गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल थीं ऐनी आपा : शशिकांत

'मोहम्मद अली जिन्ना ने हिन्दुस्तान के साढ़े चार हज़ार सालों की तारीख़ (इतिहास) में से मुसलमानों के १२०० सालों की तारीख़ को अलग करके पाकिस्तान बनाया था। क़ुर्रतुल ऎन हैदर ने नॉवल 'आग़ का दरिया' लिख कर उन अलग किए गए १२०० सालों को हिन्दुस्तान में जोड़ कर हिन्दुस्तान को फिर से एक कर दिया।'' : निदा फ़ाज़ली. आज ऐनी आपा उर्फ़ कुर्रतुल ऐन हैदर की पुण्यतिथि है. प्रभात ख़बर के पटना संस्करण में प्रकाशित यह संस्मरणात्मक लेख अब ऑनलाइन मीडिया के मित्रों के हवाले है. शुक्रिया. शशिकांत

गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल थीं ऐनी आपा
''आज देखिए कंज्यूमरिज्म कितना बढ़ गया है. मार्केट में इतने तरह के प्रोडक्ट्स आ गए हैं कि मत पूछिए. मैं आपको बताऊँ, जिस तरह का दिखावा आजकल है, यह पहले नहीं था. यह सब देखादेखी, कम्पीटीशन से बढ़ा है. पता नहीं आजकल के लोगों को क्या हो गया है. आज हर कोई पैसे और दिखावे के पीछे भाग रहा है. करप्शन की वजह है पैसा. आज के पॉलिटिशियन और ब्यूरोक्रेट्स के नाम जिस तरह करप्शन के मामले में सामने आ रहे हैं, इसे देख-सुनकर बड़ी कोफ़्त होती है. पहले के ज़माने में ऐसा नहीं था'',

यह बात उर्दू की बहुचर्चित लेखिका कुर्रतुल ऐन हैदर ने आज से दस साल पहले कही थी. नोएडा के जलवायु विहार स्थित अपने फ़्लैट में ऐनी आपा ने इंडियन पॉलिटिक्स में करप्शन से लेकर कम्युनलिज्म, लिटरेचर, सोशल और कल्चरल - तमाम मसलों पर बेझिझक अपनी राय बयाँ किया था. लेकिन गुजरात दंगे पर बोलने से वह कतरा रही थीं.

उन दिनों गुजरात दंगे को लेकर लेखकों-कलाकारों की पूरी ज़मात काफ़ी परेशान थी. गुजरात दंगे के दस साल बाद ऐनी आपा के वे दहशतज़दा लफ्ज़ सचमुच रोंगटे ख़ड़े कर देनेवाले थे. उन्होंने झल्लाकर कहा था, ''क्या करेंगे जानकर? अखब़ार में छापेंगे? मैं गुजरात दंगे के बारे में उन लोगों के खिलाफ़ कुछ नहीं बोलूंगी. वे लोग मुझे जान से मार देंगे. मैं यहाँ अकेली रहती हूँ.'' 

कुर्तुल ऐन हैदर ने महज़ तीस साल की उम्र में हिंद-पाक विभाजन और हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब पर 'आग का दरिया' नोवेल लिखकर कर उर्दू अदब कि दुनिया में धमाकेदार तरीक़े से दस्तक दी थी. गुजरात दंगे पर उन्होंने तो सीधे-सीधे कोई बात नहीं की लेकिन कम्युनलिज्म को उन्होंने इंडियन डेमोक्रेसी के लिए बड़ा ख़तरा बताया.

सुनिए उन्हीं की जुबानी, ''देखिए, बाबरी मस्जिद की घटना के बाद हमारे हिंदुस्तान में कम्युनलिज्म का एक नया दौर आया है. किसने शुरू किया यह सब? मेरा ख़याल है कि हिंदुस्तान जैसे सेकुलर स्टेट में बीजेपी के बढ़ने की कई वजहें हैं. (कुछ तो अमेरिका का भी हाथ है. भाई अगर इंडिया में प्रोग्रेस होगा, यहाँ डेमोक्रेसी रहेगी, सेकुलरिज्म रहेगा तो साउथ एशिया का यह मुल्क़ मज़बूत होगा. यहाँ तरक्की होगी. लेकिन अमेरिका यह क्यों चाहेगा? ते वांट बैड इंडिया. दे नोट  वांट मॉडर्न एंड प्रोग्रेसिव इंडिया.)

