कठघरे में है अपने हित के लिए लिखा इतिहास: उदय प्रकाश
उदय प्रकाश |
मित्रो, पिछले दिनों बर्कले, कैलिफोर्निया विवि में अज्ञेय की जन्मसदी पर वसुधा डालमिया ने एक गोष्ठी आयोजित की थी. उसमें भारत से उदय प्रकाश, अशोक वाजपेयी, आलोक राय और संजीव कुमार ने हिस्सा लिया था. उदय प्रकाश ने उस गोष्ठी में अज्ञेय की क्रांतिकारिता, प्रगतिशीलता और आधुनिकता की पहचान की और साथ-साथ अज्ञेय-विरोध के पीछे की प्रगतिशील वामपंथी साजिशों का खुलासा भी किया था. उदय प्रकाश का मानना है कि औपनिवेशिक काल से ही भारत में वामपंथ की कई धाराएं रही हैं लेकिन सन 47 से पहले और बाद में मुख्यधारा के वामपंथ ने सत्ता-सुख के लिए इसे हाईजेक कर लिया...और दूसरे कई प्रगतिशील समाजवादी लेखकों के ख़िलाफ़ झूठा दुष्प्रचार किया.
पेश है उदय प्रकाश का यह लेख, जो आज (3 अप्रैल 2011) के राष्ट्रीय सहारा के उमंग रविवारीय परिशिष्ट में छपा है. यह लेख मेरे साथ बातचीत पर आधारित है. - शशिकांत
किसी भी लेखक या कलाकार के बारे में फतवे और फैसले जिन दो शिविरों से आते हैं, वे शिविर ज्यादातर धर्म-संप्रदाय और राजनीति के हुआ करते हैं। यह हमशा ध्यान रखना चाहिए कि समाजवादी विचारक और नेता लोहिया ने अपने विख्यात वक्तव्य में इन दोनों को एक ही माना था : ‘धर्म लंबे समय की राजनीति है और राजनीति छोटे समय का धर्म।’
फिर ऐसे समाजों में जहां पश्चिम की औद्योगिक आधुनिकता पूरी तरह आई नहीं, लेकिन किसी संयोग से वहां की राजनीति और उसके सांस्थानिक ढांचे आ गए, तो किसी भी लेखक या कलाकार के बारे में दिए जाने वाले फतवे में इन दोनों, यानी धर्म और राजनीति की एकजुट सक्रियता को अलगाना खासा मुश्किल हो जाता है। ये दोनों एक-दूसरे में एक-दूसरे को छुपाते हुए एक साथ बहुरूपिया-कपट के साथ सक्रिय होते हैं।
हिंदी भाषी कहे जानेवाले इलाके में, जहां पूर्व-आधुनिक सामंती मूल्यों-मान्यताओं की जकड़बंदी सबसे विकट है और जहां पिछले साठ से भी अधिक सालों में बरती गई चुनावी या संसदीय लोकतंत्र की राजनीति ने जातिवाद और सांप्रदायिक अस्मिताओं को लगातार सशक्तऔर सांस्थानीकृत किया है, वहां इनमें से किसी भी एक की चीरफाड़ दूसरे की फोरेंसिक रिपोर्ट बन जाती है। पश्चिम के विकसित औद्योगिक देशों में विचाधाराओं के महावृत्तांतों का अंत अन्य कारणों से हुआ होगा, उत्तर-भारत की इस पट्टी में उनका विघटन और पतन धर्म, सांप्रदायिकता, जाति, क्षेत्रीयता, स्वार्थ और लगातार भ्रष्ट होती जाती राजनीति की बदौलत हुआ।
हिंदी की ‘मुख्यधारा’ की बलशील राजनीतिक अथवा सांस्थानिक आलोचना के हाथों बार-बार अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण रचनाकार, जो समाज में सक्रिय सांस्कृतिक चेतना की ऐसी क्षुद्र संरचनाओं (माइक्रोस्ट्रक्चर्स) को रेखांकित करते रहे हैं, हमेशा अपने जीवन के सक्रिय रचनाकाल में विवादों और हाशियों के पार धकेले जाते रहे हैं। और यह सब एक संगठित प्रायोजित राज्य-पोषित उपक्रम के तहत किया जाता रहा है। जिन महत्वपूर्ण रचनाकारों-कलाकारों के साथ ऐसा किया गया, उसकी सूची राहुल-हुसैन से लेकर आज तक लगातार लंबी ही होती जा रही है।
पिछले दिनों जन्मशती की शुरुआत के साथ ही अज्ञेय के संदर्भ में ऐसे ही विवाद फिर से उठाने की संगठित कोशिशें हुईं। अगर साठ के दशक के प्रगतिवाद बनाम प्रयोगवाद की छद्म शीतयुद्धवादी राजनीति के तहत उन्हें ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ का सदस्य घोषित किया गया तो अभी हाल में दिल्ली की एक लोकल टैबलायड ने उन पर 1942 में ब्रिटिश सेना की नौकरी करने पर उन्हें ब्रिटिश एजेंट बताने की हास्यास्पद और रोचक कोशिश की।
