साहित्य से खत्म होते गाँव और किसान

मित्रो,

लेखक अपने समय और समाज का अगुआ होता है!

जब ग्लोबलाइजेशनी विकास से लबरेज राजधानी  बारिश से पानी-पानी हो रही हो
और मुल्क़ के सबसे पिछड़े राज्य (बिहार)
की करोड़ों जनता पर
अकाल का पहाड़ टूट पड़ा हो ,

जब हिन्दुस्तान के सिरमौर कश्मीर का एक हिस्सा लेह
और पड़ोसी मुल्क़ में आई प्राकृतिक आपदा से
जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो,

जब डेढ़ सौ करोड़ से शुरू हुआ कॉमनवेल्थ गेम्स का बजट
1 लाख करोड़ पहुँच गया हो
और उसमें भ्रष्टाचार के मामले-दर-मामले सामने आ रहे हों,

जब 1 सौ करोड़ से ज्यादा मुल्क़वासियों का पेट भरनेवाला किसान
खेती छोड़ने को बाध्य हो रहा हो,
फटेहाल हो
और आत्महत्या कर रहा हो
और उस मसले पर बनी 1 फिल्म (पीपली लाइव) पर बहस हो रही हो.

वैसे दौर में एम्पावर्ड लेखकों की दो जमातें
अपने अपने वर्चस्व जमाने की ख़ातिर
पावर डिस्कोर्स कर रही हों- 
इस पर हमें शर्मिंदा होना चाहिए.
इतिहास यह सवाल हम सबसे पूछेगा बेशक!

खैर,
'पीपली लाइव' फिल्म से मुल्क के किसानों
और गाँवों की बदहाली की शुरू हुई बहस को
साहित्य और पत्रकारिता (प्रिंट मीडिया) की बहस
बनाने का आगाज़ करते हुए मैंने
अपने बड़े भाई और मित्र विमल झा से
'दैनिक भास्कर' में यह लेख प्रकाशित करने का अनुरोध किया.
21 अगस्त के 'दैनिक भास्कर' के ऑप-एड पेज पर छपे इस लेख को आप भी पढ़ सकते हैं.
शुक्रिया. 
शशिकांत
साहित्य से खत्म होते गाँव और किसान 

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि ग्रामीण जन-जीवन और किसानों की समस्या पर आजकल हमारे साहित्यकारों और पत्रकारों का कम ही ध्यान जाता है. बड़ी तेजी से हो रहे शहरीकरण के बावजूद भारत की  अधिकाँश जनता अभी भी गाँवों में रह रही है और खेती-बाड़ी एवं पशुपालन ही उनकी रोज़ी-रोटी का मुख्य जरिया है.

हमारे देश में वातावरण, मौसम, जमीन, अनाज, खेती-बाड़ी के तौर-तरीके आदि में इतनी विविधता (जो हमारी कृषि संस्कृति का निर्माण करते हैं) है कि यदि हम यहाँ कृषि को उद्योग बनाना चाहें तो हमारा देश संसार के सर्वोत्तम देशों में एक होगा. बहुत प्रयासों के बाद और तमाम गुण-दोषों के बावजूद हमने खाद्यान्न के मामले में स्वावलंबन पा लिया था लेकिन गलत सरकारी नीतियों के कारण देश में फिर से खाद्यान्न संकट और महंगाई पैदा हो रही है.

इसका मूल कारण यह है कि हमारे देश में विकास और बढ़ोतरी के अंतर को ठीक से समझा नहीं जा रहा है. बढ़ोतरी को विकास नहीं कहा जा सकता. देश में जीडीपी के ग्रोथ और अरबपतियों के बढ़ने का मतलब यह नहीं कि यहाँ विकास हो रहा है बल्कि इन सब के कारण गरीब और अमीर के बीच खाई बढ़ रह रही है. बढ़ोतरी का जब जनता के बीच ठीक से वितरण होता है तब वह विकास कहलाता है.

पी. वी. नरसिंह राव के समय से जब से मनमोहन सिंह ने इस देश का वित्त संभाला है तब से समाजवादी सपनों को सरकारी नीतियों के माध्यम से एक-एक कर तोड़ा जा रहा है. हमारे यहाँ आजादी के बाद से देखे जा रहे इस समाजवादी सपने को गढ़ने में गाँधी, नेहरू, लोहिया, जयप्रकाश, मौलाना आजाद, आम्बेडकर, डांगे, नम्बूदरीपाद जैसे नेताओं ने गढ़ा था, और तमाम तरह के आपसे मतभेदों के बावजूद ये सभी समाजवादी थे.

