टोटली पावर डिस्कोर्स है 'छिनाल' प्रसंग
साथियो,
हिन्दी समाज में छिनाल प्रसंग पर छिड़े गृह-युद्ध में आख़िरकार अभय तिवारी, रविकान्त और अविनाश दास (बरास्ते दीवान) भी शामिल हो ही गये, लेकिन एक अलग दृष्टिकोण के साथ.
इस मसले पर इसी दृष्टिकोण से बहस की दरकार थी और है.
आप तीनों की राय जान कर तो ऐसा लग रहा है कि 'छिनाल' शब्द पर बवाल मचा रही देहवादी लेखिकाएँ अपने पैरों पर ही टांगी चला रही हैं.
'छिनाल' शब्द को स्त्री के लिए अपमान मानना स्त्री को पवित्र, पतिव्रता, देवी आदि बनाए रखना ही है, इंसान के तौर पर स्वीकार करना नहीं. यह पुरुषवादी मानसिकता है.
इस लिहाज से दोनों पक्ष एक ही रास्ते के मुसाफिर हैं, इस बहस में.
फिर क्या हस्र होगा हिंदी में स्त्री लेखन का? कैसे मिलेगी हिन्दुस्तान की 50 करोड़ स्त्रियों को पुरुष सत्ता से मुक्ति?
मेरा मानना है कि हमारे समाज के हाशिए के जो भी वर्ग, समूह या तबके पिछले सालों में एम्पावर्ड हुए हैं वे कुछ ज़्यादा ही ख़ुदग़र्ज़ और गैर ज़िम्मेदार हैं, और धन व ताक़त का भौंडा प्रदर्शन व दुरुपयोग कर रहे हैं.
जिस सामाजिक-आर्थिक ढाँचे की जलालत को झेल कर ये यहाँ पहुँचे हैं, खुद भी वैसा ही सलूक कर रहे हैं, 'दूसरों' ही नहीं 'अपनों' के साथ भी. (मध्य वर्ग, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श में ख़ासतौर पर यह देखा जा रहा है.)
कम से कम अब इन्हें उछल-कूद मचाना छोड़ कर गंभीर हो जाना चाहिए. बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है इनके कंधे पर.
वैसे, 'छिनाल' प्रसंग में दोनों पक्षों को स्त्री के अपमान या सम्मान से कोई लेना-देना नहीं, यह टोटली पावर डिस्कोर्स है.
हिन्दी के ताकतवर लेखकों, प्रोफेसरों, लेखक संगठनों, प्रकाशनों वग़ैरह की सत्ता की लड़ाई है यह, जो तय करते हैं कि कौन-कौन लोग किस-किस वि.वि., साहित्यिक संस्था, आकदेमी में कैसे घुसाए जाएँगे या निकाले जाएँगे और कौन-कौन से पुरूस्कार किसे-किसे दिलवाए जाएँगे.
शायद फिराक़ साहब ने इन्हीं के लिए लिखा था :
माफ़ कीजिएगा मुल्क की मुख्यधारा की राजनीति से भी भयानक हो गई है हिन्दी की राजनीति!
हिन्दी समाज में छिनाल प्रसंग पर छिड़े गृह-युद्ध में आख़िरकार अभय तिवारी, रविकान्त और अविनाश दास (बरास्ते दीवान) भी शामिल हो ही गये, लेकिन एक अलग दृष्टिकोण के साथ.
इस मसले पर इसी दृष्टिकोण से बहस की दरकार थी और है.
आप तीनों की राय जान कर तो ऐसा लग रहा है कि 'छिनाल' शब्द पर बवाल मचा रही देहवादी लेखिकाएँ अपने पैरों पर ही टांगी चला रही हैं.
'छिनाल' शब्द को स्त्री के लिए अपमान मानना स्त्री को पवित्र, पतिव्रता, देवी आदि बनाए रखना ही है, इंसान के तौर पर स्वीकार करना नहीं. यह पुरुषवादी मानसिकता है.
इस लिहाज से दोनों पक्ष एक ही रास्ते के मुसाफिर हैं, इस बहस में.
फिर क्या हस्र होगा हिंदी में स्त्री लेखन का? कैसे मिलेगी हिन्दुस्तान की 50 करोड़ स्त्रियों को पुरुष सत्ता से मुक्ति?
मेरा मानना है कि हमारे समाज के हाशिए के जो भी वर्ग, समूह या तबके पिछले सालों में एम्पावर्ड हुए हैं वे कुछ ज़्यादा ही ख़ुदग़र्ज़ और गैर ज़िम्मेदार हैं, और धन व ताक़त का भौंडा प्रदर्शन व दुरुपयोग कर रहे हैं.
जिस सामाजिक-आर्थिक ढाँचे की जलालत को झेल कर ये यहाँ पहुँचे हैं, खुद भी वैसा ही सलूक कर रहे हैं, 'दूसरों' ही नहीं 'अपनों' के साथ भी. (मध्य वर्ग, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श में ख़ासतौर पर यह देखा जा रहा है.)
कम से कम अब इन्हें उछल-कूद मचाना छोड़ कर गंभीर हो जाना चाहिए. बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है इनके कंधे पर.
वैसे, 'छिनाल' प्रसंग में दोनों पक्षों को स्त्री के अपमान या सम्मान से कोई लेना-देना नहीं, यह टोटली पावर डिस्कोर्स है.
हिन्दी के ताकतवर लेखकों, प्रोफेसरों, लेखक संगठनों, प्रकाशनों वग़ैरह की सत्ता की लड़ाई है यह, जो तय करते हैं कि कौन-कौन लोग किस-किस वि.वि., साहित्यिक संस्था, आकदेमी में कैसे घुसाए जाएँगे या निकाले जाएँगे और कौन-कौन से पुरूस्कार किसे-किसे दिलवाए जाएँगे.
शायद फिराक़ साहब ने इन्हीं के लिए लिखा था :
"जो कामयाब हैं दुनिया में उनकी क्या कहिये
है इससे बढ़ कर भले आदमी कि क्या तौहीन"
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