असली दिखावे की समृद्धि : कुर्रतुल ऐन हैदर
कुर्रतुल ऐन हैदर |
''आज की हमारी सोसायटी एक कंज्यूमरिस्ट सोसायटी है। हमलोग कंज्यूमरिज्म की ओर जा रहे हैं। बाजार जाकर देखिये कि कितनी दुकानें खुल गयी हैं और उनमें क्या-क्या बिक रहा है। किस-किस तरह के गुडस भरे पड़े हैं। पर्व-त्योहारों, सादियों, पार्टियों वगैरह में लाखों-करोड़ों रुपये खर्च कर रहे हैं। आजकल के लोगों कों दौलत को प्रदर्शित करने में शर्म नहीं आती। इसमें गरीब और लोअर मिडिल क्लास के लोग पिसते हैं और गलत रास्ते अख्तियार करते हैं।'' 'आग का दरिया', 'अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो' सरीखी कालजयी कृतियों की लेखिका कुर्रतुल ऐन हैदर उर्फ ऐनी आपा ने आज से कोई दसेक साल पहले बड़ी कोफ्त के साथ यह बात कही थी। उनका गुस्सा जायज था इसलिए भी क्योंकि वह ख़ुद एक रईस ख़ानदान से ताल्लुक़ रखती थीं.
दरअसल फिजूलखर्ची और दौलत का भौंडा प्रदर्शन ऐनी आपा को नापसंद था। इस तरह की हरक़त को वह 'बेवकूफ़ाना हरक़त' कहती थीं। उनकी इस सोच की वजह थी सामाजिक सरोकारों के प्रति उनका ख़ास रिश्ता। अपने साक्षात्कारों में ग्लोबलाइजेशन के दौर में मुल्क के अंदर पैदा हुए नवदौलतियों की भर्त्सना करते हुए वह इनकी तुलना मुल्क के कुछ पुराने ख़ानदानी रईसों से करती थीं जो दौलतमंद होने के बावजूद सादगी से रहना पसंद करते थे और दौलत का भौंडा प्रदर्शन करने से परहेज करते थे। हालांकि अदब की दुनिया में अपने कददावर पर्सनेलिटी के लिए मशहूर ताउम्र अविवाहित रहनेवाली अपने तमाने की बेहद खूबसूरत इस लेखिका को दौलत और लेखन विरासत में मिली थी।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर के करीब नेहटौर कस्बे में एक जमींदार खानदान में हुई थी ऐनी आपा की पैदाइश। उनकी आलीसान हवेली आज भी वहां महफूज है। इसके अलावा डालनवाला में भी उनका एक बड़ा बंगला था। बकौल ऐनी आपा, 'हमारी मदर नज़र सज्जाद हैदर और फादर सैयद सज्जाद हैदर यलदरम- दोनों रायटिंग करते थे। फादर पीसीएस में कलक्टर ग्रेड में थे। अंडमान में रेवेन्यू कमिश्नर के रूप में उन्होंने कई साल तक काम किया। बाद में उनका ट्रांसफर लखनउ हो गया था। उस वक्त उनके पास अमेरिका की ऑकलैंड कार थी। उन दिनों गिने-चुने लोगों के पास मोटरकार होती थी। एक कार थी 'हिलमैन'। 'स्कोडा' चेकोस्लोवाकिया की कार थी। बाहर से ही आती थी, हिंदुस्तान में कहां बनती थी। अजी, उस जमाने की बात छोड़िये, वो जमाना दूसरा था। नुमाइश नहीं करते थे उस जमाने के लोग। उस जमाने में था कि अपनी अमीरी की अकड़ मत दिखाइये। इसे छिछोरापन समझा जाता था।'
महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर आज भी लोग परेसान हैं लेकिन इक्कीसवीं सदी के शुरुआती सालों में इन्हीं मसलों पर उर्दू की इस बहुचर्चित लेखिका की परेशानी भी काबिलेगौर है। हिन्दुस्तान की आज़ादी या कहें कि पार्टीशन के आसपास अपनी स्टूडेंट लाइफ के वक्त को याद करते हुए ऐनी आपा ने कहा, 'महंगाई और करप्शन के बारे में तो मत पूछिये। लखनउ में उन दिनों हॉस्टल और यूनिवर्सिटी की मेरी पूरी फीस चालीस रुपये मासिक हुआ करती थी। आज कंज्यूमरिज्म