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साहित्य की स्वायत्तता पर पहरेदारी / राजेंद्र यादव

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आज हमें इस बात का बेहद अफसोस है कि हमारे यहां साहित्य और संस्कृति की कोई भी संस्था स्वायत नहीं है। वह या तो सरकारी लोगों से संचालित होती है या वहां पर कोई न कोई ऐसा तथाकथित साहित्यकार बैठा दिया जाता है जिसका एकमात्र उद्देश्य सत्ता का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन करना होता है। मैं खुद दो साल प्रसार भारती बोर्ड का मेंबर था। हमें आष्वासन दिया गया था कि प्रसार भारती को, जिसके अंतर्गत आकाशवाणी और दूरदर्शन- दोनों आते हैं, को स्वायत्तता दी जाएगी लेकिन वे कभी स्वायत नहीं हुए। सीईओ के नाम पर वहां हमेशा ऐसा सेक्रेटरी बैठा दिया जाता रहा था, जो एक तरफ मानव संसाधन मंत्रालय में सेक्रेटरी या ज्वाइंट सेक्रेटरी होता था और दूसरी तरफ प्रसार भारती का सीईओ यानी मुख्य कार्यकारी अधिकारी। मेरी और रोमिला थापर की हमेशा यही आवाज होती थी कि हमें अपने निर्णय स्वतंत्र रूप से लेने चाहिए और हमारे पास फाइनेंस या गलत कदम उठानेवालों के खिलाफ कार्रवाई करने की शक्ति भी होनी चाहिए। इसके बिना स्वायतता का कोई मतलब ही नहीं था। जब सारा पैसा सरकार देगी तो किसकी नियुक्ति कहां करनी है, यह सरकारी प्रतिनिधि ही तय करेगा। ऐसी स्वायत्तत

सबसे बड़ी समस्या असमानता है / नवारुण भट्टाचार्य

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आजकल मैं इस बात को लेकर बहुत परेशान हूँ कि आज हमारे पार्लियामेंट में पांच सौ पैंतालीस सांसदों में करीब तीन सौ करोड़पति हैं। हमारे देश की राजनीति में यह एक खतरनाक ट्रेंड है। ये जनता के बारे में क्या सोचेंगे? आम आदमी की आवाज सुननेवाला अब कहां है। मैं समझता हूं कि भारत की सबसे बड़ी समस्या असमानता है। दिन ब दिन यह असमानता बढ़ती जा रही है। देश के विभिन्न हिस्सों में बढ़ती हिंसा की वजह भी यही है। लालगढ़ में क्या हुआ? आजादी के इतने साल बाद भी वहां विकास नहीं हुआ। न शिक्षा, न स्वास्थ्य। सरकार को इसके बारे में सोचना होगा। सिर्फ पुलिस या सेना भेजकर वह हालात पर काबू नहीं पा सकती। बल्कि इससे जनता में और प्रतिरोध बढ़ेगा। सरकार जनता को कसूरवार ठहराना बंद करे। पष्चिम बंगाल में सीपीएम की आज जो दशा हुई है वह उसकी एंटी पीपुल नीतियों की वजह से ही हुई है। उसने इंडस्ट्रीयलाइजेशन को जबरन जनता पर थोपा है। आगे तो सीपीएम को और भी सेटबैक लगनेवाला है, यदि कोई मिरैक्कल ;चमत्कारद्ध नहीं हुआ तो। नक्सलवाद की समस्या को ही देखिये! यह सच है कि नक्सलियों में बहुत से ग्रुप हैं। सभी ग्रुप माआवादी नहीं हैं। मेरा खयाल है कि सर

