हिंदी की पहली अहम लड़ाई उसके अपने ही सांस्थानिक ढांचों से है: उदय प्रकाश
उदय प्रकाश |
मित्रो,
20 वीं सदी के उत्तरार्ध और 21 वीं सदी के जिस शुरुआती दौर के हम गवाह हैं यह एक भयानक समय है. यह एक ऐसा डरावना समय है जिसमें सत्ताएँ अपनी गिरोहबंदी, जातिवाद, क्षेत्रीयतावाद, साम्प्रदायिकता, भ्रष्ट आचरण वगैरह की वजह से व्यापक लूटतंत्र का हिस्सा बनकर आम जनता का विश्वास खो चुकी हैं. ऐसे कठिन समय में एक लेखक नाफा-नुकसान की फिक्र किए बगैर अपनी कहानियों और कविताओं में इस जटिल समय की माइक्रो रियलिटी को बेबाक तरीक़े से अभियक्त करने के ख़तरे उठाता रहा है और इसकी सज़ा भी भुगतता रहा है. हेर-फेर में लगी इन सत्ताओं को बार-बार आईना दिखाने का दुस्साहस करनेवाले इस कथाकार, कवि, पत्रकार, फिल्मकार का नाम है उदय प्रकाश. आज 17 सितम्बर के दैनिक भास्कर, नई दिल्ली संस्करण में उदय प्रकाश ने हिंदी के सत्ता समाज में सक्रिय ऐसे ही मठाधीशों को आईना दिखाने वाला एक लेख लिखा है. आपकी खिदमत में पेश है, दैनिक भास्कर से साभार. पसंद आए तो श्री विमल झा को शुक्रिया बोल सकते हैं न पसंद आए तो...आपकी मर्ज़ी ! शुक्रिया. - शशिकांत
सारे पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों को छोड़ कर इस सच को अब मान ही लेना चाहिए कि ‘हिंदी’ एक बहुत अधिक समस्याग्रस्त शब्द है। यह उतना निरापद और एकार्थी, सीधा-सादा और निर्दोष, सर्वानुमोदित और निर्विवाद शब्द नहीं है, जैसा इसके समर्थक और हिंदी से जुड़े राजकीय अथवा निजी संस्थान या व्यावसायिक उद्यम, जिसमें कई तरह के हित-समूहों के वर्चस्व के अधीन अखबार और मीडिया चैनल भी शामिल हैं, अपने-अपने विद्वानों के साथ दावा करते रहते हैं।
हिंदी कोई ऐसी भाषा नहीं है, जो अपने विकास के किसी चरम को हासिल कर चुकी है और अब हमेशा के लिए जड़ीभूत हो कर स्थिर हो चुकी है। यह न संस्कृत की फॉसिल (जीवाश्म) है, न अन्य जीवित देशी-विदेशी-इलाकाई भाषाओं के साथ लगातार और रोजाना सहवास से अपवित्र और कुलटा हो चुकी उसका ऐसा ‘अपभ्रंश’, जिसे दैवी तत्सम के मंत्रोच्चार से पवित्र बनाने का राजसूय यज्ञ इसके राज-पुरोहित करने में खुसरो-भारतेंदु-प्रेमचंद युग से लेकर आजतक लगे हुए हैं।
बीसवीं सदी में प्रख्यात भाषा-चिंतक वोलासिनोव, जिन्हें हम बाख्तिन के नाम से भी जानते हैं, ने किसी भी भाषा के हर शब्द को एक ऐसा संकेतक माना था, जो उस भाषा को बोलने वाले अलग-अलग वर्गों-समूहों को अलग-अलग, और अक्सर अंतर्विरोधी संकेत देता था। यानी किसी भी ‘शब्द’ का कोई भी एक ‘अर्थ’ सर्वानुमोदित, वर्गातीत और समाज-निरपेक्ष नहीं होता। जब कोई भी समाज अपने परिवर्तन के सबसे उथल-पुथल से भरे अतिसंवेदनशील और परिवर्तनकारी दौर में दाखिल होता है तो किसी भी भाषा का हर शब्द उन्हीं परस्पर विरोधी टकराहटों का केंद्र या नाभिक बन जाता है, जिन टकराहटों और अंतर्विरोधों से वह समाज गुजर रहा होता है।
