साहित्य की स्वायत्तता पर पहरेदारी / राजेंद्र यादव
आज हमें इस बात का बेहद अफसोस है कि हमारे यहां साहित्य और संस्कृति की कोई भी संस्था स्वायत नहीं है। वह या तो सरकारी लोगों से संचालित होती है या वहां पर कोई न कोई ऐसा तथाकथित साहित्यकार बैठा दिया जाता है जिसका एकमात्र उद्देश्य सत्ता का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन करना होता है। मैं खुद दो साल प्रसार भारती बोर्ड का मेंबर था। हमें आष्वासन दिया गया था कि प्रसार भारती को, जिसके अंतर्गत आकाशवाणी और दूरदर्शन- दोनों आते हैं, को स्वायत्तता दी जाएगी लेकिन वे कभी स्वायत नहीं हुए।
सीईओ के नाम पर वहां हमेशा ऐसा सेक्रेटरी बैठा दिया जाता रहा था, जो एक तरफ मानव संसाधन मंत्रालय में सेक्रेटरी या ज्वाइंट सेक्रेटरी होता था और दूसरी तरफ प्रसार भारती का सीईओ यानी मुख्य कार्यकारी अधिकारी। मेरी और रोमिला थापर की हमेशा यही आवाज होती थी कि हमें अपने निर्णय स्वतंत्र रूप से लेने चाहिए और हमारे पास फाइनेंस या गलत कदम उठानेवालों के खिलाफ कार्रवाई करने की शक्ति भी होनी चाहिए। इसके बिना स्वायतता का कोई मतलब ही नहीं था। जब सारा पैसा सरकार देगी तो किसकी नियुक्ति कहां करनी है, यह सरकारी प्रतिनिधि ही तय करेगा। ऐसी स्वायत्तता का क्या अर्थ रह जाता है ?
लगभग यही स्थिति साहित्य अकादमी की भी है। वहां हिंदी के नाम पर जिन बासी प्राध्यापकों को नियुक्त किया गया है उनका झुकाव दक्षिणपंथी राजनीति की तरफ है। जैसे इस बार दिया जानेवाला साहित्य अकादेमी पुरस्कार कैलाष वाजपेयी को मिला है। निष्चय ही कैलाश वाजपेयी बहुत सक्षम कवि हैं और मैं उनका बीसियों साल से सम्मान करता रहा हूं, लेकिन इधर वे जिस तरह आध्यात्मिक और रहस्यवादी हो गए हैं। वे निश्चय ही अकादमी के हिंदी प्रभारी के काफी निकट जान पड़ते हैं। इसी लाइन में अभी रामदरश मिश्र और कमल किषोर गोयनका भी बैठे हुए हैं। ईश्वर ने चाहा तो वे भी कृतार्थ किए जाएंगे।
मुझे साहित्य अकादमी जैसे बड़े संस्थानों के इन पुरस्कारों के मुकाबले मुझे छोटे-छोटे स्तर पर दिए जानेवाले पुरस्कार सार्थक लगते हैं। हालांकि हिंदी में आज ऐसे पुरस्कारों की संख्या सैकड़ों में है। खुशी की बात यह है कि ये सब के सब लगभग निर्विवाद रूप से कवियों को दिए जाते हैं। कविता की और कोई सार्थकता तो रह नहीं गई है। चलिए इस बहाने ही एकाध जगह तस्वीर निकल जाती है। यह उनकी जिंदगी संवारने के लिए काफी है। देखना यह है कि इस तरह से बांस लगाकर कविता के बिजूके को कितने दिनों तक और खड़ा रखा जा सकता है।
मुझे तकलीफ है कि आज नक्सलवाद को दूसरी आतंकवादी गतिविधियों के साथ रखकर कानून और व्यवस्था के कठघरे में डाल दिया गया है। अरुंधती राय ने इस कार्रवाई के बारे में ठीक ही कहा था कि दुनिया की लगभग सबसे बड़ी फौजी ताकत को नंगे-भूखे किसानों और आदिवासियों के खिलाफ कर दिया गया है। कोई विश्वास करेगा कि अपने ही देश में जरूरतमंद किसानों और आदिवासियों को सिर्फ इसलिए फौजों और हेलिकाप्टरों से भूना जा रहा है क्योंकि वे अपने जल, जंगल और जीमन की लड़ाई लड़ रहे हैं। सरकार उनकी जगह बड़ी-बड़ी कारपोरेट घरानों को दे रही है और करोड़ों के घूस और घपले खुलेआम संपन्न किए जा रहे हैं। मुझे किसी भी भाषा का कोई भी चिंतक, विचारक या साहित्यकार नहीं मिला जो इन सरकारी धांधलियों का पक्ष लेता हो। सबकी सहानुभूति नक्सलियों के साथ है मगर सत्ता की अंधी सरकारें उन्हें सिर्फ यही जुमला पकड़ा सकती हैं कि यदि उन्हें रोटी नहीं मिलती तो ब्रेड क्यों नहीं खाते?
