कोई बारह बरस पहले 28 सितम्बर 2003 को मुंबई में निदा फाजली साहब के साथ उनके घर पर एक मुलाक़ात हुई थी (उसके बाद फोन पर अखबारों के लिए 3-4 बार और बातचीत हुई). उस मुलाक़ात में निदा साहब ने कई अहम् बातें कही थीं जो 12 अक्टूबर 2003 को 'राष्ट्रीय सहारा' में प्रकाशित हुई थी.आज जब निदा साहब हमारे बीच नहीं हैं तो उनको याद करते हुए श्रद्धांजलिस्वरूप वो मुलाक़ात-कथा अपने फेसबुकिया दोस्तों के हवाले कर रहा हूँ. - शशिकांत


 धर्म आज बहुतों की दुकान बन गई है : निदा फाज़ली

                                      ‘‘हर आदमी में होते हैं, दस–बीस आदमी
                           जिसको भी देखना हो कई बार देखना’’


निदा फाज़ली की मशहूर नज़्म है। इसमें वे इंसान को उसके व्यक्तित्व और व्यवहार के अलग–अलग शेड्स को मिलाकर देखने की प्रस्तावना करते हैं । पहली बार महानगर मुंबई जाना मेरे लिए जितना रोमांचक था, वहाँ पहुँचकर निदा फाज़ली, मकबूल फिदा हुसैन और तैय्यब मेहता से मिलने–बतियाने का उतना ही उतावलापन । ‘सहारा समय’ हिंदी साप्ताहिक के मुंबई ब्यूरो प्रमुख धीरेंद्र अस्थाना से जब मैंने यह इच्छा जाहिर की तो निदा फाज़ली साहब के घर का पता बतलाते हुए उन्होंने मुझे अचंभित कर डाला कि अँधेरी (वेस्ट) के सात बंगला गार्डन स्थित केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान के जिस गेस्ट हाउस में पिछले तीन दिनों से मैं ठहरा हुआ हूँ उसी लेन के आखिर में चंद कदमों की दूरी पर है सनराइज अपार्टमेंट, जिसके फ्लैट नंबर 201–बी में रहते हैं उर्दू के मशहूर शायर, कवि–लेखक निदा फाज़ली साहब ।

28 सितंबर की सुबह निदा साहब को जब मैंने फोन किया तो उनके लिए मैं अजनबी नहीं था । दरअसल अपने आत्मकथात्मक उपन्यास ‘‘दीवारों के बीच’ और ‘दीवारों के बाहर’ (दो खंडों में) पर राजेंद्र यादव के ‘हंस’ में प्रकाशित मेरी लंबी समीक्षा से वे वाकिफ’ थे । बैंक ऑफ बड़ौदा, मुंबई में कार्यरत अपने पत्रकार मित्र संजय सिंह बघेल के साथ जब मैं सनराइज अपार्टमेंट के फ्लैट नंबर 201–बी में पहुँचा तो न वह निदा फाज़ली थे और न वैसी उनकी घरेलू दुनिया जैसी ‘दीवारों के बीच’ और ‘दीवारों के बाहर’ में मैंने उनके बारे में मैंने पढ़ी थी ।
अपने घर में परिवार के साथ थे निदा फाज़ली जिसमें थीं उनकी धर्मपत्नी मालती जोशी और उनकी पाँच साल की बेटी तहरीर ।

किताबों के रैक से भरे अंदर के कमरे में सफेद कुर्त्ता–पायजामा पहने उर्दू के इस कवि–लेखक की सहजता, सादगी और मिलनसारिता तेज रफ़्तार से भागते मुंबई महानगर में शुकून देने वाली तो थी ही देशकाल, समाज, राजनीति, साहित्य, सांप्रदायिकता, भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद से लेकर देश के गाँव–देहात और मंुबई, दिल्ली की दुनिया की अपनी समझ भी बढ़ाने वाली थी ।

बातचीत के बीच नन्हीं, प्यारी तहरीर जब खेलती हुई निदा फाज़ली साहब के पास पहुँची तो उनहोंने हमारा उससे परिचय यूँ कराया, ‘‘नमस्ते करो अंकल को । यह पचास प्रतिशत मुसलमान है, चालीस प्रतिशत हिंदू और दस प्रतिशत गुजराती । ''–––और शरमाती–सकुचाती हुई बेटी पर पिता का लाड़–प्यार उमड़ पड़ा यानी दोनों बाप–बेटी खेलने लगे । दरअसल मालती जोशी गुजरात के एक हिंदू परिवार से ताल्लुक’ रखती हैं जो दसेक साल से निदा साहब की ज़िंदगी की हमसफ’र बनी हुई हैं । आज के भारत की सांप्रदायिकता के गढ़ गुजरात की एक ब्राह्मण हिंदू स्त्री का सांप्रदायिक सौहार्द भरा कदम देख–सुनकर मैं दंग रह गया ।