इस लिहाज से देखें तो आज हमारे देश में देश की जमीन और देश की जनता से सरोकार रखने वाला नेता नाम का कोई व्यक्ति नहीं है. बड़े ही सुनियोजित षड़यंत्र  रच कर और चालाकी से समाजवादी नीतियों के तहत दिए गए अधिकार और सुविधाएं देश की जनता से एक-एक कर चीने जा रहे हैं. गाँव और खेती की जमीन का जबरन अधिग्रहण कर शहर और राजमार्ग बनाए जा रहे हैं और कारपोरेट घरानों को दिया जा रहा है. सबको गाँव और खेती छोड़कर शहर आने के लिए बाध्य किया जा रहा है.

आज कोई आदर्श, बलिदान, त्याग जैसे मानवीय मूल्यों की बात ही नहीं करता. ख़ूब पैसे कमाओ और ऐश-मौज करो - यही हमारा आख़िरी उद्देश्य रह गया है. इसने हमारी चेतना और हमारी राजनीति को बिगाड़ कर रख दिया है. धूमिल ने कहा था कि ये लोग हमारी भाषा बिगाड़ रहे हैं. और जब कोई हमारी भाषा बिगाड़ता है तो वह हमारा मन भी बिगाड़ देता है.

गाँव की तरफ  बिल्कुल ध्यान न देने का मतलब है किसानों पर ध्यान न देना. नंदीग्राम, सिंगूर से लेकर मथुरा-अलीगढ, हर जगह किसानों से खेती कि जमीन छीनी जा रही है. देश के हर जगह पर छोटा-छोटा कस्बा भी शहर बनने का स्वप्न देख रहा है. महानगरों के आसपास के किसानों की जमीनें ली जा रही हैं. फिर जमीन जाने के बाद वे आत्महत्या कर रहे हैं.

 इतना ही नहीं बीज और नई-नई कृषि टेक्नोलॉजी भी आयात किए जा रहे हैं. सरकार को न किसान से मतलब है, न पर्याप्त अनाज उत्पादन की, न गोदामों में अनाज सड़ने की, और न महंगाई बढ़ने की चिंता है. शहरो में फलों और सब्जियों कि इतना प्रदूषित कर दिया गया है कि वे खाने लायक नहीं रह गई हैं.

सरकार में विषमता बढाने का उन्माद है. जनता के खाने-पीने कि उसे कोई चिंता नहीं है. इस देश के नेताओं की नैतिकता का हाल यह है कि संसद में कहा जाता है कि विकास होगा तो थोड़ा-बहुत भ्रष्टाचार तो होगा ही.

अब गाँव और खेती-बाड़ी जब सुनियोजित ढंग से ख़त्म किये जा रहे हैं तो लोग रोज़ी-रोटी की खोज में शहर और महानगर आ रहे हैं. अन्य पढ़े-लिखे लोगों की तरह हिन्दी के साहित्यकारों का एक तबका भी दिल्ली की ओर देख रहा है. दिल्ली के अलावा भोपाल, मुंबई आदि महानगर आजकल साहित्य के केंद्र हैं. 

इस समय हिंदी साहित्य नया ट्रेंड यह आया है कि ऐसा साहित्य लिखा जाए  जो ग्लोबल हो यानी जो अंग्रेजी में अनूदित हो, जो अमेरिका और यूरोप में रहनेवाले लोगों को पसंद आए. इस समय अचानक विदेश में हिंदी के पुरस्कारों कि बाढ़ आ गई है.

हमारे गाँव, हमारी जड़, हमारी बोलियाँ-भाषाएँ, हमारे आदिवासी, खानाबदोस जनजातियों के विविधतापूर्ण जनजीवन और उनकी जीवन स्थितियों को लेकर कितना नया और उत्कृष्ट साहित्य लिखा जा सकता है. लेकिन उनकी उपेक्षा की जा रही है. दरअसल पूंजीवादी गिरफ़्त में आ गए हैं हमारे लेखक. सबकुछ चाहिए उन्हें. यश भी. सिर्फ पैसा और पोलिटिकल पोस्ट ही पावर नहीं होता, यश भी पावर होता है.