इतना बढ़ गया है कि...! यह सब वर्ल्ड ट्रेड का मामला है। मार्केट में तरह-तरह के प्रॉडक्ट आ गए हैं। उसकी मैन्युफैक्चरिंग बढ़ गयी है। इंडस्ट्रियलाइजेशन बढ़ गया है। भ्रष्टाचार की वजह भी है- पैसा। हर किसी का सटैंडर ऑफ लिविंग बढ़ गया है। पहले यह नहीं था। आज जिसके पास एक कोठी, एक कार है वो चाह रहा है कि दो हों। यह सब देखादेखी में हो रहा है। मैं आपको बताउं कि जिस तरह का दिखावा आजकल है, यह पहले नहीं था। पता नहीं आज के लोगों को क्या हो गया है।'
राजनीति और भ्रष्टाचार निःसंदेह रूप से आज एक-दूसरे के पर्याय माने जा रहे हैं। आज के राजनीतिज्ञों के नाम रोजमर्रा तौर पर भ्रष्टाचार के मामले में सामने आ रहे हैं। ऐनी आपा ने इन करप्शन की इन घटनाओं पर अफसोस जाहिर करते हुए अपने जमाने की एक ऐसी मिसाल पेश की जिसे सुनकर आज कोई भी अचंभित हो सकता है। उन्होंने कहा, 'मेंरी एक दोस्त थीं अनीस किदवई। इंदिरा गांधी की कोठी के बगल में उनकी कोठी थी। एक दिन अनीस इंदिरा जी के यहां गयीं। उनके यहां एक शॉल बेचनेवाला आया हुआ था। अस्सी रुपये की एक शॉल उनहें पसंद आयी। इंदिरा जी बहुत देर तक उस शॉल को उलट-पलट कर देखती रहीं। लेकिन आखिरकार उन्होंने महज अठारह रुपये की एक शॉल खरीदा, क्योंकि गलत नहीं थीं वो। ईमानदार औरत थीं। आजकल के लीडरध्मिनिस्टर तो अठारह रुपये की शॉल खरीदते हैं।'
ग्लोबलाइजेशन के दौर में शुरू हुए तथाकिथत विकास को ऐनी आपा असंतुलित विकास मानती थीं। उन्हें सुनिये उनकी ही जुबानी, 'जिसे आज डेवलपमेंट कहा जा रहा है वास्तव में वह बड़ा अनबैलेंस्ड डेवलपमेंट है। आज के इस माहौल में लोगों में पैसे कमाने की शॉर्टकट प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। आज हमारे यहां स्टैंडर ऑफ लिविंग कितनी बढ़ गयी है। टेलिविजन पर विज्ञापनों में एक से एक प्रोडक्टस को बेचा जा रहा है। गरीब आदमी के पास न तो टेलिविजन है और न उस पर दिखायी जानेवाली लड़की। फिर चोरी, डकैती, अपहरण, बलात्कार, दहेज, हत्या वगैरह घटनाएं बढ़ रही हैं। जब आप लड़कियों को बाजार में खड़ी करके बेच रहे हैं तो फिर अपने आपको सिविलाइज्ड कैसे कहते हैं।'
ऐनी आपा को नयी पीढ़ी की दौलतपरस्ती से शिकायत थी, 'सबसे हैरानी की बात है कि आज पढ़ने-लिखने का किसी को शौक नहीं रह गया है। इस वक्त के लड़के कहते हैं कि ऐसा कौन सा ऐसा बिजनेस शुरू करूं कि जिसमें जल्दी से जल्दी ज्यादा से ज्यादा पैसे कमा लूं यह आज के वक्त का जेनरल टेड है- दे वांट क्विक मनी। आज के यूथ में इस तरह की अनबैलेंस्ड थिंकिंग आ गयी है। हमारे रहन-सहन और सोच-विचार सभी पर इस अनबैलेंस्ड इकॉनमी का प्रभाव पड़ा है। इस पर आप कितनी कहानियां, कविताएं या नॉवेल लिख लें, लोग भले पढ़ लेंगे लेकिन पढ़कर रख देंगे एक ओर। लिखने-पढ़ने को कोई प्रभाव नहीं पड़ता उन पर। इसलिए कहती हूं कि लिटरेचर का अब कोई प्रभाव नहीं रह गया है।'