एक संजीदा शायर, कवि–लेखक पत्रकारिता की दुनिया को किस निगाह से देखता है ? ‘‘पत्रकारिता से आपकी भाषा इकहरी हो जाती है, समरसेट मॉम ने ‘मेमॉयस’ में लिखा है’’, निदा की टिप्पणी थी, एक पत्रकार के सामने ।

औपचारिक–अनौपचारिक बातचीत आगे बढ़ती हुई सांप्रदायिकता और विभाजन के इतिहास के बहाने कुर्रतुल ऐन हैदर के कालजयी उपन्यास ‘आग का दरिया’ और कमलेश्वर के ‘कितने पाकिस्तान’ पर आ जाती है । निदा कहते हैं, ‘‘इस देश के इतिहास का जो विभाजन किया गया उसे कुर्रतुल ऐन हैदर ने बुद्धिज़्म से जोड़ा । पाकिस्तान में उसने ‘आग का दरिया’ लिखा और इसके जरिए इतिहास को फिर से जोड़ने की कोशिश की । –––हालाँकि ‘आग का दरिया’ से पहले राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक ‘वोल्गा से गंगा तक’ आ चुकी थी––– ।’’

निदा साहब को रोककर मैंने पूछा कि इसका मतलब क्या यह है कि ‘आग का दरिया’ में जिस वैश्विक संस्कृति
की बात कुर्रतुल ऐन हैदर करती है वह राहुल सांकृत्यायन से प्रभावित है ?

‘‘दखिए कोई चीज वैक्यूम से तो आती नहीं है । जो ग्लोबल चिंतन था, उसे हम बहुत पहले से सोच–समझ रहे थे । डॉ– इकबाल के यहाँ एक ग्लोबल आदमी का कांसेप्ट आने लगा था और फिर मर्क्सिज्म का, हिस्ट्री का जो इंटरप्रटेशन था वह इतिहास की अखंडता पर विश्वास करता था । प्रगतिशील आंदोलन में मुल्कराज आनंद, सज्जाद जहीर आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान था । इस मूवमेंट में प्रेमचंद और टैगोर की शुभकामनाएँ थीं । मतलब प्रगतिशील मूवमेंट ने आदमी को उसके क्षेत्र, धर्म, जाति आदि से पहचानने के बजाय उसको इतिहास के एक लंबे प्ररिपे्रक्ष्य में पहचानने पर जोर दिया था । यही काम अपनी तरह से संत और सूफी कर चुके थे’’, निदा फाज़ली का जवाब था ।

मेरे इस सवाल पर कि प्रगतिशील आंदोलन की इस मजबूत बुनियाद के बावजूद क्या वजह रही कि सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता, जातिवाद और शोषण, दमन, अत्याचार आदि से हमारा आज का हिंदुस्तानी समाज आक्रांत है, निदा फाज़ली ने संजीदगी से कहा, ‘‘–––जैसे कहा जाता है कि सोवियत रूस का पतन मार्क्सवाद का पतन था । प्रगतिशीलों में जो चिंतन था, जो सोच थी, वह अब भी है लेकिन वह साहित्य आज कितने लोगों तक पहुँचता है ? आज हिंदी साहित्य का यह हाल है कि एक लिखने वाला ही दूसरे लिखने वाले को पढ़ता है । दरअसल अज्ञेय जी के बाद पाठक का अनादर किया गया हिंदी और उर्दू में और ड्रांइग रूम पोएट्री थमा दी गई पाठकों को प्रयोगवाद के नाम पर । और इस तरह आपने लेखक बिरादरी को सीमित कर दिया । . . .

. . . ‘‘लेकिन प्रगतिशील आंदोलन देश की आम जनता में सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने और उसमें धर्मनिरपेक्षता की भावना विकसित करने में क्यों विफल रहा कि आज चैतरफा सांप्रदायिकता का बोलबाला हो गया ?’’ मेरे इस कठोर सवाल पर निदा साहब का जवाब भी काफी कठोर और सीधा था ।

उन्होंने कहा, ‘‘भारत में जो प्रगतिशील मूवमेंट आया उसमे पूरा का पूरा दोगलापन रहा । एलीट भाषा में आप हल चलाने वाले, सब्जी बेचने वाले, इमारत बनाने वाले, झुग्गी–झोपड़ियों में रहने वाले तक अपनी बात नहीं पहुँचा सकते । उर्दू में भी फै’ज़ और (अली सरदार) जाफरी की भाषा कौन सी थी ? ये वो भाषा नहीं है जो ‘जनता की भाषा’ है, बल्कि दलितों का जो आरोप है उसमें थोड़ी बहुत सत्यता भी है । जब वे कहते हैं कि प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी के नायक घीसू और माधव दारू और आलू क्यों पीते हैं । वे सामंतवाद पूँजीवाद से टकराते क्यों नहीं ? अमिताव घोष का का आरोप है कि ये जो परिवर्तन आया है इसमें विद्रोह कहाँ है ? इसलिए नहीं है कि वे (प्रेमचंद) जिस वर्ग से ताल्लुक’ रखते थे उसके दायरे में ही उन्होंने दूसरे वर्ग के बारे में सोचा । ''