हास्यास्पद इसलिए कि इन्हीं तर्कों पर भारतीय उपमहाद्वीप के महान क्रांतिकारी कवि, संयोग से से जिनकी जन्मशती का आयोजन भी इसी साल दुनिया भर में मनाया जा रहा है, पर भी यही आरोप ज्यों का त्यों लगाया जा सकता है। फैज ने भी 1942 में जर्मन नाज़ीवाद के विश्वव्यापी खतरे को भंापते हुए, ब्रिटिश फौज की बर्दी पहनी थी और अज्ञेय की तरह तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारियों के कहने पर आकाशवाणी में अपनी सेवाएं सौंपी थीं। क्योंकि नाजीवाद के विरुद्ध मोर्चा सिर्फ जमीनी लड़ाई में ही नहीं, सूचना और संचार के मोर्चे पर भी जरूरी था।
अगर हर ईमानदार और महत्वपूर्ण रचनाकार के मुंह पर कालिख पोतने के धतकर्म में दशकों से सक्रिय राजधानियों के ऐसे गुटों-स्वार्थसमूहों की बात मानें तो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत समेत संसार की सभी कम्युनिस्ट पार्टियां और समाजवादी शक्तियां ‘एलाइड फौजों’ की एजेंट सिद्ध हो जाएंगी। फिर आप स्टालिन और सुभाषचंद्र बोस का क्या करेंगे?
अगर ध्यान दें तो अज्ञेय के साथ-साथ उनके सहकर्मी रह चुके ‘झूठा-सच’ और ‘दादा कॉमरेड’ जैसे बहुचर्चित उपन्यासों के प्रतिबद्ध माक्र्सवादी लेखक यशपाल को भी विवादों में घेर कर हाशिए में डाल दिया गया। अगर अज्ञेय को व्यक्तिवादी प्रतिक्रियावादी कह कर खारिज किया गया तो यशपाल को मनोविकार और काम भावना का चितेरा कहा गया।
यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि आजादी के पहले, तीसरे दशक में, राष्ट्रवादी-समाजवादी आंदोलन में यशपाल और अज्ञेय दोनों एक ही समाजवादी विचारधारा के संगठन में सक्रिय थे। जिसमें भगत सिंह, धन्वंतरी, चंद्रशेखर आजाद, उधम सिंह, सुखदेव, अशफाक, राजगुरू, भगवतीचरण बोहरा, प्रकाशवती और दुर्गा भाभी आदि सक्रिय थे। अज्ञेय का ‘शेखर एक जीवनी’ और ‘विपथगा’ कथा-संग्रह की कहानियां और यशपाल का ‘सिंहावलोकन’ तथा ‘झूठा सच’ साथ-साथ पढ़ें तो उस समय की राजनीति को समझा जा सकता है। इस राजनीति से इन दोनों रचनाकारों के मोहभंग और उससे विरक्ति या अलगाव के कारणों को भी समझा जा सकता है।
इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखें कि 1947 में विभाजन के दौरान भयावह सांप्रदायिकता, रक्तपात और उससे जुड़े सांप्रदायिक, जातीय, व्यक्तिवादी (राजनीति में जिसे ‘अधिनायकवादी’ कह सकते हैं।) और राजनीतिक यथार्थ को हिंदी के जिन दो रचनाकारों ने सर्वाधिक प्रमाणिकता और विस्तार के साथ प्रकट किया उनमें से एक थे अज्ञेय और दूसरे थे यशपाल।
आज समय के इस बिंदु पर जब बर्लिन की दीवार नहीं है, सोवियत संघ का पुराना झंडा और लेनिनग्राद कहीं नहीं है, तेलंगाना-त्रिभागा जनआंदोलन की लाल-सेनाएं नहीं हैं, जब उस जमाने की लोकप्रिय वामपार्टियां हिंदी की समूची पट्टी में जनता का विश्वास खो चुकी हैं और एक विधायक तक चुनवा पाने की स्थिति में नहीं हैं, जब एक दूसरे ‘द्वितीय शीतयुद्ध’ की शुरुआत हो चुकी है, जो दो दो सुपर पावर्स के बीच नहीं, नयी वैश्विक अर्थव्यवस्था की कोख से जनमे नव-साम्राज्यवाद और उसकी हिंसा और दमन को झेलते-सहते वंचित नागरिकों-प्रजाओं के बीच है, तब हम अतीत और पिछले राजनीतिक इतिहास को नयी आंख से देख और समझ सकते हैं। उस समय की दुरभिसंधियों और रहस्यों के उत्तर पाना भी बहुत आसान हो गया है।
