैसा फिर सेवा.' राजधानी दिल्ली के कुछ पंचसितारा और निजी अस्पतालों में पिछले दिनों हुईं घटनाएं इसके प्रमाण हैं.
दरअसल, आज हम वैश्वीकरण के उस दौर में पहुँच गए हैं, जहां चौतरफ़ा बाज़ार बाज़ार ही बाज़ार है. बाज़ार के बाहर के कुछ भी नहीं है. आज बाज़ार इतना ताकतवर, लचीला और सर्वव्यापी हो गया है कि वह किसी की भी आस्था, विश्वास, भावना, व्यवहार, मूल्य, कर्म, मिथक, परम्परा, घटना, हालात वगैरह का अपने उत्पाद बेचने के लिए मनमाफ़िक इस्तेमाल कर सकता है.   

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