इतिहास गवाही देता है कि अठारहवीं सदी में फ्रांस में निरंकुश राज्यतंत्र को सत्ता से अपदस्थ करने वाला लोकतंत्र तब जन्मा था, जब ‘भूख’ जैसे मामूली और बुनियादी मानवीय शब्द का अर्थ राजा-रानियों के लिए ‘केक’ और गरीब जनता के लिए ‘रोटी’ हो गया था। एक ही भाषा के बिल्कुल साधारण और निरापद से लगने वाले शब्द ‘भूख’ के भीतर मौज़ूद दो अलग-अलग विरोधी संकेतों के ऐतिहासिक, सभ्यतामूलक महासमर के रक्तपात के बीच ही उस सन् 1789 वाले महान लोकतंत्र का जन्म हुआ था, जिसमें हम आज भी रह रहे हैं।
आज भी हम जिन संकेतों अथवा शब्दों को अच्छी-खासी लापरवाही और बिना दुविधा के इस्तेमाल करते हैं, मसलन- ‘विकास’, ‘अधिकार’, ‘संपन्नता’, ‘शिक्षा’, ‘चिकित्सा’, ‘घर’ आदि, वे भी एकार्थी और सर्वानुमोदित या लोकानुमोदित नहीं हैं। इन सारे शब्दों के भीतर अर्थों-अभिप्रेतों के विकट अंतर्विरोध हैं। ‘केक’ और ‘रोटी’ की तरह ही, आर्थिक असमानता की हर रोज दुर्लंघ्य होती जाती खाई और अलग-अलग जातीय-वर्गीय समुदायों के बीच लगातार बढ़ी टकराहटों की वजह से, आज हिंदी भी गृहयुद्ध की स्थिति में हैं।
सच तो यह है कि आज की व्यवहार में आने वाली हिंदी का कोई एक रूप नहीं है। इसमें इलाकाई ही नहीं, जातीय भिन्नताएं भी बहुत हैं, जो मीडिया और उच्च-वर्गीय साहित्यिक-सांस्कृतिक अथवा राजकीय हिंदी में भले ही न दिखता हो, लेकिन सृजनात्मक लेखन और बोल-चाल के धरातल पर आते ही, उसकी विविधता सामने आ जाती है। इस विविधता को सपाट नहीं किया जा सकता। यह न सिर्फ अलोकतांत्रिक होगा, बल्कि बहुतेरे कारणों से हर रोज बदलती हिंदी के विकास के विरुद्ध यह एक प्रतिगामी कदम होगा।
संयोग से वर्णाश्रम व्यवस्था की मध्यकालीन सामंती संस्कारों और जातीय बनावट में आज भी जी रहे हिंदी-समाज की भाषा हिंदी ही है, जो एक तरफ अब इस दायरे से बाहर निकल कर अन्य समाजों की ओर और दूसरी तरफ देश के अन्य सार्वजनिक संसाधनों (जिनमें से एक भाषा भी है) और अवसरों पर लोकतांत्रिक अधिकारों और बहुसंख्यक जातीय समुदायों की आनुपातिक साझेदारी के लिए बढ़ते दबावों को झेल रही है।