क्या यह सिर्फ संयोग है कि भारत के विभाजन और सांप्रदायिक दंगों पर मार्मिक संवेदना, ईमानदारी और साहसिकता के साथ लिखनेवाले लगभग सभी महत्वपूर्ण रचनाकारों को मुख्यधारा की सांस्थानिक आलोचना ने हाशिए में फेंक दिया। अज्ञेय, उपेंद्रनाथ अश्क और यशपाल इनमें प्रमुख हैं। क्या सरहद के इस पार अज्ञेय और यशपाल के साथ जो हुआ वही उस पार फैज, मंटो, हबीब जालिब के साथ नहीं हुआ। क्या कारण था कि मलयालम के प्रेमचंद कहे जाने वाले वैक् कम मोहम्मद बषीर आजादी के पहले ब्रिटिश और आजादी के बाद देशी जेल में रहे। नजरुल आजादी के पहले संदिग्ध और आजादी के बाद विक्षिप्त माने गए।
राजनीति की ओर देखें तो राष्ट्रीय कांग्रेस में नेहरू और पटेल से भी अधिक लोकप्रिय सुभाशचंद्र बोस आजादी के पहले जर्मनी और जापान के एजेंट और विश्वयुद्ध के बाद ‘युद्ध-अपराधी’ घाषित किए गए। मानवेंद्रनाथ राय, अरबिंद घोष, सरलादेवी, मैडम कामा, जतींद्रनाथ, रासबिहारी बोस, सतीनाथ भादुड़ी, करतार सिंह, लाला हरदयाल, आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण, जैसे असंदिग्ध समाजवादी क्रांतिकारियों के नामों से भरपूर यह सूची बहुत मार्मिक और दहशतनाक तरीके से बहुत लंबी हो जाती है।
इन सब के छवि-भंजन करने और उन्हें संदिग्ध बनाने का संगठित अभियान लगातार चलता रहा। दरअसल 1947 में अंग्रजों द्वारा सत्ता हस्तांतरण के बाद से ही एक ऐसी सत्तापरस्त दलाल राजनीतिक संस्कृति ने अपना वर्चस्व स्थापित किया जो सिर्फ हिंदी तक ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में भी उतना ही प्रभावी रही।
हमें यह हमेशा ध्यान में रखना होगा कि हमारे देश में प्रगतिशील और वामपंथी आंदोलनों का जन्म 1917 में हुई सोवियत क्रांति और उसके बाद उसके प्रभाव से बननेवाले राजनीतिक दलों के बहुत पहले से हो चुका था। यह रूस और विलायत का मुखापेक्षी ऐतिहासिक तौर पर नहीं रहा। स्वयं प्रेमचंद, 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी बनने के सात साल पहले समाजवादी सिद्धांतों के ‘कायल’ हो चुके थे।
मुझे कई बार लगता है कि अगर प्रेमचंद की इतनी लोकप्रियता न होती और अगर ‘संयोग’ से वे 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता न करते, तो क्या उनके साथ भी वाम कही जाने वाली हिंदी की ‘मुख्यधारा’ की समस्याग्रस्त आलोचना वही कुछ करती, जो उसने राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, यशपाल आदि के साथ किया।
दरअसल बीसवीं सदी की शुरुआत में ही बंगाल में हुए नवजागरण और वहां की राष्ट्र्रवादी चेतना ने क्रांतिकारी और वामपंथी आंदोलनों की पृष्ठभूमि तैयार करनी शुरू कर दी थी। अगर आप प्रमथ मित्र और अरविंदो घोष का समय देखें और ‘अनुशीलन’ और ‘जुगांतर’ के दौर को देखें तो ‘सोवियत क्रांति’ के एक दशक पूर्व ही बंगाल राष्ट्रवादी और वामपंथी (समाजवादी) गतिविधियों का केंद्र बन चुका था।