ऐनी आपा उत्तर प्रदेश के अपने गांव नेहटौर से निकलकर लखनउ, अलीगढ़, देहरादून, कराची, लाहौर, लंदन, मंबई, दिल्ली और नोएडा में रहीं। पार्टीसन के बाद उन्हें भाई के साथ पाकिस्तान शिफ्ट होना पड़ा। वो पाकिस्तान तो शिफ्ट कर गयीं लंेकिन उन्होंने पार्टीशन को कभी कुबूल नहीं किया। हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी संस्कृति को आधार बनाकर वह महज तीस साल की उम्र में 'आग का दरिया' जैसा नॉवेल लिखकर उर्दू अदब की दुनिया में धमाकेदार तरीके से दाखिल हुईं। लेकिन पाकिस्तान के कटटरपंथियों को यह कबूल नहीं था। कहते हैं कि तंग आकर उन्होंने ख्वाजा अहमद अब्बास की मदद से पहले बीबीसी लंदन में नौकरी कीं और फिर मौलाना अबूल कलाम आजाद और पंडित नेहरू की मदद से वापस मुंबई हिंदुस्तान सिफ्ट हो गयीं।
मुंबई में 'इम्प्रिंट' पांच साल व 'इलस्ट्रेटेड वीकली' छह साल का सम्पादन और एस मुखर्जी की फिल्म 'एक मुसाफिर एक हसीना' की पटकथा एवं संवाद लिखनेवाली ऐनी आपा दरअसल एक यायावर लेखिका थीं। लेकिन उम्र के आखिरी पड़ाव पर वह 'आग का दरिया' पर किसी तरह की बातचीत करना पसंद नहीं करती थीं। दरअसल उनके इस इस नॉवेल पर इतनी बातें हुई कि वो उब चुकी हैं। सुनिये उन्होंने क्या कहा, 'आग का दरिया' को अब छोडिये! उसके बाद मैंने 'अगले जनम मोहे बिटिया न कीजौ', 'चांदनी बेगम', 'आखिरी सब के हमसफर', 'पतझड़ की आवाज' वगैरह लिखा है। इन पर कोई बात क्यों नहीं करता। लोगों की भी भेंड़चाल होती है। एक ही ढर्रे पर चलते हैं। 'अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो' के बारे में उन्होंने बताया, लखनउ में वर्किंग क्लास की औरतों लेकर मैंने यह लंबी कहानी लिख दी थी जिन्हें एक्सप्लॉयट किया जाता है।'
ऐनी आपा शायरों, फनकारों और लिटरेचर को सम्मान दिलाना चाहती थीं। दिन-ब-दिन लिटरेचर के घटते महत्व को लेकर ऐनी आपा की चिंता समझी जा सकती है, 'मेंरा मानना है कि इस वक्त लिटरेचर की कोई अहमियत नहीं रह गयी है। आज के वक्त में जिसके पास पॉलिटिकल पावर है वही ताकतवर है, वही सबकुछ है- लेखक और कलाकार सेकेंड्री हो गये हैं। अच्छी-अच्छी किताबों से भरी लाइब्रेरी हें, आर्ट गैलरी हैं- एक बम फूटा कि सबकुछ तबाह हो गया। यह कितनी बड़ी ट्रेजेडी है। सबसे कोफ्त की बात यह है कि पॉलिटिकल पावर आज कुछ अनपढ़ लोगों के हाथ में है। नेहरू जी और मौलाना आजाद के वक्त शायरों, फनकारों और साहित्यकारों का सम्मान था, वह आज खत्म हो गया है। मैं समझती हूं कि इस वक्त हिदुस्तान ही नही बल्कि पूरी दुनिया में रायटर्स-आर्टिस्ट की कोई आवाज नहीं रह गयी है। अच्छी से अच्छी चीजें लिखी जा रही हैं। लोग उन्हें पढ़ते भी हैं लेकिन पढ़कर साइड कर देते हैं। बावजूद इसके मैं लिटरेचर के बारे में होपफुल हूं कि कोई ऐसा समय आएगा जब लोग इसके महत्व को समझेंगे।'
इतना ही नहीं, हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब को लेकर ऐनी आपा आखिरी दम तक काफी संजीदा थीं, 'देखिये, हमारे हिंदुस्तान का कल्चर काफी रिच रहा है। यहां दिवाली, दशहरा, रामलीला, ईद, मुहर्रम, क्रिसमस आदि पर्व-त्योहारों ने एक ऐसा गंगा-जमुनी कल्चर बनाया जिसका असर हमारे घर-परिवार, समाज और हमारे रहन-सहन, बोलचाल, आचार-विचार-व्यवहार, वेशभूषा आदि पर भी पड़ा। हमें याद है, हमारे यहां की औरतें घर में आपसी बातचीत में एक से एक मुहावरे इसतेमाल करती थीं। मुसलिम औरतें भी रामायण