जब सरकार हाथ खड़े कर दे!
इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि वैश्विक आर्थिक मंदी के दौर में एक बड़ी आर्थिक ताकत के रूप में उभर रहे मुल्क की सरकार एक बेहद नाज़ुक, मानवीय और लोककल्याणकारी मसले पर भरी अदालत के सामने अपनी हाथ खड़ी कर दे। अभी हाल ही में केन्द्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट के सामने राजधानी दिल्ली में मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों की देखभाल करने में अपनी असमर्थता जाहिर की। सरकार के नुमाइंदे ने अदालत में कहा कि सरकार ने मनोरोगियों की भलाई के लिए नीति ज़रूर बनाई है लेकिन वह उनकी देखभाल नहीं कर सकती, जबकि कोर्ट चाहता था कि सरकार राजधानी की सड़कों और गलियों में भटकते और बेइन्तहा जुर्मों के शिकार बनते ऐसे मनोरोगी पुरषों और महिलाओं के अभिभावक के रूप में काम करे।
मालूम हो कि दिल्ली की गलियों में मानसिक रूप से विक्षिप्त हालत में भटकती पूर्व मॉडल गीतांजलि की पीड़ा को मीडिया द्वारा उजागर करने के बाद कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए इस राष्ट्रीय समस्या के बारे में सरकार से जवाब तलब किया था. चीफ जस्टिस एपी शाह तथा एस मुरलीधर की बेंच द्वारा गठित समिति ने बताया कि राष्ट्रीय राजधानी में मानसिक रूप से विक्षिप्त करीब तेरह सौ गरीब महिलाएं हैं।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब दिल्ली सरकार ने राजधानी के करीब दस हज़ार भिखारियों को दिल्ली छोड़कर अपने-अपने राज्य चले जाने का तुगलकी फरमान सुनाया है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जनतांत्रिक तरीके से चुनकर आई सरकारों की ये हरकतें वाकई अचंभित करने वाली हैं।
मालूम हो, जून२००२ में भी देश में मनोरोगियों की अफसोसनाक हालात से परेशान सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को निर्देश दिया था कि वह हर राज्य में मानसिक उपचार केन्द्र स्थापित करे। अपना यह महत्वपूर्ण निर्णय सुनाते हुए न्यायालय की तीन सदस्य खंडपीठ ने उस वक्त मुल्क के सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को भी यह निर्देश दिया था कि वे अपने-अपने राज्य में राज्य में मानसिक रोगियों के लिए उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं पर अपनी रिपोर्ट डेढ़ महीने के अन्दर केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव को सौंपें।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि वह न्यायिक सक्रियता का दौर था. उस वक्त सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश की काफी तारीफ़ हुई थी, सिर्फ इसलिए नईं कि उनके इस निर्देश में दया और करुना के पात्र समाज के हाशिए पर के सबसे नीचे के इंसानी समूह (मानसिक रोगियों) की सुध ली गई थी बल्कि उसके निर्देश का एक ऐतिहासिक और संवैधानिक महत्व था कि राज्य सरकार यदि नागरिक सेवाओं के मामले में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में विफल रहे तो केंद्र की यह ज़िम्मेदारी है कि वह राज्य का मामला कहकर उसे छोड़ न दे बल्कि आगे बढ़कर नागरिक सेवाओं में हाथ बंटाए।
मालूम हो कि सन २००१ में अगस्त महीने में तमिलनाडु में इरावदी दरगाह के करीब बातूशा मनोआश्रम में आग लगने की वजह से जंजीर से बंधकर रखे करीब पच्चीस मनोरोगियों की दर्दनाक मौत के बाद मुल्क के सरकारी और मानसिक अस्पतालों, आश्रमों, उपचार केन्द्रों तथा इलाज से महरूम सड़कों पर भटक रहे मनोरोगियों की दुर्दशा और उनके समुचित इलाज को लेकर मीडिया और स्वयं सेवी संगठनों द्वारा व्यापक स्टार पर बहस और मुहिम चलाई गई थी।
दरसल न्यायपालिका वक्त-वक्त पर मनोरोगियों की सुध लेती है और व्यापक जनहित को मद्देनज़र रखते हुए सरकार को उनके इलाज और उनकी देखभाल करने के लिए निर्देश देती है। लेकिन अफ़सोस कि नायालय की दखल के बाद भी कुछ दिनों के बाद मामला फिर वही ढाक के तीन पात बनकर रह जाता है। यानी सरकारें खुल्लमखुल्ला न्यायपालिका के आदेशों-निर्देशों की अवमानना करती रहती हैं।