इक्कीसवीं शताब्दी भारत के लिए भविष्य रहित और स्वप्नहीनता की शताब्दी है। आज ऐसा कोई सपना हमारे युवावर्ग के पास नहीं है जिसके लिए वह लड़ सके। सिर्फ छोटे-छोटे संस्थानों में नौकरियां पाने, विदेश यात्राएं करने या झटके से धन कमा लेने के सपने ही उनका भविष्य बनाते हैं। यह एक ऐसा मानसिक दबाव है जिसके कारण लोग ज्योतिषियों, नजूमियों, मौलवियों, भगवानों और अपराधी सरगनाओं की शरण में जा रहे हैं। आज का अखबार खेलिए! उसमें बैंक और दूसरों को लूटने की कम से कम दस घटनाएं आपके सामन होंगी। यहां आजकल दस-बीस लाख रुपये एक झटके में या एकआध हत्या करके लूट लिए जाते हैं।
रोजमर्रा की जरूरत के सामान के दाम मध्यवर्ग की पहुंच से बाहर हो गए हैं। सौ रुपये की एक किलो दाल और पचास रुपए का आटा खरीदकर कोई कितने दिन तक अपना घर चला सकता है। इन स्थितियों में लूटमार नहीं होगा तो क्या होगा। सरकारी आंकड़े और आष्वासन बाजीगरों के चमत्कार जैसे लगते हैं। अगर उदाहरण ही देना हो तो मैं ‘स्लमडाग मिलेनियर’ फिल्म का नाम देना चाहूंगा, जिसमें झोपड़पट्टी के अनगिनत भूखे-नंगे, दौड़ते-भागते बच्चों के साथ करोड़पति बनाने का खेल खेला गया है और झूठे-सच्चे जवाबों पर करोड़ों रुपये का इनाम दे दिया गया है। यह अपराध और सपने- दोनों को बेचने की कवायद है। यही हमारे आज के युवावर्ग का वर्तमान है।
साहित्य में भी आप देखेंगे कि भविष्य के सपने लगभग गायब हो गए हैं। कहानियां और उपन्यास सिर्फ तात्कालिक जातिवादी संघर्षों, जिंदगी से जूझते, घुटते हुए लोगों की तस्वीरों से भरी है। मुझे यह सारा परिदृष्य एक खौलते हुए तालाब की याद दिलाता है। हमेषा लगता है कि जैसे अभी कोई विस्फोट होगा और सारी चीजें बदल जाएंगी, मगर होगा कुछ भी नहीं। हम इसी तरह सरकार और माफियाओं के सत्ताचारों के बीच पिसते रहेंगे।
बहरहाल, कहा तो जाता है कि जो समाज के लिए सबसे बडे़ संकट के दिन होते हैं वह साहित्य के लिए सबसे उर्वर सामग्री पेश करते हैं। जब सारा समाज स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था तब एक से एक जबरदस्त रचनाएं सामने आई थीं। आज जब सबके सब जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं तब निश्चय ही ऐसा कुछ सामने आएगा जो इन सबको भविष्य के लिए एक दस्तावेजी चित्रावली नई पीढ़ी के हाथ में सौंपेगा। हो सकता है मेरा यह सोचना एक झूठी आशा हो, मगर इनमें कम से कम एक आशा तो है।
सीईओ के नाम पर वहां हमेशा ऐसा सेक्रेटरी बैठा दिया जाता रहा था, जो एक तरफ मानव संसाधन मंत्रालय में सेक्रेटरी या ज्वाइंट सेक्रेटरी होता था और दूसरी तरफ प्रसार भारती का सीईओ यानी मुख्य कार्यकारी अधिकारी। मेरी और रोमिला थापर की हमेशा यही आवाज होती थी कि हमें अपने निर्णय स्वतंत्र रूप से लेने चाहिए और हमारे पास फाइनेंस या गलत कदम उठानेवालों के खिलाफ कार्रवाई करने की शक्ति भी होनी चाहिए। इसके बिना स्वायतता का कोई मतलब ही नहीं था। जब सारा पैसा सरकार देगी तो किसकी नियुक्ति कहां करनी है, यह सरकारी प्रतिनिधि ही तय करेगा। ऐसी स्वायत्तता का क्या अर्थ रह जाता है ?
