बिज्जी के पास है लोककथा के जादू का बक्सा : शशिकांत
विजयदान देथा (बिज्जी) |
राजस्थानी और हिन्दी के बहुचर्चित लेखक विजयदान देथा
उर्फ़ बिज्जी पचासी वर्ष के हो गए हैं. पिछले दिनों उनका नाम
उर्फ़ बिज्जी पचासी वर्ष के हो गए हैं. पिछले दिनों उनका नाम
नोबेल पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्टेड होने की भी ख़बर आई थी.
बिज्जी की कहानियाँ जब पहली बार पाठकों के सामने आई तो
उन्होंने एक हलचल सी मचा दी थी. आधुनिक भारतीय
साहित्य में लोक तत्व इस तरह से प्रासंगिक होकर पहली बार
दिखा था. उदय प्रकाश ने सन 2001 में साहित्य अकादेमी के
लिए बिज्जी पर फ़िल्म बनाई थी. बतौर निर्देशन सहायक मेरी
वह पहली डाक्यूमेंट्री फ़िल्म थी. उस दौरान बिज्जी के गाँव
बोरुन्दा में बिज्जी के संग बिताए लम्हे को दैनिक हिंदुस्तान ने (27 नवम्बर 2011) प्रकाशित किया है. पेश है. - शशिकांत
सन 2001 का मार्च महीना। मौसम गर्म होने लगा था। किराए की एक सूमो कार सुबह-सुबह दिल्ली के ट्रैफिक जाम से निकलकर दिल्ली-जयपुर हाइवे पर फर्राटे से भाग रही थी। उस पर सवार थे हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक और निर्देशक उदय प्रकाश, 'सत्या', 'कौन', 'तरकीब', 'कितने दूर कितने पास', 'मस्ती' के सिनेमाटोग्राफर तथा 'मोहनदास' फिल्म के निर्देशक मजहर कामरान और यूनिट के अन्य साथी। हम सभी राजस्थानी और हिंदी के बहुचर्चित कथाकार विजयदान देथा पर साहित्य अकादेमी के लिए फिल्म शूट करने बिज्जी के गाँव जा रहे थे। जयपुर और अजमेर होते हुए जोधपुर पहुंचते-पहुंचते रास्ते में ही शाम हो गई। कोई आठ-नौ बजे पूछते-पाछते हम पहुंचे बिज्जी के गाँव बोरून्दा।
बोरुन्दा- करीब पंद्रह-बीस हजार की आबादी. गाँव से छोटे शहर में तब्दील होता एक कस्बा। वहाँ है बस स्टैंड, एक छोटा सा बाज़ार, स्कूल, गर्ल्स टीचर ट्रेनिंग कॉलेज और राजस्थानी लोककला का विशाल म्यूजियम ष्रूपायन संस्थानष्। गाँव की मुख्य सड़क से नई-नई बस रही कालोनीनुमा कच्ची सड़क से होते हुए जैसे ही हमारी गाड़ी बिज्जी के घर के गेट पर पहुंची, परम्परागत लिबास (धोती-कुर्ते) में एक बुजुर्ग घर से निकल आए और पूछा, ''उदय, तुमलोग आ गए?''
फिर उनकी कोमल सी आवाज गूंजी, ''कैलाशे....गेट खोलो।'' उसके बाद बिज्जी हमारी पूरी टीम को अपने कमरे में ले गए और परम्परागत राजस्थानी शैली में आरती उतारकर सबसे पहले उदय प्रकाश और फिर पूरी प्रोडक्शन टीम का स्वागत सत्कार किया। फिर शुरू हो गई आज के समय के दो बड़े कथाकारों के बीच बातचीत। बिज्जी ने कहा, ''मैं उदय (प्रकाश) को 'तिरिछ' के लेखक के रूप में जानता हूँ...!''
