हुस्न का एहतराम और इश्क की खुद्दारी...!

जिगर मुरादाबादी






 जिगर मुरादाबादी : मुहब्बतों का शायर
निदा फ़ाज़ली
वाणी प्रकाशन  
मूल्य : 150 रुपये
 

 "दिल को सुकून रूह को आराम आ गया !
मौत आ गयी कि यार का पैगाम आ गया !!"
*           *            *
"हम को मिटा सके ये जमाने में दम नहीं !
हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं !!"

अली सिकंदर जिगर मुरादाबादी सन 1880 में मुरादाबाद के एक घराने में पैदा हुए और ज़िन्दगी के कई उतार-चढ़ाव से गुज़रे. दरअसल जिगर उस तहजीब के वारिश थे, जिसमें अच्छाई-बुराई और नेकी-बदी की अलग-अलग पहचानें थीं. वह मिज़ाज से आशिक और तबियत से हुस्नपरस्त थे. उनकी ज़िन्दगी की तरह उनकी शायरी भी इन्हीं दो दायरों में सीमित है. 'जिगर मुरादाबादी : मुहब्बतों का शायर'  शीर्षक से निदा फ़ाज़ली साहब की किताब अभी हाल में वाणी प्रकाशन  से प्रकाशित हुई है. पेश है,जिगर साहब की कुछ गज़लें, जिनमें हुस्न का एहतराम है और इश्क की खुद्दारी भी : 

1.

कुछ इस अदा से आज वो पहलू नशीं* रहे
जब  तक  हमारे  पास  रहे  हम  नहीं रहे

या रब किसी के राज-ए-मुहब्बत के ख़ैर हो
दस्ते   जुनूँ*   रहे   न   रहे   आस्तीं   रहे  

मुझको  नहीं  क़ुबूल दो आलम के  वुअसतें*
क़िस्मत में कूए-यार* की दो गज़ ज़मीं रहे

जा और कोई ज़ब्त की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे

अल्लाह रे चश्मे-नाज़ की मोजिज़* बयानियाँ
हर इक को है गुमां कि मुख़तिब* हमीं  रहे   

शब्दार्थ :
पहलू नशीं =क़रीब, जुनूँ =उन्माद, वुअसतें =विस्तार, कूए-यार =दोस्त की गली, मोजिज़ =चमत्कारिक, मुख़तिब =संबोधित
 
 2.

इक लफ्ज़-ए-मुहब्बत का अदना* ये फ़साना है
सिमटे तो दिले आशिक, फैले तो ज़माना है

क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क ने जाना है
हम खाक़-नशीनों* की ठोकर में ज़माना है

या वो थे खफ़ा हम से या हम हैं खफ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है

ये इश्क नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है

आँसू तो बहुत से हैं, आँखों में जिगर लेकिन
बिंध जाये जो मोती है रह जाये सो दाना है.  

शब्दार्थ :
अदना =छोटा,  खाक़-नशीनों =ज़मीन पर बैठनेवालों 

 3.

दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ मैं
कितना  हसीं  गुनाह किये जा रहा हूँ मैं

गुलशन परस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़
काँटों  से  भी  निबाह  किये  जा  रहा हूँ मैं

यूं  ज़िन्दगी  गुज़ार  रहा  हूँ  तेरे  बग़ैर 
जैसे कोई  गुनाह  किये  जा  रहा  हूँ  मैं

मुझसे लगे हैं इश्क की अज़मत* को चार चाँद
ख़ुद  हुस्न  को  गवाह  किये  जा  रहा  हूँ  मैं

मुझ से अदा हुआ है जिगर जुस्तजू का हक़
हर  ज़र्रे  को  गवाह  किये  जा  रहा  हूँ  मैं.
शब्दार्थ : अज़मत =महानता

4.

मुहब्बत में क्या क्या मक़ाम आ रहे हैं
कि  मंज़िल  पे  हैं  और चले जा रहे हैं.

ये  कह के हम दिल को बहला रहे हैं
वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं

हमारे  ही  दिल  से  मज़े  उनके पूछो
वो धोके जो दानिस्ता* हम ख़ा रहे हैं

जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है
वफ़ा  करके  भी हम तो शर्मा रहे हैं

वो आलम है यार और अग़यार* कैसे
हमीं  अपने  दुश्मन  हुए  जा  रहे  हैं.

शब्दार्थ : दानिस्ता =जान बूझकर,  अग़यार =शत्रु

5.

इश्क की हर दास्तान है प्यारे
अपने अपनी ज़ुबान है प्यारे

इश्क   की   एक   एक   नादानी
इल्म-ओ-हिकमत* की जान है प्यारे

रख क़दम  फूँक-फूँक कर नादाँ
ज़र्रे  ज़र्रे   में  जान   है   प्यारे

इसको क्या कीजिये जो लब न खुलें
यूँ   तो  मुंह  में   ज़बान   है   प्यारे

हाँ  तेरे एहद में जिगर  के  सिवा
हर   कोई   शादमान*  है   प्यारे

शब्दार्थ : इल्म-ओ-हिकमत =ज्ञान-दर्शन, एहद =युग, शादमान =खुश


 
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