(थोड़ा सँभलकर आगे  वे कहते हैं), ‘‘प्रगतिशीलता को मैं इग्नोर नहीं कर रहा । (मैक्सिम) गोर्की साहब जिस वर्ग से थे वे उस वर्ग के उतार–चढ़ाव से वाकिफ’ थे । कृश्नचंदर ने भी उसी तरह से लिखा । देखिये, ड्राइंग रूप में टेबुल–कुर्सी पर बैठकर आम आदमी के लिए लिखी गई भाषा ‘सिंपैथेटिक (सहानुभूतिपरक) ही हो सकती है । ‘अनुभव गाबे सो रागी है’ कहने वाले कबीर वे नहीं बन सकते । –––और सबसे बड़ी बात यह कि केवल विचार से श्रेष्ठ साहित्य नहीं लिखा जा सकता । विचार के अलावा भी बहुत सी चीज़ है जो उसे श्रेष्ठ साहित्य बनाती है ।''

आगे वे कहते हैं, ‘‘मुंबई में हर हफ्ते प्रगतिशीलों की मीटिंग होती थी पहले । वे नए मांइड को कन्विंस करते थे । लेकिन अब वो नहीं है । बीजेपी का फील्ड वर्क क्लास वर्क है । बीजेपी के लीडर दुकानदार हैं । आज जो लोग बीजेपी के साथ हैं, उनमें एक तबका अपने फायदे के लिए है और दूसरा अज्ञानतावश । लेकिन लेफ्ट मूवमेंट जो था उसका अपना विचार था और उसके प्रचार का माध्यम उसने साहित्य को बनाया था । वह इतना बड़ा मूवमेंट था कि पूरा रशियन लिटरेचर कम से कम मूल्य पर हिंदी के पाठकों को मिल जाता था । इतना ही नहीं, उसका विश्व की हर भाषा में अनुवाद होता था । लेकिन आज ज़माना ये आ गया है कि ‘गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ फूटपाथ पर न्यूज पेपर की तरह बिकता है और ‘आग का दरिया’, ‘शेखर एक जीवनी’ के बारे में आम हिंदी पाठकों को कुछ पता ही नहीं । अरुंधति राय, सलमान रूश्दी, विक्रम सेठ आदि जो लिख रहे हैं, भारत में लिखे अच्छे उपन्यासों के सामने वे कहीं नहीं ठहरते । इसके बावजूद उनके पाठक हैं । इसकी वजह यह है कि हिंदी इज राजभाषा बट इंग्लिस इज ए लैंग्वेज ऑफ रूलिंग क्लास । फिर हमारा आम लेखक अमरीकन, फ्रेंच, अफ्रीकी आदि साहित्य के बारे में ज़्यादा जानता है लेकिन दूसरी भारतीय भाषाओं के बारे में उसका ज्ञान बिल्कुल शून्य है ।’’

हिंदुस्तान की शीर्ष साहित्यिक संस्थाओं, अकादमियों की कार्य प्रणाली को लेकर उर्दू के इस कवि, लेखक को बहुत शिकायतें हैं, ‘‘हमारे यहाँ साहित्य अकादेमी, भारतीय ज्ञानपीठ है । दिलीप (कुमार) साहब पूछते हैं कि ये क्या हो रहा है कि जो जितना जितना बड़ा भोंपू है उसको उतना ज़्यादा मिल रहा है ? हमारा पत्रकार तबका दिग्भ्रमित है । वह तोगड़िया, सिंघल को हाइलाइट करता है । उसकी तुलना में हमारा जो वर्तमान साहित्य है और उसके जो कवि लेखक हैं वे कितने हाइलाइट होते हैं ? साहित्य में जो मानवीय मूल्य हैं, संस्कारों की जो पहचान है उसे आज का मीडिया हाशिए पर छोड़ देता है और तोगड़िया, सिंघल, जोशी को––– । इसकी वजह यह है कि हिंदुस्तान की जनता को जान–बूझकर अनएजुकेट रखा गया है । अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए उसका शोषण भी किया जाता है । उससे कभी मस्जिद तुड़वाया जाता है तो कभी मंदिर को अपमानित करवाया जाता है । यह एक पूरा षडंयत्र है’’, निदा फाज़ली का कहना था ।

