हमारे अनुरूप ही है त्योहार का यह दिखावा : पवन के वर्मा


पवन के वर्मा

भारतीय विदेश सेवा के वरिष्ठ अधिकारी  पवन के वर्मा भारतीय मध्यवर्ग के विशेषज्ञ हैं. 'द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास' उनकी बहुचर्चित किताब है. पवन जी इन दिनों भूटान में भारत के राजदूत हैं. पवन जी का मानना है कि दीपावली को तड़क-भड़क का पर्व मध्य वर्ग ने बनाया है, बाज़ार ने तो बस इसमें सहयोग दिया है. आज 26 अक्टूबर 2011 को दीपावली के अवसर पर दैनिक हिंदुस्तान में पढ़िए पवन के वर्मा के साथ शशिकांत की बातचीत पर आधारित यह लेख. - शशिकांत 


हमारे अनुरूप ही है त्योहार का यह दिखावा

  • पवन के वर्मा

(लेखक भूटान में भारत के राजदूत हैं)

आज हमारे देश में दीपावली समृद्धि, सम्पन्नता और दिखावे का त्योहार बन गयी है। होली, दीपावली, दशहरा आदि पर्व-त्योहार प्राचीन काल से ही हमारे यहाँ बड़े धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मनाए जाते रहे हैं। चूंकि आज कुछ लोगों के पास ज्यादा पैसे आ गए हैं इसलिए इस तरह के धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सवों या कहें पर्व-त्योहारों में पैसे के साथ-साथ दिखावा ज्यादा होने लगा है। त्योहारों के अवसर पर कुछ लोगों में होड़ रहती है कि इस प्रदर्शन में कौन अव्वल रहता है। सन 1991 के बाद एक ख़ास तबके में यह बदलाव ख़ासतौर से आया है। 

दरअसल दिखावे कि इस पृवृत्ति पर उंगली उठाने से पहले हम यह भूल जाते हैं कि नैतिकता अपनी जगह है और हमारा व्यवहार अपनी जगह। दरअसल हमारे देश में संवेदनशीलता का अभाव है। हम सिर्फ त्योहारों को ही क्यों देखते हैं। हमारे देश के विशाल मध्यवर्ग में जिस पैमाने पर शादियों और पार्टियों में ख़र्च बढ़ रहे हैं वह क्या है? देश के महानगरों और शहरों में बाजारों की चकाचौंध को देख कर लगता ही नहीं कि देश में इतनी बड़ी संख्या में ग़रीब लोग हैं।

सच पूछा जाए तो इस तरह के गैर जिम्मेदाराना व्यवहारों के बीज हमारी परम्परा में ही रहे हैं. हाँ इंडिविजुअलिस्टिक लोग हैं जो मानते हैं कि हर इंसान का अपना कर्म है और उसी के हिसाब से वह जीवन भुगतेगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस सन्दर्भ में हमें भारतीय परम्परा की भी जांच-पड़ताल करनी पड़ेगी। पीछे मुड़कर देखें तो पहले भी हमारे देश के लोगों का सामाजिक व्यवहार कोई आइडिअल नहीं था। हमारे यहाँ की वर्णाश्रम व्यवस्था इसकी मिसाल है।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे यहाँ चार आश्रम थे। गृहस्थाश्रम के बारे में हिन्दू शास्त्रों में कहा गया है कि इस अवस्था में धन बटोरना चाहिए। यानि धन बटोरना हमारी परंपरा में है। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारे हिन्दू धर्म में धन संग्रह और एश्वर्य से को वैधता प्रदान की गई है। फिर हमारे देश के परम्परागत लोगों को इससे इनकार क्यों होना चाहिए? विडंबना की बात यह है कि हमारे धर्मशास्त्रों में यह नहीं कहा गया है कि इस तरह के धन संग्रह और एश्वर्य से समाज के भीतर किस तरह की दिक्कतें पैदा होंगी।

हमारे सबसे लोकप्रिय हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ रामायण में सबसे बदतर आदमी की तुलना ग़रीब आदमी से की गयी है। कौटिल्य ने कहा है कि राजा को आर्थिक दृष्टि से समृद्ध होना चाहिए। दक्षिण भारतीय रामायण में भी इसका जिक्र है। हालांकि हमारे भारतीय संस्कृति में बहुत सारी ऐसी बातें हैं जो एक दूसरे के विपरीत हैं लेकिन मैं नहीं मानता कि हमारे देश में समाजवाद की कोई परम्परा रही है। बल्कि कटु सत्य यह है कि हमारा भारतीय समाज जातियों में बंटा रहा है। आज इक्कीसवीं सदी में हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती इस परम्परागत जातीय बंटवारे को बदलने की है। दरअसल आज न कल हमें इस जाति व्यवस्था को बदलना ही होगा। 

