अंग्रेज़ी ही नहीं, हिंदी भी अभिजात भाषा है उनके लिए...!!!
गाँव की पंचायत |
मित्रो,
14 सितम्बर - हिंदी दिवस कल बीत गया. कई साल पहले राष्ट्रीय सहारा में 'आम आदमी की भाषा का सवाल' शीर्षक से प्रकाशित अपना यह लेख आपके हवाले कर रहा हूँ. इस लेख में अंग्रेज़ी के साथ-साथ खड़ी बोली हिंदी से भी सवाल पूछ रही हैं हिंदुस्तान के दीगर हिस्सों में बोली जानेवाली वे सैकड़ों बोलियाँ जिन्हें दूर-दराज़ के ठेठ देहाती, आदिवासी, दलित, पिछड़े लोग बोलते-बतियाते हैं...जिनके लिए खड़ी बोली हिंदी भी कुछ-कुछ अंग्रेज़ी जैसी ही है...!!! -शशिकांत
14 सितम्बर - हिंदी दिवस कल बीत गया. कई साल पहले राष्ट्रीय सहारा में 'आम आदमी की भाषा का सवाल' शीर्षक से प्रकाशित अपना यह लेख आपके हवाले कर रहा हूँ. इस लेख में अंग्रेज़ी के साथ-साथ खड़ी बोली हिंदी से भी सवाल पूछ रही हैं हिंदुस्तान के दीगर हिस्सों में बोली जानेवाली वे सैकड़ों बोलियाँ जिन्हें दूर-दराज़ के ठेठ देहाती, आदिवासी, दलित, पिछड़े लोग बोलते-बतियाते हैं...जिनके लिए खड़ी बोली हिंदी भी कुछ-कुछ अंग्रेज़ी जैसी ही है...!!! -शशिकांत
मनुष्य का इतिहास, उसकी परम्परा, संस्कृति, कला वगैरह भाषाओं और बोलियों के माध्यम से ही रूपाकार लेता है. हिन्दुस्तान अनंत भाषाओं और बोलियों का देश है. यहाँ अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र में रह रहे अलग-अलग मनुष्य समूह भिन्न-भिन्न भाषा-बोलियों के माध्यम से खुद को अभिव्यक्त करते हैं.
इन भाषा-भाषियों के बीच, भाषा (बोली नहीं) को लेकर अक्सर बहस और विवाद होते रहे हैं. लेकिन इस भाषा विवाद का स्वरूप और इसकी प्रकृति क्या रही है, यह एक विचारणीय मुद्दा है. पिछले दो दशकों में कुछ ऐसे भी विमर्श हुए हैं जिनके कारण देश और दुनिया के हाशिए के मनुष्य के अधिकारों और अस्मिताओं की रक्षा के सवाल उठ रहे हैं.
हिन्दुस्तान की अनपढ़ आबादी के लिहाज़ से देखा जाए तो यहाँ भाषा को लेकर हुए तमाम संघर्षों और विवादों के बीच एक सवाल यह भी उठता है कि क्या अनपढ़ नागरिकों की भाषा या उनकी बोलियों को लेकर कभी कोई विवाद या संघर्ष यहाँ हुआ है? शायद नहीं...!
अनपढ़ नागरिकों की भाषा और बोली का यह सवाल आज़ादी के पांच-छह दशक बाद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश के नागरिकों को संविधान द्वारा प्रद्दत्त अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार से जुडा हुआ एक अहम् मसला है.
मशहूर फ्रांसीसी चिन्तक जॉक देरीदा ने लिखा है, "समाज में जो शासक समुदाय है और उसके जो बुद्धिजीवी हैं, वे संस्कृति, साहित्य और कला के क्षेत्र में एक केन्द्रीय परम्परा बनाए रखना चाहते हैं और दूसरी परम्परा को हमेशा हाशिए पर रखने की कोशिश करते हैं." बेशक, भाषा का सवाल इनसे अलग नहीं है.
गाँव का हाट |
दरअसल, भाषा और बोली आदिम युग से ही मनुष्य की अभिव्यक्ति का माध्यम रही है. लेकिन कालान्तर में यह कुछ दबंग समूहों/वर्गों के भाषिक-वर्चस्व का साधन बनती गई. इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि एक समूह/वर्ग की अभिव्यक्ति का माध्यम (भाषा या बोली) , दूसरे समूह/वर्ग पर वर्चस्व कायम करने का साधन बन जाए...!