''असल में कम्युनलिज्म जो है, और इसका जो प्वायजन है- आईटी इज अ बिग डिज़ीज़. हिंदुस्तान में जब तक ओवर ऑल एक इन्कलाब नहीं आएगा, जबतक आपका पूरा पौलिटिकल सिस्टम नहीं बदलेगा, जिसमें पब्लिक को वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाएगा 
तबतक कम्युनलिज्म का यह खेल चलता रहेगा. और वो अभी होनेवाला नहीं है. 
''आज हमारा पूरा का पूरा पॉलिटिकल सिस्टम बिगड़ा हुआ है. देखते है यह फेज़ कबतक चलता है. यह सब पॉलिटिक्स का मामला है. आगे यहाँ अगर अच्छे लीडर आएँगे तो यह डार्क फेज़ बदल जाएगा और बुरे आएँगे तो हालात और भी बुरे होंगे. दिक्कत यह है कि आज हमलोग चंद ऐसे लीडरों के कब्ज़े में हैं जिनको हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब से कोई लेना-देना नहीं है. उन्हें जैसे-तैसे, फ़साद करके कुर्सी हासिल करना है.''

कुर्रतुल ऐन हैदर को अदब की दुनिया में लोग इज्ज़त से ऐनी आपा कहते थे. वह बेहद ख़ूबसूरत थीं. रईस थीं. उन्होंने विवाह नहीं किया. 20 जनवरी सन 1928 को  पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नेह्टौर क़स्बे में एक जमींदार ख़ानदान में उनकी पैदाइश हुई थी. लेखन उन्हें विरासत में मिली थी. उनकी माँ नज़र सज्जाद हैदर और पिता सज्जाद हैदर यलदरम- दोनों लेखक थे.

ऐनी आपा ने बताया, ''मेरे फादर पीसीएस से थे, कलेक्टर ग्रेड में. वे अंडमान में रेवेन्यू कमिश्नर थे बाद में लखनऊ आ गए. उस ज़माने में हमारे फादर के पास अमेरिका की 'ऑकलैंड' कार होती थी. लेकिन वो ज़माना दूसरा था. उस ज़माने के अमीर लोग अपनी अमीरी की नुमाइश नहीं करते थे. उस वक्त कहा जाता था कि आप अमीर हैं तो अपनी अमीरी की अकड़ मत दिखाइए. इस तरह की हरकत को
उस समय के लोग छिछोरापन समझते थे.'' 

आज़ादी की लड़ाई जब अपने आख़िरी दौर में चल रही थी तब ऐनी आपा ने होश सम्भाला. एक छोटे से क़स्बे से निकलकर उन्होंने लखनऊ, अलीगढ़ और दिल्ली में तालीम हासिल कीं. सन 1945 ई. में दिल्ली यूनिवर्सिटी के आईपी कॉलेज में पढ़ाई करते हुए वह बैडमिन्टन खेलती थी. फिर कुछ दिन देहरादून में रहीं. वहां डालनवाला में उनका एक प्यारा-सा बँगला था.

उसके बाद उन्होंने कराची, लाहौर, लन्दन और मुंबई का रुख किया और वहां पत्रकारिता और लेखन को अंजाम दिया. लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिस 'आग का दरिया' उपन्यास ने अदब की दुनिया में उन्हें शोहरत दिलाई उम्र के आख़िरी दौर में अपने उस उपन्यास पर बात करने से वो बचती थीं जबकि पार्टीशन की त्रासदी को उन्होंने ख़ुद झेला था. उस त्रासदी के वक्त  उनकी उम्र महज़ उन्नीस साल थी. भाई के साथ उनको पाकिस्तान जाना पड़ा.

लेकिन 'आग का दरिया' जब छाप कर आया तो पाकिस्तान के कट्टरपंथियों को गंगा-जमुनी तहजीब पर लिखा उनका यह उपन्यास पसंद नहीं  आया. और वे इनके पीछे पड़ गए. उस मुश्किल वक्त में ख्वाजा अहमद अब्बास ने ऐनी आपा की मदद की और  उन्हें बीबीसी में नौकरी मिल गई.

