सआदत हसन मंटो
मित्रो, आज से कोई सौ साल पहले 12 मई सन 1912 ई. को भारतीय उपमहाद्वीप के नामचीन अफसानानिगारों में से एक सआदत हसन मंटो साहब पैदा हुए थे. विभाजन की त्रासदी को बेहद संजीदगी के साथ बयाँ करनेवाले मंटो साहब को याद करते हुए यह टिप्पणी  पेश है. इसके कुछ अंश 15 जनवरी 2011 को दैनिक भास्कर, नई दिल्ली अंक में प्रकाशित हो चुके हैं. - शशिकांत

सौ साल के मंटो को याद करते हुए

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि कुछ महान शख्सियतें काग़ज़ के पन्नों पर इन्सानी ज़िन्दगी, समाज और इतिहास की विडंबनाओं की परतों को उघाड़ने में जितनी माहिर होती हैं उनकी ख़ुद की ज़िन्दगी उन्हें इतना मौक़ा  नहीं देती कि वे बहुत ज़्यादा वक्त तक लिखते रहें। शख्सियतों की इसी फेहरिस्त में एक नाम है- सआदत हसन मंटो।

हिंद-पाक विभाजन की त्रासदी और मनवीय संबंधों की बारीक़ी को उकेरने वाली ‘कितने टोबाटेक सिंह’, ‘काली सलवार’, ‘खोल दो’, ‘टेटवाल का कुत्ता’, ‘बू’ सरीखी कहानियां लिखनेवाले भारतीय उपमहाद्वीप के इस लेखक और उसके सृजन पर आज पूरी अदबी दुनिया को फख्र है। 

लेकिन मंटो की शख्सियत की ख़ुद की ज़िन्दगी के दीगर पहलुओं, उनकी ज़द्दोज़हद, उनकी तकलीफ़ों और बेसमय हुई उनकी मौत से जब वाकिफ़ होते हैं तो मन अचानक मायूस हो जाता है।

हालांकि ताउम्र बदनामी और विवादों से घिरे रहनेवाली इस लेखक शख्सियत के कुछ दिलचस्प पहलू भी रहे हैं। बेशक इनमें से कुछ मंटो की शख्सियत को जानने-समझने में हमारी मदद करते हैं लेकिन कुछ को पढ़ते हुए कभी-कभी अचंभा भी होता है।

दरअसल मंटो बड़े ही मनमौजी क़िस्म के इन्सान थे। उनके मन में जो आता था वे वही करते थे, भले उसका अंज़ाम कुछ भी हो। अपने मन की बात कहने या लिखने में उन्हें कभी किसी तरह की कोई झिझक नहीं होती थी। 

अपनी इस फ़ितरत का उन्हें बेशक खामियाजा भी भुगतना पड़ा था। और तो और लिखते हुए वे उस दौर की महान शख्सियतों को भी नहीं बख्शते थे। उनकी ये हरकतें या हिमाकत कभी-कभार तो उस दौर की महान शख्सियतों को इतनी नागवार लगती थी कि वे मंटो साहब के लिए आपत्तिजनक लफ़्ज़ों का भी इस्तेमाल करते थे।

मसलन, सन् 18 जनवरी सन 1955 में मंटो का इंतकाल हुआ। उनकी मौत पाकिस्तान ही नहीं पूरे भारतीय उप-महाद्वीप की अदबी बिरादरी के लिए एक बड़ा सदमा था। इसकी सबसे बड़ी वजह उनकी बेबाक लेखनी तो थी ही, कम उम्र में इस जहां से उनका रुखसत हो जाना भी था। 

उनके इंतकाल के बाद बहुचर्चित नृत्यांगना सितारा देवी को किसी ने मंटो साहब के इंतकाल की ख़बर दी। ख़बर सुनते ही सितारा देवी ने अपना मुंह बिगाड़कर कहा, ‘‘बड़ा ही बदतमीज और बेवकूफ आदमी था। मेरा चैन हराम कर दिया था उसने।’’ सआदत हसन मंटो से आखिर क्यों इतनी नाराज थीं सितारा कि उनकी मौत की खबर सुनकर भी उनका गुस्सा ठंडा नहीं पड़ा।