बोलियों के साहित्य का सरोकार / मुरली मनोहर प्रसाद सिंह

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आज अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी पर निर्भर देश के अंदर बढ़ रहे आक्रामक पूंजीवाद की पृष्ठभूमि में बाजार समर्थक लेखकों की उपस्थिति चिंताजनक है। इसी  आक्रामक पूंजीवाद के दौर में एक तरह का आक्रामक व्यक्तिवाद भी विकसित हो रहा है। हमारे यहां के मध्यवर्ग में उस विकृत चेतना का देखदेखी में विकास हो रहा है। यह वर्ग अपने लिए अधिकाधिक सुख-सुविधाएं जुटाना अब गुनाह नहीं मानता। निजी स्वार्थलिप्सा में डूबे हुए कुछ लेखक भी इस क्रम में दिखाई पड़ जाते हैं। ऐसे लेखक पद और पुरस्कारों के लिए सत्ता के गलियारे में चक्कर मारते हैं और विभिन्न अकादमियों के अध्यक्ष और सचिवों की चापलूसी करने में वे संकोच नहीं करते। ऐसे लेखकों के सामने रखकर अगर आज के साहित्यिक परिदृष्य को रखकर निष्कर्ष निकाला जाए तो वह एकांगी होगा। दरअसल साहित्य का सृजन और साहित्य की जनता तक पहुँच एक व्यापक परिदृश्य में देखने के लिए आमंत्रित करती है। विभिन्न क्षेत्रों में खड़ी बोली हिंदी के हजारों की तादाद में ऐसे रचनाकार हैं जिनकी रचनाएं भले किताब के रूप में नहीं छपती हैं और न पत्र-पत्रिकाओं में आती हैं लेकिन ये विभिन्न अंचलों में आयोजित साहित्यिक
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दोस्तो , बशीर बद्र साहब ने कभी फरमाया था - "कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से ये नए मिजाज़ का शहर है ज़रा फासले से मिला करो।" इधर हमारे बड़े भाई निदा फाजली साहब फरमा रहे हैं - " बात कम कीजे जहानत को छुपाते रहिये ये नया शहर है कुछ दोस्त बनाते रहिये। " " दुश्मन लाख सही ख़त्म न कीजे रिश्ता दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिये।" " कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है जिन बातों को खुद नहीं समझे औरों को समझाया है। " "हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी जिसको भी देखना हो कई बार देखना।" "घर को खोजे रात-दिन घर से निकला पाँव वह रास्ता ही खो दिया जिस रस्ते था गाँव।"
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फ्रेंकफर्ट विश्व पुस्तक मेले में उदय प्रकाश

जर्मनी के सुप्रसिद्ध शहर फ्रेंकफर्ट विश्व पुस्तक मेले की वही खासियत है जो फ़िल्म के क्षेत्र में कान फ़िल्म महोत्सव का है। यूरोप में हर साल आयोजित होने वाले इस विश्व पुस्तक मेले के आयोजक पिछले कुछ सालों से एशियाई मुल्कों के लेखन और साहित्य को तवज्जो देने लगे हैं। इसके पीछे की वजह क्या वैश्विक आर्थिक मंदी के दौर में एशिया के दो सबसे बड़े मुल्कों- भारत और चीन के विश्व की प्रमुख आर्थिक ताकतों और बड़े बाज़ार के रूप में उभरना है या सचमुच एशियाई मुल्कों के साहित्यिक लेखन ने गुणवत्ता की वजह से पिछले वर्षों में दुनिया का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित करने में सफल रहा है। मालूम हो सन २००७ के फ्रेंकफर्ट विश्व पुस्तक मेले में भारत को गेस्ट आफ आनर बनाकर यहाँ के लेखन को ख़ास तवज्जो दी गई थी। इस साल १४ से १८ अक्टूबर तक आयोजित फ्रेंकफर्ट विश्व पुस्तक मेले में गेस्ट आफ आनर या कहें प्रमुख अतिथि भारत के पड़ोसी देश चीन को बनाया गया. चीन ने पिछली वर्षों में आर्थिक और तकनीकी क्षत्र में जो प्रगति की है उसकी झलक उनके पुस्तक प्रकाशन, मेले में लगे उनके बुक स्टाल और उनके सांस्कृतिक रंगारंग कार्यक्रमों में साफ़ तौर पर द

जब सरकार हाथ खड़े कर दे!

इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि वैश्विक आर्थिक मंदी के दौर में एक बड़ी आर्थिक ताकत के रूप में उभर रहे मुल्क की सरकार एक बेहद नाज़ुक , मानवीय और लोककल्याणकारी मसले पर भरी अदालत के सामने अपनी हाथ खड़ी कर दे। अभी हाल ही में केन्द्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट के सामने राजधानी दिल्ली में मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों की देखभाल करने में अपनी असमर्थता जाहिर की। सरकार के नुमाइंदे ने अदालत में कहा कि सरकार ने मनोरोगियों की भलाई के लिए नीति ज़रूर बनाई है लेकिन वह उनकी देखभाल नहीं कर सकती, जबकि कोर्ट चाहता था कि सरकार राजधानी की सड़कों और गलियों में भटकते और बेइन्तहा जुर्मों के शिकार बनते ऐसे मनोरोगी पुरषों और महिलाओं के अभिभावक के रूप में काम करे। मालूम हो कि दिल्ली की गलियों में मानसिक रूप से विक्षिप्त हालत में भटकती पूर्व मॉडल गीतांजलि की पीड़ा को मीडिया द्वारा उजागर करने के बाद कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए इस राष्ट्रीय समस्या के बारे में सरकार से जवाब तलब किया था. चीफ जस्टिस एपी शाह तथा एस मुरलीधर की बेंच द्वारा गठित समिति ने बताया

लेखक की सक्रियता और बेचैनी

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पागल भिखारी और बिसलेरी की बोतल