कोई दस-पंद्रह दिनों तक हमारी शूटिंग चली। अल्लसुबह से देर शाम और कभी-कभी देर रात तक साथ-साथ घुमते। कभी अपने पुराने पुश्तैनी घर में, कभी गाँव की गलियों और चैपालों पर गाँववालों से किस्से कहानियाँ सुनते-दर्ज करते हुए तो कभी बियाबान में भेड़ चराते गड़ेरियों से बोलते-बतियाते हुए कैमरे का सामना करते।
लोकेशन की तलाश में आसपास के इलाकों में भटकते हुए कच्ची-पक्की सड़क के किनारे जंगलों, खेतों में उछलते-कूदते हिरणों, बारहसिंगों, चीतलों या सतरंगे पंख फैलाए नृत्य करते मोरों के झुण्ड देखकर हम रोमांचित होते। इस तरह देर शाम को जब हम वापस लौटते तो बिज्जी पूरी टीम के खाने-पीने का बंदोबस्त भी करते और हम सबके साथ ही खाना खाते।
रूपायन संस्थान में हमारे ठहरने की व्यवस्था थी। राजस्थानी लोककला का एक विशाल म्यूजियम है बिज्जी के गाँव बोरुन्दा का रूपायन संस्थान। कई एकड़ में फैला उसका विशाल आहाता। बिज्जी ने कोमल कोठारी के साथ इस संस्थान की स्थापना की थी। कोमल कोठारी-राजस्थान के लोकसंगीत को सहेजने में ऐतिहासिक भूमिका निभानेवाला एक व्यक्तित्व।
पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित कोमल दा राजस्थान संगीत नाटक अकादेमी से भी जुड़े थे। बिज्जी और कोमल कोठारी के बीच पुरानी दांतकाटी दोस्ती थी। कोमल कोठारी ने बिज्जी के साथ मिलकर सन 1953 में 'प्रेरणा' नामक पत्रिका निकालना शुरू किया। 'प्रेरणा' निकलने का उद्देश्य था हर माह एक नया राजस्थानी लोकगीत खोजकर उसे लिपिबद्ध करना।
लोक साहित्य को आधुनिक सन्दर्भ में प्रस्तुत करनेवाले इस पचासी वर्षीय लोकचितेरा के साथ खाना खाने के बाद हम अपने-अपने बिस्तर रूपायन संस्थान की छत पर बिछा लेते और बारह-एक बजे तक उनसे बातचीत करते। बतौर फिल्म निर्देशक-सह निर्देशक उदय जी और हमारी दिलचस्पी बिज्जी की जिन्दगी के बीते लम्हों में होती। बिज्जी बिना किसी सेंसर की कैंची चलाए अपनी जिन्दगी के हर दास्तान हमें सुनाते जाते. यहाँ तक कि युवावस्था के अपने विफल प्रेम के बारे में भी, बेहद भावुकता और संजीदगी के साथ।
बिज्जी बहुत छोटे थे तभी उनके सिर पर से उनके पिताजी का साया उठ गया था. उस भयानक हादसे की याद आज भी बिज्जी को मर्माहत कर देती है, ''तब मैं सिर्फ चार साल का था. पास के एक गाँव में ज़मीन के एक झगड़े में मेरे पिताजी और उनके दो भाई मौत के घाट उतार दिए गए. मेरे पिताजी नहीं जा रहे थे लेकिन मेरी मान ने कहा की नहीं जाएंगे तो ज़िन्दगी भर हमें ताने सुनने पड़ेंगे. तब पिताजी गए और थोड़ी देर बाद उनकी और उनके दोनों भाइयों की क्षत-विक्षत लाश घर आई.'' बिज्जी ने अपने गाँव बोरुन्दा में ही एक पीपलबाड़ी में अपने स्वर्गीय पिताजी की समाधि बना रखी है.