लगभग यही स्थिति साहित्य अकादमी की भी है। वहां हिंदी के नाम पर जिन बासी प्राध्यापकों को नियुक्त किया गया है उनका झुकाव दक्षिणपंथी राजनीति की तरफ है। जैसे इस बार दिया जानेवाला साहित्य अकादेमी पुरस्कार कैलाष वाजपेयी को मिला है। निष्चय ही कैलाश वाजपेयी बहुत सक्षम कवि हैं और मैं उनका बीसियों साल से सम्मान करता रहा हूं, लेकिन इधर वे जिस तरह आध्यात्मिक और रहस्यवादी हो गए हैं। वे निश्चय ही अकादमी के हिंदी प्रभारी के काफी निकट जान पड़ते हैं। इसी लाइन में अभी रामदरश मिश्र और कमल किषोर गोयनका भी बैठे हुए हैं। ईश्वर ने चाहा तो वे भी कृतार्थ किए जाएंगे।
मुझे साहित्य अकादमी जैसे बड़े संस्थानों के इन पुरस्कारों के मुकाबले मुझे छोटे-छोटे स्तर पर दिए जानेवाले पुरस्कार सार्थक लगते हैं। हालांकि हिंदी में आज ऐसे पुरस्कारों की संख्या सैकड़ों में है। खुशी की बात यह है कि ये सब के सब लगभग निर्विवाद रूप से कवियों को दिए जाते हैं। कविता की और कोई सार्थकता तो रह नहीं गई है। चलिए इस बहाने ही एकाध जगह तस्वीर निकल जाती है। यह उनकी जिंदगी संवारने के लिए काफी है। देखना यह है कि इस तरह से बांस लगाकर कविता के बिजूके को कितने दिनों तक और खड़ा रखा जा सकता है।
मुझे तकलीफ है कि आज नक्सलवाद को दूसरी आतंकवादी गतिविधियों के साथ रखकर कानून और व्यवस्था के कठघरे में डाल दिया गया है। अरुंधती राय ने इस कार्रवाई के बारे में ठीक ही कहा था कि दुनिया की लगभग सबसे बड़ी फौजी ताकत को नंगे-भूखे किसानों और आदिवासियों के खिलाफ कर दिया गया है। कोई विश्वास करेगा कि अपने ही देश में जरूरतमंद किसानों और आदिवासियों को सिर्फ इसलिए फौजों और हेलिकाप्टरों से भूना जा रहा है क्योंकि वे अपने जल, जंगल और जीमन की लड़ाई लड़ रहे हैं। सरकार उनकी जगह बड़ी-बड़ी कारपोरेट घरानों को दे रही है और करोड़ों के घूस और घपले खुलेआम संपन्न किए जा रहे हैं। मुझे किसी भी भाषा का कोई भी चिंतक, विचारक या साहित्यकार नहीं मिला जो इन सरकारी धांधलियों का पक्ष लेता हो। सबकी सहानुभूति नक्सलियों के साथ है मगर सत्ता की अंधी सरकारें उन्हें सिर्फ यही जुमला पकड़ा सकती हैं कि यदि उन्हें रोटी नहीं मिलती तो ब्रेड क्यों नहीं खाते?