हर पागल भिखारी के पास होती है एक गठरी उसमें होते हैं - कुछ गंदे , फटे - पुराने कपड़े सूखे बासी बैंगन आलू माचिस की खाली डिब्बियां और बिसलेरी , अक्वागार्ड या किनले की कुछ खाली बोतलें। पानी पीकर फेंकी बोतलें बीच सड़क पर पड़ी देख लपक कर उठा लेता है पागल भिखारी और लगा लेता है अपने सीने से ताकि रौंद न दे उसे पीछे से आ रही कोई कार अपने पहियों के नीचे। बीच सड़क पर पड़ी बोतलें पहले रोती हैं अपने इस हाल पे जार - जार फ़िर सोचती हैं - अपनी आंखों के आंसू पोछ कितना है सुकून इस पागल भिखारी के पास इतना नहीं देती थी हमें कार न बहुराष्ट्रीय पानी बेचनेवाली कंपनियों का सरदार। ग़लत थीं हम नहीं पहचान पाईं उन्हें मतलबी थे वे सिर्फ़ पानी से था उन्हें सरोकार इसीलिए फेंक दिया जब उन्होंने हमें कार के पार पीछे से आ रही थी एक कार नहीं होता यदि यह यह तैयार बीच सड़क पर पड़ी होती हमारी लाश बार - बार रौंदी जातीं हम उन्हीं कारों के पहियों के नीचे जिनमें बैठे लोगों की बुझाती

दिल्ली से एक शाही सवारी की विदाई

" हाथों में चाबुक होठों पे गालियाँ बड़ी नाख्रेवालियाँ होती हैं तांगेवालियाँ। कोई तांगेवाली जब रूठ जाती है तो और भी हसीं हो जाती है ....." - फर्राटे से ताँगे पर भागती उस दौर की बेहद खूबसूरत अभिनेत्री हेमा मालिनी और धर्मेन्द्र पर फिल्माया गया " शोले " फ़िल्म का ये गाना १९८० - ९० के दशक में खूब हिट हुआ था। कभी राजों - महराजों की शानो - शौकत का प्रतीक था तांगा। वक्त के साथ हर ख़ासोआम की पसंदीदा सवारी बन गया तांगा। इसी का एक रूप था बग्घी। तब तक कारें नहीं आई थीं हमारे देश में या आई भी थीं तो गिनी - चुनी तादाद में। गाँव की पगडंडियों से लेकर कस्बों , छोटे - बड़े शहरों यहाँ तक कि दिल्ली , कलकत्ता के रईस से रईस इलाकों में हर ख़ासोआम की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का एक अहम् हिस्सा बन गए थे ताँगे और बग्घी। बहुत दिनों तक इंसानों के एक जगह से दूसरी जगह जाने का के अहम् जरिया था तांगा। व्यापार , कारोबार और माल ढुलाई के लिए बैलगाड़ी तो थी ही , ताँगे और बग्घियों का भी खूब इस्तेमाल होता था। और तो और अरावली की पहाड़ियों पर लुटियन क्षेत्र में भी घुमते थे ताँगे और बग्घियों के पहिये

बेबाक लिखने की सज़ा !

मंटो साहब को गुज़रे आज करीब पचपन  साल हो चुके हैं। ‘ कितने टोबाटेक सिंह ’ , ‘ काली सलवार ’ , ‘ खोल दो ’ , ‘ बू ’ सरीखी कहानियों के इस लेखक पर आज बड़े - बड़े लेखक , आलोचक , इतिहासकार , समाजवैज्ञानिक कभी रस्क , कभी फख्र तो कभी तारीफ़ करते हैं। लेकिन आज जब मैं मंटो की शख्सियत को समझने की कोशिश कर रहा हूँ तो मुझे लगता है कि मंटो महज़ एक लेखक या एक शख्सियत ही नहीं बल्कि एक मानसिकता है। एक ऐसी मानसिकता जो नाफा-नुकसान की चिंता किए बगैर जो मन की बात बड़ी बेबाकी से लिखने की कूव्वत रखता है। किसी से डरता नहीं , अपने हालात से भी नहीं , चाहे उसका अंजाम कुछ भी हो। अपने दौर की बड़ी से बड़ी शख्सियतों की गिरेबां पकड़ने में भी उसे कोई झिझक नहीं होती। इसीलिए ऐसे लेखक के खिलाफ सब एकजुट हो जाते हैं। कोई इसे ' बेवकूफ़ ' कहता है तो कोई ' बदतमीज़ ', ' बददिमाग ' या ' बदमिजाज '। ' पागल ' कहने वाली भी कम नहीं होते हैं। वे सचमुच इसे पागल कर देना चाहते हैं ताकि न रहे बांस न बजे बांसुरी। मंटो के साथ भी ज़माने वालों ने कुछ ऐसा ही बर्ताव