आज किसी को भी यह जानकर ताज़्ज़ुब होना चाहिए कि सन सैंतालिस के बाद देश में बड़ी तेजी से शुरू हुए केंद्रीकृत विकास, शहरीकरण, औद्योगीकरण वगैरह के बीच जब कॉलेज और विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा हासिल कर मध्यवर्गीय आकांक्षाओं को पाले युवावर्ग नौकरी और रोजगार के लिए दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे महानगर या अपने आस-पास के छोटे-बड़े शहर की ओर उन्मुख हो रहा था उस वक्त बिज्जी ने उल्टी गंगा बहाने का फैसला किया था।
सुनिये बिज्जी क्या कह रहे हैं, ''हर आम युवक की तरह मैं भी कॉलेज में पढ़ने जोधपुर गया। एमए करने के बाद अब क्या करूँ? ये सवाल जब मेरे सामने आया तो मैंने सोचा कि मुझे लिखना है. फिर मैंने फैसला किया कि जब तक विश्वविद्यालय की डिग्री को भूलकर जिन्दगी को देखना-समझना नहीं शुरू करूंगा तब तक अच्छा लेखक नहीं बन पाऊंगा। तब तक मैं हिंदी में कहानियाँ लिखने लगा था...
उस वक्त हिंदी कहानी के क्षेत्र में कमलेश्वर, मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव की तिकड़ी स्थापित हो चुकी थी। फिर मुझे लगा कि इन लोगों के बीच हिंदी में लिखूंगा तो मीडियाकर लेखक बनकर रह जाऊंगा। तब कहीं जाकर मैंने फैसला किया कि मैं अपनी मातृभाषा राजस्थानी में लिखूंगा। उसके बाद मैं अपने गाँव बोरून्दा आ गया और राजस्थानी में लिखने लगा।''
लेकिन शहर से कॉलेज की पढ़ाई करके गाँव लौटे बिज्जी के लिए राजस्थानी भाषा में लिखना एक बड़ी चुनौती थी, ''बचपन से पढ़ाई के चक्कर में राजस्थान से बाहर था तो राजस्थानी भाषा से कट गया था। फिर मेरे लिखने से पहले राजस्थानी में कोई साहित्य था ही नहीं। मैंने ही राजस्थानी में पहली बार साहित्य लिखना शुरू किया। बड़ी समस्या थी। गाँव आने के बाद सुबह-सुबह तैयार होकर निकल जाता. मैं गाव के लोहार, जुलाहे और मोचियों के घर जाता और उनसे घंटों राजस्थानी में बातें करता, उनसे किस्से-कहानियाँ सुनता।
इतना ही नहीं, मैंने घर में औरतों से बात की। किसी भी समाज में औरतों की भाषा सबसे शुद्ध होती है। इस तरह राजस्थान की कई लोककथाओं से मेरा परिचय हुआ। फिर मेरे मन में आया कि कि श्रुति परम्परा में चली आ रही इन लोककथाओं को क्यों न संरक्षित करूँ। उसके बाद में कॉपी-कलम लेकर जाने लगा. जो किस्से-कहानियाँ सुनता उन्हें कागज पर दर्ज कर लेता और घर पर आकर कहानी की शक्ल में तैयार कर लेता। धीरे-धीरे मैं इन लोक में प्रचलित कहानियों को आधुनिक सन्दर्भ में पेश करने लगा। इस तरह राजस्थानी भाषा की अपनी शब्द संपदा को बढ़ाने का प्रयास करता रहा।''
राजस्थानी और हिंदी कथा साहित्य में बिज्जी का ऐतिहासिक योगदान यह है कि उन्होंने श्रुति परम्परा में चली आ रही राजस्थान की लोककथाओं को न केवल दर्ज किया बल्कि उन्हें आधुनिक सन्दर्भ में प्रस्तुत किया। ''श्रुति परम्परा में चली आ रही सदियों पुरानी लोककथाओं के पुनर्लेखन और आधुनिक संदर्भ में उनकी प्रस्तुति की क्या कठिनाइयां है?''