के मुहावरे बोलती थीं मसलन फलां औरत कैकेयी है। हिंदू और अन्य धर्मों के लोग ईद और मुहर्रम में तहेदिल से शरीक होते थे। मलिक मुहम्मद जायसी ने हिंदुओं को केद्र में रखकर 'पदमावत' जैसा महाकाव्य लिखा। ग़ालिब और मीर जैसे शायर इसी जमीन पर पैदा हुए। मुगल काल को आप देखिये! हमारे हिंदुस्तान के बादशाह संगीत, कला और साहित्य से खास ताल्लुक रखते थे। बहुत कम लोग यह जानते हैं कि नवाब वाजिद अली शाह, शाह आलम और बहादुर शाह ज़फर बहुत बड़े फनकार भी थे। दुनिया में ऐसे बहुत कम मुल्क हैं जिनके बादशाह म्यूजिशियन, आर्टिस्ट, परफॉर्मर और रायटर रहे हैं। लेकिन धीरे-धीरे यह सब खत्म होता जा रहा है। आजकल के लीडर्स को इन सब चीजों से कोई लेना-देना नहीं। मुल्क के दीगर हिस्सों में जब-तब दंगे-फ़साद के बारे में सुनती हूं तो बड़ी मायूसी होती है। मुझे याद है जब मैं मुबई में रहती थी तो एक ही बिल्डिंग में अलग-अलग फ्लोर पर अलग-अलग कम्युनिटी के लोग रहते थे और मिलजुल कर रहते थे। मेरा मानना है कि अपनी आइडेंटिटी को लेकर हाल के वर्षों में लोग कॉशस हुए हैं। इसी वजह से क्लेश होने लगे हैं।'
ऐनी आपा एक लेखिका और पत्रकार तो थी ही फिल्म, चित्रकला, संगीत आदि में उनकी खूब दिलचस्पी थी। उन्होंने क्लासिकल म्युजिक का विधिवत प्रशिक्षण लिया था। पाकिस्तान और मुंबई में उन्होंने कई डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाईं। चित्रकारी में तो उन्हें बचपन से ही लगाव था। अपनी कई किताबों की स्केचिंग उन्होंने खुद कीं। नोएडा के सैक्टर - 21 में जलवायु विहार के अपने घर के ड्राइंग रूम में टंगा अपने हाथों से बनाया मां का चित्र उनकी चित्रकारी का उत्कृष्ट नमूना था। लेकिन बहुमुखी प्रतिभा की धनी अपने जमाने की यह बेहद खूबसूरत लेखिका खुद को रायटर ही मानती थीं, ष्ष्रायटिंग ज्यादा अच्छी लगी। लेकिन मैंने कभी कम्प्रोमाइज नहीं किया। इसकी वजह से काफी नुकसान हुआ। जब आप कम्प्रोमाइज नहीं करेंगे तो आपको बहुत तरह के नुकसान होंगे।'
ताउम्र अविवाहित रहने के ऐनी आपा के फैसले की वजह भी शायद उनका कम्प्रोमाइज न करना ही था। हालांकि अदब की दुनिया में ऐनी आपा के अविवाहित रहने के कई किस्से हैं। बताते हैं कि ख्वाजा अहमद अब्बास और खुशवंत सिंह के साथ उनके करीबी रिश्ते थे। पदमा सचदेव ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ उनका निकाह लगभग तय हो चुका था। एक अखबारवाले के द्वारा ख्वाजा की रायटिंग के बारे में पूछे सवाल पर इन्होंने उनको 'बेहूदा किस्म का लेखक' कह दिया इसलिए बात बिगड़ गयी। हालांकि मुझसे बातचीत के दौरान ऐनी आपा ने इससे साफ इनकार किया, 'मैंने कभी उनको ;ख्वाजा अहमद अब्बास को 'बेहूदा किस्म का लेखक' नहीं कहा।'
आज ऐनी आपा हमारे बीच भले नहीं हैं लेकिन उनकी कालजयी कृतियां, उनकी बहुमुखी प्रतिभा और उनका कददावर व्यक्तित्व अदब की दुनिया के बाशिंदों लिए ही नहीं पूरी मानवता के लिए एक धरोहर है। उनसे जुड़े ये संस्मरण वाकई आज हमारे लिए बेहद अहमियत रखते हैं।
(शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित)
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