दरअसल, सितारा देवी के बारे में मंटो साहब को जब भी लिखने का मौका मिलता तो वे चटखारे लेकर लिखते थे। उनकी लेखनी के मुरीद पाठक जानते हैं कि उन्होंने सितारा देवी पर कई शब्द-चित्र लिखे हैं। 

ऐसे ही एक शब्द-चित्र में उन्होंने लिखा है, ‘‘सितारा देवी की जब मैं कल्पना करता हूं तो वह मुझे बंबई की एक ऐसी पांच मंज़िला  इमारत लगती हैं जिसमें कई फ़्लोर और कमरे हैं। और यह एक हकीक़त है कि वह एक वक्त में कई-कई मर्द अपने दिल में बसाए रखती हैं।’’ 

कभी-कभी तो वे सितारा देवी के बारे में इतनी आपत्तिजनक टिप्पणियां कर जाते थे कि यदि वो चाहतीं तो उन पर मानहानि का मुक़दमा कर सकती थीं।

उस दौर की दो महान लेखक शख्सियतों अली सरदार जाफ़री, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अहमद नसीम क़ासमी, कृश्नचंदर, ख्वाज़ा  अहमद अब्बास, मजाज़, शाहिद लतीफ़, राजेंदर सिंह बेदी, इस्मत चुगताई, अशोक कुमार सरीखी शख्सियतें उन्हें अपना दोस्त कहते हुए फ़ख्र करती थीं। इन सबका साथ-साथ उठना-बैठना होता था। 

कहते हैं कि वे सब मंटो साहब का बड़ा ख़याल रखते थे। लेकिन तब सवाल उठता है कि फिर ऐसा क्यों हुआ कि उनके ये सारे दोस्त बंबई में मौज़ करते रहे लेकिन उनमें से किसी ने भी मंटो साहब की वापस हिंदुस्तान बुला लेने की दिली आरज़ू पर कभी गौर नहीं फ़रमाया।

दरअसल सआदत हसन मंटो ने हिंद-पाक विभाजन के वक्त पाकिस्तान जाने का फ़ैसला तो कर लिया था लेकिन जल्दी ही पाकिस्तान से उनका मोह भी भंग हो गया था, कुछ-कुछ कुर्रतुल ऐन हैदर की तरह। कुर्रतुल ऐन हैदर ने तो ख्वाज़ा अहमद अब्बास की मदद से पहले बीबीसी ज्वाइन किया और फिर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और पंडित नेहरू से गुज़ारिश करके वापस हिंदुस्तान आने में क़ामयाब रहीं।

लेकिन मंटो के हाथ तो इतने लंबे थे नहीं। हां, मुबई के कई दोस्तों को उन्होंने ज़रूर लिखा, ‘‘यार, मुझे वापस हिंदुस्तान बुला लो। पाकिस्तान में मेरी कोई जगह नहीं है।’’ पर पर उनकी ‘बदतमीज़ी’, ‘बदमिज़ाजी’, ‘बदकलमी' बर्दास्त करने की  कूव्वत यहीं बंबई के उनके किसी दोस्त में नहीं थी।

ऐसी हालत में फटेहाली के साथ पाकिस्तान में ही रहना उनकी मज़बूरी बन गई थी। फिर तो हताशा और निराशा के साथ रहना और खुद को अकेला महसूस करने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं था। 

उसी अकेलेपन में उन्होंने शराब को अपना खास दोस्त बना लिया, इतना खास कि दिन-रात उसी के साथ रहने लगे। 

इसका अंज़ाम तो बुरा ही होना था, सो हुआ। देखते ही देखते टीबी की लाइलाज बीमारी ने उन्हें अपने आग़ोश में ले लिया, और सन 1955 में महज़ 42-43 साल की उम्र में वे इस ज़हाँ को अलविदा कह गए। 
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