इक्कीसवीं शताब्दी भारत के लिए भविष्य रहित और स्वप्नहीनता की शताब्दी है। आज ऐसा कोई सपना हमारे युवावर्ग के पास नहीं है जिसके लिए वह लड़ सके। सिर्फ छोटे-छोटे संस्थानों में नौकरियां पाने, विदेश यात्राएं करने या झटके से धन कमा लेने के सपने ही उनका भविष्य बनाते हैं। यह एक ऐसा मानसिक दबाव है जिसके कारण लोग ज्योतिषियों, नजूमियों, मौलवियों, भगवानों और अपराधी सरगनाओं की शरण में जा रहे हैं। आज का अखबार खेलिए! उसमें बैंक और दूसरों को लूटने की कम से कम दस घटनाएं आपके सामन होंगी। यहां आजकल दस-बीस लाख रुपये एक झटके में या एकआध हत्या करके लूट लिए जाते हैं।
रोजमर्रा की जरूरत के सामान के दाम मध्यवर्ग की पहुंच से बाहर हो गए हैं। सौ रुपये की एक किलो दाल और पचास रुपए का आटा खरीदकर कोई कितने दिन तक अपना घर चला सकता है। इन स्थितियों में लूटमार नहीं होगा तो क्या होगा। सरकारी आंकड़े और आष्वासन बाजीगरों के चमत्कार जैसे लगते हैं। अगर उदाहरण ही देना हो तो मैं ‘स्लमडाग मिलेनियर’ फिल्म का नाम देना चाहूंगा, जिसमें झोपड़पट्टी के अनगिनत भूखे-नंगे, दौड़ते-भागते बच्चों के साथ करोड़पति बनाने का खेल खेला गया है और झूठे-सच्चे जवाबों पर करोड़ों रुपये का इनाम दे दिया गया है। यह अपराध और सपने- दोनों को बेचने की कवायद है। यही हमारे आज के युवावर्ग का वर्तमान है।
साहित्य में भी आप देखेंगे कि भविष्य के सपने लगभग गायब हो गए हैं। कहानियां और उपन्यास सिर्फ तात्कालिक जातिवादी संघर्षों, जिंदगी से जूझते, घुटते हुए लोगों की तस्वीरों से भरी है। मुझे यह सारा परिदृष्य एक खौलते हुए तालाब की याद दिलाता है। हमेषा लगता है कि जैसे अभी कोई विस्फोट होगा और सारी चीजें बदल जाएंगी, मगर होगा कुछ भी नहीं। हम इसी तरह सरकार और माफियाओं के सत्ताचारों के बीच पिसते रहेंगे।
बहरहाल, कहा तो जाता है कि जो समाज के लिए सबसे बडे़ संकट के दिन होते हैं वह साहित्य के लिए सबसे उर्वर सामग्री पेश करते हैं। जब सारा समाज स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था तब एक से एक जबरदस्त रचनाएं सामने आई थीं। आज जब सबके सब जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं तब निश्चय ही ऐसा कुछ सामने आएगा जो इन सबको भविष्य के लिए एक दस्तावेजी चित्रावली नई पीढ़ी के हाथ में सौंपेगा। हो सकता है मेरा यह सोचना एक झूठी आशा हो, मगर इनमें कम से कम एक आशा तो है।
(२६ दिसंबर, 2009, दैनिक भास्कर, नई दिल्ली अंक में प्रकाशित)
वामपंथ ने ही नक्सलवाद जैसी दुर्दांत समस्या देश के सामने खड़ा किया है, इस वामपंथ से आपको जन्मजात प्रेम है. दक्षिणपंथ से आपको घृणा है. लेख से पूर्व अर्धांश से मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूं.
जवाब देंहटाएंmain apki baat se sehmat hun
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