मुल्क में मोरोगियों की बद से बदतर हालात का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि तमिलनाडु में घटी भयावह घटना के दौरान मुल्क के करीब तीन हज़ार बिस्तरों की क्षमता वाले कुल सैंतीस मनोअस्पतालों में लगभग पंद्रह हज़ार मनरोगी भर्ती थे। आज आठ साल बाद हालात उससे बदतर हैं। मानसिक अस्पताल की चौखट तक न पहुँच पाने वाले हज़ारों मानसिक रोगियों का मामला इसके बाहर है।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सरकारी और निजी अस्पतालों में केंद्रीय मनोस्वास्थ्य अथारटी (सी.एम.एच.आर.) के दिशानिर्देशों का न तो पालन होता है और न केंद्र सरकार की तरफ से इन पर निगरानी करने की कोई व्यवस्था ही की गई है. केंद्र सरकार दिशानिर्देश भेजकर जहां अपनी ड्यूटी पूरी कर लेती है वहीं इन पर अमल करने की पूरी ज़िम्मेदारी राज्य सरकार पर डाल देती है। सरकारों की इस बेरुखी का खामियाजा बेचारे मनोरोगियों को भुगतना पड़ता है। मानसिक अस्पतालों, मनोआश्रमों, एवं उपचार केन्द्रों में उनके साथ गैर इंसानी सलूक किए जाते हैं। वहाँ कभी उनके हाथ-पैर बांधकर रखा जाता है तो कभी हथकड़ी लगाई जाती है।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में की सरकार और उनके विभागीय मुलाजिमों से कोई पूछे कि सत्ता के केंद्र राजधानी में फ्लायओवेरों के नीचे, रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों के बाहर, मेट्रो के खम्भों के नीचे, सब वे में, सड़क किनारे की झाड़ियों में, टूटी-फूटी, सुनसान इमारतों के किसी कोने में या गली-मोहल्लों में अक्सर नंग-धड़ंग हालत में भटकते मनोरोगियों को अस्पताल पहुंचाने और इनके इलाज और देखभाल करने की ज़िम्मेदारी आखिर किसकी है? एक सभ्य समाज का इससे बड़ा गुनाह और क्या होगा?
जिस समाज में गरीब बच्चों, लाचार बुजुर्गों, फटेहाल पागलों, भिखारियों और ऐसे ही समाज के हाशिये पर के लोगों के दुःख-दर्द को सुनने वाला जब कोई न हो तो वह समाज कैसे दुनिया का एक विकसित समाज और विकसित मुल्क बनने का ख़्वाब देख सकता है? 'विकसित मुल्क' चाँद पर रखा कोई तमगा नहीं जिसे चंद्रयान पर उड़कर ले आया जाए जब तक बुनियादी इंसानी ज़रूरतें समाज के कमज़ोर से कमज़ोर तबके तक नहीं पहुंचेंगी और उनके चेहरे पर मुस्कराहट नहीं आएगी तब तक ऐसा कोई ख़्वाब देखना बेकार है।
मालूम हो कि दिल्ली की गलियों में मानसिक रूप से विक्षिप्त हालत में भटकती पूर्व मॉडल गीतांजलि की पीड़ा को मीडिया द्वारा उजागर करने के बाद कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए इस राष्ट्रीय समस्या के बारे में सरकार से जवाब तलब किया था. चीफ जस्टिस एपी शाह तथा एस मुरलीधर की बेंच द्वारा गठित समिति ने बताया कि राष्ट्रीय राजधानी में मानसिक रूप से विक्षिप्त करीब तेरह सौ गरीब महिलाएं हैं।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब दिल्ली सरकार ने राजधानी के करीब दस हज़ार भिखारियों को दिल्ली छोड़कर अपने-अपने राज्य चले जाने का तुगलकी फरमान सुनाया है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जनतांत्रिक तरीके से चुनकर आई सरकारों की ये हरकतें वाकई अचंभित करने वाली हैं।
मालूम हो, जून२००२ में भी देश में मनोरोगियों की अफसोसनाक हालात से परेशान सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को निर्देश दिया था कि वह हर राज्य में मानसिक उपचार केन्द्र स्थापित करे। अपना यह महत्वपूर्ण निर्णय सुनाते हुए न्यायालय की तीन सदस्य खंडपीठ ने उस वक्त मुल्क के सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को भी यह निर्देश दिया था कि वे अपने-अपने राज्य में राज्य में मानसिक रोगियों के लिए उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं पर अपनी रिपोर्ट डेढ़ महीने के अन्दर केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव को सौंपें।