दरअसल, सांप्रदायिकता, बाज़ारवाद, भूमंडलीकरण और देशीय–अंतर्देशीय सत्ता विमर्श के झूठ–सच के घालमेल को निदा फाज़ली भलीभाँति पहचानते हैं । वे कहते हैं, ‘‘आज जो कुछ घटित होते हुए हम देख रहे हैं, वर्षाें तक यह मालूम नहीं पड़ता कि जो हम देख रहे हैं वह हमारे देखे हुए से बिल्कुल अलग है । यह उस अमरीका की तरह है जिसने जिसे चाहा सद्दाम बना दिया जाता है । अभी एडवर्ड सईद का देहांत हुआ । उसे अमरीकी टीवी चैनल पर बोलने की इजाजत नहीं थी । भई, जब हम बीजेपी को टारगेट करते हैं तो सबकांटिनेट (उप महाद्वीप) के बड़े मुद्दे को छोड़ देते हैं । पूरे उप महाद्वीप में आम आदमी की एक जैसी समस्याएँ हैं । लेकिन इतना बड़ा मार्केट है कि इस पर अरब की तरह बाज़ारवादियों की आँख गड़ी हुई है । कश्मीर का मसला हो या फिलिस्तीन का, वे इन्हें नासूर की तरह जिं़दा रखना चाहते हैं । और जो गवर्नमेंट्स हैं वे डमीज हैं । उनकी डोरियाँ दूसरे के हाथ में हैं । नाच उनका अपना है और मंच हमारा ।’’
 

उत्तर आधुनिकतावादी के ‘फ्रॉड’ को निदा फाज़ली साहब बड़ी बेबाकी से रहस्योद्घाटित करते हैं, ‘‘आज उनकी तरफ से नई–नई थ्योरी आ रही है जैसे उत्तर आधुनिकता । उसमें वे कह रहे हैं कि आपकी आइडियोलॉजी, हिस्ट्री आदि खत्म हो गई है । हमें टुकड़ों में बाँटकर आँचलिक बनाया जा रहा है । आज से पचास साल पहले जींस का कपड़ा हमारी मॉडर्निटी का हिस्सा था लेकिन आज उसने गंदगी और सफाई के अंतर को मिटा दिया है । वर्ल्ड के तीन चैथाई हथियारों का निर्माता अमरीका है । उसके विरोध में कोई कुछ कर नहीं सकता ।’’

हिंदुस्तान में राष्ट्रवाद के उभार और उग्र राष्ट्रवाद के नाम पर आज जो धार्मिक संकीर्णता, सांप्रदायिक नग्नता और अमानवीय कुकृत्य हो रहे हैं, उसका निदा फाज़ली ग्लोबल मैन की अपनी अवधारणा के तर्इं जवाब देते हैं, ‘‘अलग–अलग नशों में जो सबसे बड़ा एक नशा है उनमें नेशनलिज्म भी है । देखिए, जब कोई बच्चा पैदा होता है तो पूरी धरती और पूरा आकाश उसका होता है लेकिन जैसे–जैसे वह बड़ा होता है उसकी धरती और उसका आकाश छोटा होता जाता है । इसी तरह धर्म आज बहुतों की दुकान बन गई है । गंगा का जल जब कोई भरता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह इससे ‘वजू’ करेगा या शिवालय में चढ़ाएगा । किसान जब खेत में गेहूँ उपजाता है तो यह नहीं सोचता कि यह मंदिर जाएगा या मस्जिद––– ।’’

डेढ़–दो घंटे की गंभीर बातचीत के बाद मैं जब मुंबई की मायानगरी के गीतकार–पटकथाकार निदा फाज़ली के हालिया लेखन के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने बतलाया कि अश्विनी चैधरी के निर्देशन में सत्यकथा पर आधारित ‘धूप’ फिल्म रीलिज होने वाली है जिसके गीत उन्होंने लिखे हैं । दूसरी रीलीज होने वाली फिल्म गोंविद निहलानी की ‘देव’ है जिसमें अमिताभ बच्चन, फरदीन खान, करीना कपूर, ओमपुरी आदि ने भूमिका निभाई है । इसके गीत और संवाद भी निदा फाज़ली साहब ने ही लिखे हैं, और विशेष गुजारिश पर ‘देव’ फिल्म का अपना गीत वे गुनगुनाते हैं :
                      ‘‘हरेक घर में दिया भी जले अनाज भी हो
                        यहाँ न कोई ऐसा हो एहतिजाज (क्रांति) भी हो
                        हुकूमतों को बदलना तो कुछ मुहाल नहीं
                        हुकूमतें जो बदलती हैं वो समाज भी हो
                        न करते शोर–शराबा तो और क्या करते
                        तुम्हारे शहर में कुछ और कामकाज भी हो
                        रहेगी कब तलक वादों में कैद खुशहाली
                        हरेक बार कल क्यूँ हो, कभी आज भी हो ।’’

                                                    
                                           (समाप्त)

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