साहित्य, संस्कृति, शिक्षा और जन-संचार माध्यमों के इलाकों में किसी एक या एकाधिक खास जातियों की अब तक चली आ रही इजारेदारी के सामने यह पहली बड़ी ऐतिहासिक चुनौती का समय है। अपने हितों और लंबे निरंकुश भ्रष्ट शासन की हिफाजत में विचारधाराओं और छद्म राष्ट्रवाद से लेकर धर्म और संस्कृति जैसे तमाम महावृत्तांतों के वागाडंबर से खड़ी की जा रही इसकी भ्रष्ट किलेबंदी के विरुद्ध अब किसी एक वास्तविक भाषाई जन-लोकपाल की प्रतीक्षा है, जो इस भाषा पर भ्रष्ट जातिवादी वर्चस्व को तोड़ सके।
अब यह ब्रिटिश राज की शाही और पवित्र अंग्रेजी नहीं है, जिसके पुरोधा नीरद सी. चौधरी जैसे लोग माने जाते थे, अब अंग्रेजी आप्रवासियों ही नहीं, उन सभी देशों-समाजों की भाषाओं के शब्दों की भीड़ से घिर चुकी है, जहां-जहां वह विश्व-भाषा और अंतरराष्ट्रीय व्यापार की भाषा होने के कारण पहुंच रही है। पॉपुलर कल्चर, कालसेंटर और आउटसोर्सिंग ने खुद अंग्रेजी को बदल डाला है। यही अंग्रेजी के लगातार विकसित होने की वजह और शक्ति भी है। सवर्ण पारंपरिक तत्सम प्रधान हिंदी अगर देखें तो खुद संस्कृत का क्रियोल है और इसकी वर्जनाएं इसकी अधोगति और जड़ता का कारण बनेंगी।
यह सच है कि अभी तक किसी भी भाषा की लिपियां और उसकी वर्णमालाएं महज किसी भाषा को लिखित में संरक्षित करने का माध्यम या उपकरण भर नहीं, बल्कि जातीय-सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक भी थीं। लेकिन आज हम जिस सार्वभौमिक यथार्थ के सामने हैं, उसने अपने लिए एक अनोखी और ऐतिहासिक दृष्टि से अभूतपूर्व ‘लिपि-संसार’ का निर्माण भी करना शुरू कर दिया है। हम अब सिर्फ आर्थिक-राजनीतिक ग्लोबल-गांव में ही नहीं रह रहे हैं, बल्कि धीरे-धीरे ‘ग्लोबल-लिपिग्राम’ के वाशिंदे भी होते जा रहे हैं। दूसरे कई देशों की लिपियां अपनी मूल भाषाई परिवार और अब तक जड़ीभूत हो चुकी सांस्कृतिक-चिन्हों को छोड़ कर, दूसरी, विजातीय लिपियों को अपनाने लगी हैं।
अगर आपको याद हो तो जब तुर्की के आधुनिक और लोकप्रिय नेता कमाल अतातुर्क ने तुर्क-भाषा को उसकी पुरानी मध्यपूर्वी अरबी-फारसी लिपि से मुक्त करके, आधुनिक पश्चिमी यूरोप की रोमन लिपि से जोड़ा था और इसके लिए सख्त राजकीय आदेश निकाले थे, तब उनका धार्मिक कट्टरपंथियों ने बहुत विरोध किया था। लेकिन अगर तुर्क-भाषा पश्चिमी लिपि से जुड़ कर आधुनिक न हुई होती तो उसमें क्या नाजिम हिकमत जैसे कवि और ओरहान पामुक जैसे नोबेल पुरस्कार प्राप्त कथाकार हो पाते। यह प्रक्रिया आज और भी तेज है।
अल्जीरिया और मोरक्को जैसे देश भी अपनी भाषाओं के लिए अरबी को छोड़कर रोमन अपना रहे हैं। सबसे रोचक और ताजा उदाहरण तो चेचन्या का है, जहां जब तक रूस का दबदबा रहा, उसकी भाषा की लिपि ‘क्रिलिक’ थी, जिसमें रूसी भाषा लिखी जाती थी, आजाद होने के बाद वहां भी रोमन अपनाई जा चुकी है।
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