जहां तक हमारे देश में उत्सवधर्मिता का सवाल है जिस चीज में भारत के विशाल मध्यवर्ग की दिलचस्पी होगी उसकी पूर्ति के लिए उसके आसपास बाज़ार उपलब्ध होगा। बाज़ार मुनाफे पर चलता है। मुनाफ़ा कमाने के लिए बाजार में सक्रिय ताकतें सभी तरह के कर्म करेंगी। आज हमारे देश के विशाल मध्यवर्ग के पास पैसा है। वह पैसे ख़र्च कर सकता है। इसके लिए उसे अवसर चाहिए. हमारे परमपरागत पर्व-त्योहार, शादी-विवाह आदि उसे यह अवसर प्रदान करते हैं। 

दरअसल हाल के वर्षों में हमारे देश में जनसंचार के क्षेत्र में जो क्रांति हुई है उससे यहाँ के विशाल मध्यवर्ग की स्पेंडिंग कंडीशन पर व्यापक असर पड़ा है। मीडिया और जनसंचार के विभिन्न माध्यमों और बाज़ार ने दीपावली एवं दूसरे पर्व-त्योहारों को मनाने के लिए हमारे यहाँ के विशाल मध्यवर्गीय लोगों को तरह-तरह के ऑब्जेक्टिव ऑफ़ डिजायर दिए हैं। इसलिए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाज़ार का मूल धर्म है पैसे बनाना और और अपनी जगह वह सही भी है। लेकिन निश्चित रूप से बाज़ार के पैरोकारों ने यह माहौल बनाया है कि आर्थिक समृद्धि ही सब कुछ है, बाक़ी सब बेकार है।

मुझे लगता है कि सन 1990 के बाद हमारे देशके लोगों की जीवनशैली में बुनियादी परिवर्तन आया है और हमारी मान्यताएं भी बदली हैं। यह वही समय था जब हमारे देश में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई थी। उसी के साथ-साथ देश में सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति और टेलीविजन क्रांति भी हुई। उसके बाद हमारे यहाँ टेलीविजन, कम्प्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल फ़ोन, बड़ी तीजी से इस्तेमाल बढ़ा है। इन सबके कारण न केवल हमारे देश के लोगों के जीवनशैली बदली है बल्कि इसने हमारे लगभग पूरे समाज के सोच को ही बदल कर रख दिया है। 

हमारे यहाँ आज महानगर और बड़े-छोटे शहर ही नहीं बल्कि अब तो गाँव-देहात तक में अलग-अलग कंपनियों के करोड़ों टेलीविजन सेट्स हैं जिन्हें करोड़ों लोग रोज देख रहे हैं। हाल के वर्षों में हमारे देश के भीतर कम्प्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल फ़ोन का भी बड़ी तेजी से इस्तेमाल बढ़ा है। कई देसी और विदेशी मल्टीनेशनल कंपनियों ने इस धंधे में निवेश किया है। टेलीविजन, कम्प्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल फ़ोन आदि आज बाज़ार और उपभोक्ता सामग्रियों के विज्ञापन का बहुत बड़ा जरिया बन गए हैं। हमारे देश के आम लोगों के व्यावहारिक जीवन में बाज़ार की दख़ल लगातार बढ़ती जा रही है।

यहाँ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सन 1991 के पहले हमारे बाज़ार में गिने-चुने प्रोडक्ट्स होते थे जो अब बेहिसाब संख्या में आ गए हैं। आपका पड़ोसी अगर यह सब खरीद रहा है और आप ऐसा नहीं करना चाहते हैं तो आपके बच्चे आपको इसे खरीदने के लिए विवश कर दे रहे हैं। आज हमारे जीवन प्रणाली हमारे एसेंशियल कैरेक्टर से मिलती हैं। इसीलिए मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि समाजवाद के जमाने में जो हो रहा था वह मात्र दिखावा था। और आजकल हमारे आसपास जो कुछ हो रहा है वह रीयल सायकी है. इसलिए इस दौर को हमें ऐतिहासिक दृष्टि से समझने की कोशिश करनी चाहिए । 

इसाई धर्म में कहा गया है कि सुई के छेद से ऊँट निकाला सकता है लेकिन धनी आदमी स्वर्ग नहीं जा सकता। हमारे हिन्दू धर्म में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की बात की गयी है। इसीलिए हमारे यहाँ मान्यता है कि हर हिन्दू के घर में लक्ष्मी है और उनकी पूजा होती है। जिसके घर में लक्ष्मी आती हैं उसकी सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं। इसीलिए आज के बाजारवादी दौर में भौतिक समृद्धि को महत्व दिए जाने को देखकर हमें हैरानी क्यों हो रही है? इसमें कोई दो राय नहीं कि 1991 इस मामले में एक वाटर शेड था, उससे पहले लोगों में गिल्ट होता था कि वे पैसे कमा रहे हैं. वह अपराध-बोध आज के समय में ख़त्म हो गया है।

(शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित)


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