वस्तुतः हिन्दुस्तान की अनपढ़ जनता जिस भाषा-बोली में बोलती-बतियाती, सोचते-समझती, हंसती-रोती है, हमारे राज-काज की भाषा में क्या उनका इस्तेमाल होता है? यदि नहीं होता है तो क्या अब नहीं होना चाहिए?
हिन्दुस्तान के एक सौ पच्चीस करोड़ नागरिकों को अनपढ़ और पढ़े-लिखे वर्ग में बाँट कर देखा जाए तो हम पाएँगे कि सन सैंतालिस के बाद के वर्षों में मुख्य धारा में पढ़े-लिखे अभिजात और प्रबुद्ध वर्ग के लोग ही रहे हैं और देश के कुल संसाधनों के एक बहुत बड़े हिस्से का इसी वर्ग के लोगों ने उपभोग किया है.
यही नहीं, देश के नीति निर्माण के क्षेत्रों जैसे शासन, सत्ता, शिक्षा, न्याय, अर्थव्यवस्था, व्यापार, उद्योग, देसी-विदेशी संस्थाओं, संगठनों और उनसे मिलनेवाले धन एवं सुविधाओं पर इसी वर्ग के लोगों का कब्ज़ा है. अनपढ़ तबका तो हाशिए पर रहते हुए सिर्फ शासित होता रहा है और कमरतोड़ मेहनत-मज़दूरी करके भी फटेहाली में जी-मर रहा है.
सभा-सोसायटियों, दफ़्तरों वगैरह में यदि अंग्रेज़ी न पढ़ने-समझनेवाले हीनता से ग्रस्त रहते हैं तो हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं वाले माहौल में एक-दूसरी भाषाओं और हिन्दी के क्षत्रीय बोलियों का इस्तेमाल करनेवाले कम पढ़े-लिखे लोगों की हालत भी असहज होती है. जबकि देश के करोड़ों अनपढ़ लोग ऐसी जगहों पर हाशिए से भी बाहर होते हैं.
डा. राम मनोहर लोहिया के शब्दों में कहें तो, "भाषा और भूषा का यह अलगाव शासितों के मन में हीन भाव पैदा करता है. उनको लगता है कि शासक उनसे बहुत ऊंचा है और वे ख़ुद इतना नीचे हैं कि राजकाज उनके बस की चीज़ नहीं."
दरअसल, सन सैंतालिस के बाद सुनियोजित षडयंत्र के तहत दफ़्तरों, कोर्ट-कचहरियों वगैरह में राजकाज की अभिजात भाषा को बढ़ावा दिया गया. भाषिक वर्चस्व और उसके प्रतिरोध की जो राजनीति की गई, वह भी अलग-अलग विकसित भाषाओं के अभिजात वर्ग के भाषिक वर्चस्व के ख़याल तक ही सीमित रही. जबकि क्षेत्रीय बोलियों और अनपढ़ों, मज़दूरों, ग़रीब किसानों, कामगारों, आदिवासी, दलित वगैरह हाशिए के समूहों की रोज़मर्रा की भाषा और बोलियों का सवाल इनके भाषा आन्दोलन का कभी सवाल नहीं बना.
आज के वक्त यह ज़रूरी हो गया है कि भाषा के सवालों के भीतर इन सवालों को शामिल किया जाए, क्योंकि भाषा और बोली का यह सवाल मनुष्य की ज्ञान प्राप्ति से जुडा हुआ मसला भी है. देश की राजनीतिक व्यवस्था, क़ानून या नीति निर्माण के क्षत्र में पढ़े-लिखे अभिजात वर्ग का कब्ज़ा भले हो, लेकिन वह अपनी भाषा-बोलियों, दृष्टि, जीवन पद्धति, मूल्य और समाज को देखने-परखने के नज़रिए को मानने के लिए शेष अनपढ़ और अशिक्षित जनता को बाध्य नहीं कर सकता.
हिन्दुस्तान की भाषाई और सांस्कृतिक बहुलता को बनाए रखने के लिए यह अपरिहार्य है.
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