इस सवाल पर बिज्जी ने कहा, ''लोककथाओं को शब्दों में पिरोना अपने आपमें एक कठिन काम था। मैं वह करता रहा। कई लोग मेरी इस शैली की आलोचना करते हैं लेकिन मेरा कहना है कि अगर मैं मौलिक कहानियाँ लिखता तो चालीस-पचास कहानियों के बाद उनमें भी दोहराव या एकरूपता आ ही जाती। सभी कहानियों में बार-बार वही-वही कथानक घूमता रहता। एक कहानी पढ़ो चाहे पचास कहानी पढ़ो, वही एकरूपता दिखती रहती। हमारे राजस्थानी में हजारों, लाखों लोककथाएं हैं। इसलिए मैंने लोककथाओं को आधुनिक रूप में लिखने का फैसला किया।''
''खोजे खोजे खोजेगा तो तीन लोक को पायेगा, पाए पाए पायेगा तो कित्ता गडेरा खाएगा।'' कबीर के एक दोहे को अपने लेखन का दर्शन बताते हुए बिज्जी कहते हैं, ''बचपन में जब शरतचंद्र को पढ़ता था तो पानी के बर्तन लेकर बैठता था। पढ़ता था और आंख से आंसू निकलते रहते थे. फिर पानी से आँख धोता था और पढ़ता था। शरतचंद्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर, चेखव, तालस्ताय, गोर्की, रसूल हमजातो- इन सबको पढ़ता। लेकिन मैं सिर्फ इनके लिखे शब्दों के पीछे नहीं भागता बल्कि इनके शब्दों को लिखने की कला की खोज करता।''
दरअसल रचना प्रक्रिया किसी भी लेखक का निजी रचना लोक होता है। इस लोक में गोते लगाकर आप अपने लेखक को और उनकी रचनाओं को समझते हैं। अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बिज्जी बताते हैं, ''लिखना मेरे लिए तो यह साँस लेने और जीने की तरह से सहज है। मैं तो एक निमित्त मात्र था। कलम उठाई और लिखने बैठ गया, बिना कुछ सोचे और बिना कोई योजना बनाई। न मैं काट-छाँट करता हूँ न अपने लिखे हुए को दोबारा पढ़ता हूँ। कहानी अपने आप बनती चली गई। जैसे कोई अदृश्य शक्ति लिखाती रहती है।''
राजस्थानी और हिंदी के सर्वोच्च लेखकों में से गिने जानेवाले बिज्जी ने राजस्थानी लोक गीतों के छः संकलन, राजस्थानी लोककथाओं पर आधारित 'बातां री फुलवारी' के तेरह संकलन और राजस्थानी कहावतों के आठ संकलन संपादित किये हैं। बिज्जी की प्रमुख कृतियों में 'दुविधा', 'सपनप्रिया', 'महामिलन', 'तीडो राव', 'उलझन', 'अलेखूं हिटलर' प्रमुख हैं। उन्होंने 'राजस्थानी हिंदी कहावत कोश' का भी संपादन किया है।
बिज्जी की लिखी कई कहानियों पर बॉलीवुड के सुप्रसिद्ध निर्देशक फिल्में बना चुके हैं। इनमें प्रमुख हैं- मणि कौल की 'दुविधा', प्रकाश झा की 'परिणति', अमोल पालेकर की 'पहेली' और श्याम बेनेगल की 'चरणदास चोर'। इसके अलावा सुप्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर निर्देशित बहुचर्चित नाटक 'चरणदास चोर' बिज्जी की लोककथा 'फितरती चोर' पर ही आधारित है।
पिछले एक सितम्बर को बिज्जी पचासी साल के हो गए। बिज्जी आज राजस्थान या भारत ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य के नामचीन लेखकों में शुमार हो गए हैं। इस साल साहित्य के क्षेत्र में मिलने वाले नोबेल पुरसकार के लिए देश के दो लेखक दौड़ में थे। विजयदान देथा उनमें एक थे और दूसरे थे के सच्चिदानंदन। पद्मश्री और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित बिज्जी को आज राजस्थान का शेक्सपीयर कहा जाता है।
सन 2007 में एक हादसे के बाद बिज्जी ने लिखना बंद कर दिया है। वे कहते हैं, ''जब भी लिखने बैठता हूं तो तनाव होने लगता है। हम चारणों के वंशज हैं। हमारे पूर्वज राजाओं के लिए गाते थे। इसलिए कहानी हमारे खून में है।''
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