स्वाधीनता आन्दोलन के समय गांधी कहते थे कि हमारा भगवान गाँवों में रहता है. प्रेमचंद का लगभग पूरा साहित्य गाँव और किसानी जन-जीवन को आधार बनाकर लिखा गया है. आजादी के बाद फनीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों और कहानियों में किसानी और ग्रामीण संस्कृति को व्यापक अभिव्यक्ति मिली. ग्राम-कथाओं और ग्राम-कविताओं का भी दौर आया. 

हिंदी की उन रचनाओं में गाँव और किसानी जन-जीवन के साथ-साथ ऋतुओं, फसलों, नदियों, इनसे जुड़े गीतों, पर्व-त्योहारों आदि का भी वर्णन मिलता था लेकिन हमारे हिंदी साहित्य से ये सब धीरे-धीरे ग़ायब हो रहे हैं. चूंकि हमारे लेखक जमीन से कटते जा रहे हैं इसलिए किसानों और गानों के समस्या अब उनके लिए ख़ास मायने नहीं रखतीं.

दलित और स्त्री लेखन को मैं आजादी के बाद हिंदी साहित्य की दो बड़ी उपलब्धि मानता हूँ लेकिन ताज्जुब है कि उनके लेखन में भी गाँव, ग्रामीण और किसानी संस्कृति आदि नहीं के बराबर आ रहे हैं. दलित साहित्य में स्त्री विचित्र रूप में आ रही है. असल में दलित और गरीब स्त्रियाँ अभी लिख नहीं रही हैं. आलो आंधारि अपवाद हैं, आज जो लिख रही हैं वे अच्छी-अच्छे साड़ियाँ पहनने वाली औरतें हैं. जब दलित और गरीब औरतें लिखने लगेगी तब वे ये सब भी दर्ज करेंगी, ऐसी मुझे उम्मीद है.

अभी हाल में मैंने पंजाबी के लेखक रामस्वरूप अणखी का उपन्यास 'सल्फास' पढ़ा है. पिछले दिनों उनकी मौत हो गई. 'समकालीन भारतीय साहित्य' में अरुण प्रकाश ने तेलगु के वरिष्ट लेखक केशव रेड्डी का 'भू देवता' उपन्यास भी छापा था. उसे भी मैंने पढ़ा है. हिन्दी में प्रेमचंद किसानों की जमीन चले जाने की वेदना को गहराई से समझते थे. प्रेमचंद का होरी जमीन बेच कर जब बेटी की शादी करता है है तो बेटी और जमीन दोनों एक हो जाता है.

उन्हीं के 'रंगभूमि' उपन्यास का सूरदास जमीन के लिए काफ़ी संघर्ष करता है. सूरदास दलित है, किसान है और विकलांग है. इस लिहाज से देखें तो आज के दलित चित्रण और प्रेमचंद के दलित चित्रण में कितना फर्क है. 'रंगभूमि' के सूरदास का संघर्ष बहुत बड़ा सांस्कृतिक सन्देश है.

यह बहुत चिंता की बात है कि आज हमारे कथा साहित्य, कविता और ख़ास तौर पर नाटकों से किसानी जन-जीवन पूरी तरह से ख़त्म होता जा रहा है हमारे नाटककारों ने लोरिकायन, चनैनी, नाचा,-ये सब छोड़ दिया है. गाँव की कहानी जब जाएगी तो गाँव भी चला जाएगा. जो जमीनी समस्या है यदि हमारे लेखक उस पर ध्यान देंगे तो किसानों की समस्या, उसका हर्ष-विषाद, वहां के चरित्र सबकुछ आ जाएंगे.

इस देश का विकास सिर्फ आर्थिक विकास नहीं बल्कि सांस्कृतिक विकास भी होना चाहिए, वह तभी संभव है जब यहाँ की किसानी संस्कृति का विकास होगा. यह समझ हमारे वर्तमान और भविष्य के भारत के लिए जितना पथ निर्देशक बना रहे उतना अच्छा है.

(विश्वनाथ त्रिपाठी से शशिकांत की बातचीत पर आधारित, 21 अगस्त, 2010 के दैनिक भास्कर, नई दिल्ली में प्रकाशित )

टिप्पणियाँ

  1. इस देश का विकास सिर्फ आर्थिक विकास नहीं बल्कि सांस्कृतिक विकास भी होना चाहिए, वह तभी संभव है जब यहाँ की किसानी संस्कृति का विकास होगा. यह समझ हमारे वर्तमान और भविष्य के भारत के लिए जितना पथ निर्देशक बना रहे उतना अच्छा है.
    सहमत !!

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