बाद में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और पंडित जवाहरलाल नेहरू की मदद से हिंदुस्तान में उनकी वापसी हुई और मुंबई में उन्होंने अंग्रेज़ी की 'इम्प्रिंट' पत्रिका का छः साल तक और 'इलस्ट्रेटेड वीकली' का पाँच साल तक सम्पादन किया. बहुत कम लोग जानते हैं कि मुंबई में पत्रकारिता करते हुए ऐनी आपा ने हृषिकेश मुखर्जी की 'एक मुस्सफिर एक हसीना'
फ़िल्म की पटकथा और संवाद भी लिखा था.

ऐनी आपा ने ताउम्र शादी तो नहीं की लेकिन अदब की दुनिया में ख्वाजा अहमद अब्बास और खुशवंत सिंह के साथ उनका नाम दबी ज़ुबान चलता रहा. पद्मा सचदेव ने ऐनी आपा पर लिखे अपने एक संस्मरण में इसका ज़िक्र करते हुए लिखा है कि ख्वाजा अहमद आब्बास उनसे शादी करना चाहते थे लेकिन उन्हीं दिनों एक इंटरव्यू में ऐनी आपा ने अब्बास साहब को 'एक बेहूदा क़िस्म का रायटर' कह दिया इसलिए बात वहीं ख़त्म हो गई.

बातचीत में इस घटना का ज़िक्र चलने पर ऐनी आपा ने अफ़सोस जाहिर करते हुए कहा कि मैंने कभी उनके बारे में ऐसा कोई बयान नहीं दिया. फिर उन्होंने नाराज़गी के साथ कहा, ''लॉट्स ऑफ पीपुल आर नॉट मैरेड. उनके पीछे कोई नहीं पड़ता. औरत के पीछे क्यों पड़ते हैं?''     

उम्र के आख़िरी साल ऐनी आपा ने दिल्ली से सटे नोएडा में बिताया. उनकी भांजी हुमा हसन यहाँ उनकी पड़ोस में रहती थीं और उनका हालचाल लेती रहती थीं. वैसे रेहाना नाम की एक लड़की चौबीसों घंटे उनकी देखभाल करती थी. उसे सपरिवार ऐनी आपा ने अपने फ़्लैट में ही पनाह दे दिया था.

ऐनी आपा के साथ बातचीत का सिलसिला दस-ग्यारह बजे सुबह से शुरू हुआ बातचीत का सिलसिला लंच तक चलता रहा. ख़ाने की मेज़ पर तमाम तरह के मुगलई व्यंजनों के बीच पंडित नेहरू के ज़माने को याद करना भला वह कैसे भूलतीं, ''वो पंडित नेहरू का ज़माना था. नेहरू जी से मेरे पेरेंट्स के बहुत अच्छे रिलेशन थे. ही वाज अ वेरी स्वीट पर्सन. वेरी कल्चर्ड. वे पॉलीटिक्स के आदमी ही नहीं थे. यदि वे पॉलिटिशियन नहीं होते तो बड़े रायटर, बड़े हिस्टोरियन या बड़े इंटेलेक्चुअल (इंटेलेक्चुअल तो वे थे) होते.

''उनकी वजह से हम इंडियन उन दिनों बड़े फ़ख्र से कहते थे- 'नेहरू इज इंडिया'. वो दौर अब ख़त्म हो गया. देखिये, हर मुल्क़ में एक लीडर होता है जिससे सारा मुल्क़ अपने को आईडेंटिफाई करता है. तुर्की में कमाल अतातुर्क थे. उन्होंने मॉडर्न तुर्की बनाया. ईरान में राज़ाशाह पहलवी थे. ही इज अ क्रिएटर ऑफ मॉडर्न ईरान. इजिप्ट (मिस्र) को जानते हैं जमाल अब्दुल नासिर के नाम से. और इंडिया को जानते हैं नेहरू और गांधी के नाम से.''


खाना ख़ाने के बाद उन्होंने जल्दी-जल्दी मौसंमी के दो-तीन टुकड़े खाए और रेहाना को 'काफ-ए-गुल्फरोश' लेकर आने का हुक्म दिया. डायनिंग टेबल पर ही आठ सौ पन्नों के
अपने तस्वीरों के उस मोटे से अल्बम को उलट-पलट कर दिखाते हुए उन्होंने बताया कि उर्दू अकादेमी, दिल्ली से यह प्रकाशित इस अल्बम में उनकी, उनके मित्र लेखकों और फिल्मकारों की हज़ार से ज़्यादा तस्वीरें हैं.    


(19 अगस्त 2012, प्रभात ख़बर रविवारीय अंक में प्रकाशित)       

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