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि वह न्यायिक सक्रियता का दौर था. उस वक्त सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश की काफी तारीफ़ हुई थी, सिर्फ इसलिए नईं कि उनके इस निर्देश में दया और करुना के पात्र समाज के हाशिए पर के सबसे नीचे के इंसानी समूह (मानसिक रोगियों) की सुध ली गई थी बल्कि उसके निर्देश का एक ऐतिहासिक और संवैधानिक महत्व था कि राज्य सरकार यदि नागरिक सेवाओं के मामले में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में विफल रहे तो केंद्र की यह ज़िम्मेदारी है कि वह राज्य का मामला कहकर उसे छोड़ न दे बल्कि आगे बढ़कर नागरिक सेवाओं में हाथ बंटाए।
मालूम हो कि सन २००१ में अगस्त महीने में तमिलनाडु में इरावदी दरगाह के करीब बातूशा मनोआश्रम में आग लगने की वजह से जंजीर से बंधकर रखे करीब पच्चीस मनोरोगियों की दर्दनाक मौत के बाद मुल्क के सरकारी और मानसिक अस्पतालों, आश्रमों, उपचार केन्द्रों तथा इलाज से महरूम सड़कों पर भटक रहे मनोरोगियों की दुर्दशा और उनके समुचित इलाज को लेकर मीडिया और स्वयं सेवी संगठनों द्वारा व्यापक स्टार पर बहस और मुहिम चलाई गई थी।
दरसल न्यायपालिका वक्त-वक्त पर मनोरोगियों की सुध लेती है और व्यापक जनहित को मद्देनज़र रखते हुए सरकार को उनके इलाज और उनकी देखभाल करने के लिए निर्देश देती है। लेकिन अफ़सोस कि नायालय की दखल के बाद भी कुछ दिनों के बाद मामला फिर वही ढाक के तीन पात बनकर रह जाता है। यानी सरकारें खुल्लमखुल्ला न्यायपालिका के आदेशों-निर्देशों की अवमानना करती रहती हैं।
मुल्क में मोरोगियों की बद से बदतर हालात का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि तमिलनाडु में घटी भयावह घटना के दौरान मुल्क के करीब तीन हज़ार बिस्तरों की क्षमता वाले कुल सैंतीस मनोअस्पतालों में लगभग पंद्रह हज़ार मनरोगी भर्ती थे। आज आठ साल बाद हालात उससे बदतर हैं। मानसिक अस्पताल की चौखट तक न पहुँच पाने वाले हज़ारों मानसिक रोगियों का मामला इसके बाहर है।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सरकारी और निजी अस्पतालों में केंद्रीय मनोस्वास्थ्य अथारटी (सी.एम.एच.आर.) के दिशानिर्देशों का न तो पालन होता है और न केंद्र सरकार की तरफ से इन पर निगरानी करने की कोई व्यवस्था ही की गई है. केंद्र सरकार दिशानिर्देश भेजकर जहां अपनी ड्यूटी पूरी कर लेती है वहीं इन पर अमल करने की पूरी ज़िम्मेदारी राज्य सरकार पर डाल देती है। सरकारों की इस बेरुखी का खामियाजा बेचारे मनोरोगियों को भुगतना पड़ता है। मानसिक अस्पतालों, मनोआश्रमों, एवं उपचार केन्द्रों में उनके साथ गैर इंसानी सलूक किए जाते हैं। वहाँ कभी उनके हाथ-पैर बांधकर रखा जाता है तो कभी हथकड़ी लगाई जाती है।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में की सरकार और उनके विभागीय मुलाजिमों से कोई पूछे कि सत्ता के केंद्र राजधानी में फ्लायओवेरों के नीचे, रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों के बाहर, मेट्रो के खम्भों के नीचे, सब वे में, सड़क किनारे की झाड़ियों में, टूटी-फूटी, सुनसान इमारतों के किसी कोने में या गली-मोहल्लों में अक्सर नंग-धड़ंग हालत में भटकते मनोरोगियों को अस्पताल पहुंचाने और इनके इलाज और देखभाल करने की ज़िम्मेदारी आखिर किसकी है? एक सभ्य समाज का इससे बड़ा गुनाह और क्या होगा?
जिस समाज में गरीब बच्चों, लाचार बुजुर्गों, फटेहाल पागलों, भिखारियों और ऐसे ही समाज के हाशिये पर के लोगों के दुःख-दर्द को सुनने वाला जब कोई न हो तो वह समाज कैसे दुनिया का एक विकसित समाज और विकसित मुल्क बनने का ख़्वाब देख सकता है? 'विकसित मुल्क' चाँद पर रखा कोई तमगा नहीं जिसे चंद्रयान पर उड़कर ले आया जाए जब तक बुनियादी इंसानी ज़रूरतें समाज के कमज़ोर से कमज़ोर तबके तक नहीं पहुंचेंगी और उनके चेहरे पर मुस्कराहट नहीं आएगी तब तक ऐसा कोई ख़्वाब देखना बेकार है।
(अप्रकाशित)
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