बंगाल में आनेवाले नवजागरण के प्रभाव को हिंदी के प्राध्यापक-आलोचक-मीडियाकार जिस लोलुप आतुरता से स्वीकार करते हैं, आश्चर्य है कि वे वहीं से उपजी राष्ट्र्रीय और क्रांतिकारी प्रेरणा और प्रमुख क्रांतिकारियों के योगदान के बारे में चुप्पी साध जाते हैं। वे यह तथ्य भरसक छुपाने की कोशिश करते हैं कि 1919 में जालियांवाला बाग जैसे जनसंहार, जिसकी तुलना आज भी लातीनी अमेरिका के ‘बनाना रिपब्लिक’ के बर्बर जनसंहार के साथ की जाती है, के बाद पंजाब में पनपे क्रांतिकारी उभार का सीधा संबंध बंगाल से था। भगत सिंह, सीताराम तिवारी उर्फ चंद्रशेखर आजाद, अशफाक आदि का जन्म भले ही उत्तर-भारत के इलाकों में हुआ हो, वे बंगाल से आनेवाली क्रांतिकारी चेतना के ही ‘मानस-पुत्र’ थे।
1925 में जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनी उसके पहले से ही कई राष्ट्र्रवादी और वामपंथी क्रांतिकारी संगठन उस दिशा में काम कर रहे थे। अविभाजित पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियों की जो लहर आई उसका संबंध बंगाल से ही था। अज्ञेय, यशपाल और उन सरीखे अन्य विप्लवी और सामाजिक सरोकारों से गहराई से जुड़े लेखकों को हाशिए पर धकेलने का प्रमुख कारण यह था कि वामपंथ, समाजवाद और प्रगतिशीलता आदि को परिभाषित करने का इकहरा पैमाना उसी ब्रिटेन में जनमे और पनपे राजनीति और विचारों के आधार पर बनाया गया जिसे हम कैंब्रिज के ‘फेबियन समाजवाद’ के नाम से जानते हैं।
यह विचारधारा कांग्रेस के प्रमुख नेताओं पंडित जवाहरलाल नेहरू और मुख्य धारा के वामपंथी नेताओं में समान थी। यही कारण है कि आजादी के बाद सत्ता के सामने पैदा होनेवाले संकटों की हर घड़ी में दोनों हमेशा बार-बार एक साथ होते रहे। 1975 के आपातकाल ही नहीं अभी पिछले यूपीए काल तक यह सत्तापरस्ती जारी रही। साहित्य और संस्कृति के इलाके में तो खैर यह बदस्तूर निरंतर और शाश्वत है।
आज हम इक्कीसवीं सदी के इस उत्तर औपनिवेशिक नव साम्राज्यवादी समय में हैं। वहां से हम इस अतीत को साफ-साफ देख सकते हैं। और तब हमें यह दिखाई देता है कि एक नहीं बल्कि अनेक राजनीतिक दलों की तरह, जो लोकतंत्र और राष्ट्रीयता के एक जैसे दावे करते थे, उसी तरह सामाजिक समानता और वर्गीय शोषण के अंत का दावा करनेवाले वामपंथी दल भी बहुसंख्यक थे, एक नहीं।
भारत में समाजवाद सिर्फ सोवियत संघ की क्रांति से बरास्ता ब्रिटेन ही नहीं आया था बल्कि भारतीय समाज के अंतर्विरोधों की देशी जमीन में उसकी गहरी जड़ें थीं, और उसको समय-समय पर समर्थन देनेवाले पश्चिम के एक नहीं कई देश थे। पश्चिम के विकसित औद्योगिक पूंजीवादी देशों की आपसी टकराहटों के कारण भारत ही नहीं बल्कि अन्य औनिवेशिक दशों के राष्ट्रीय और क्रांतिकारी आंदोलनों को मदद और समर्थन मिलता था।
उदाहरण के लिए जब प्रथम विश्वयुद्ध शुरू होने के पहले फ्रांस ने ब्रिटेन का साथ देना शुरू किया तो भयभीत जर्मनी को अपनी रक्षा के लिए यह जरूरी लगा कि वह ब्रिटेन की ताकत के असली केंद्र को कमजोर करे। और वह केंद्र था औपनिवेशिक भारत। इतिहास के तमाम दस्तावेज मौजूद हैं कि जर्मनी ने भारत के उपनिवेशवाद के विरुद्ध चलाए जा रहे राष्ट्रवादी आंदोलनों को हर तरह से मदद पहुंचाने की कोशिश की। बल्कि 1914-15 में ठीक 1857 की गदर की तरह भारत में सैन्य विद्रोह की कोशिशें की भी गईं।
‘बर्लिन कमेटी’ बनी, ‘इंड्स-जर्मन कांस्पिरेसी’ के तथ्य हैं। भारत में क्रांति और राष्ट्रवादी आंदोलन के लिए समर्पित लोग सिर्फ मास्को और लंदन ही नहीं गए, उन्होंने सैनफ्रांसिस्को, बर्लिन, पेरिस, स्विट्जरलैंड, टोक्यो आदि विदेशी शहरों में भी जाकर काम किया। कहने का आशय सिर्फ यह कि बीसवीं सदी में औपनिवेशिक देशों के अपने अंतर्विरोध और टकराहटों का असर भारत के राजनीतिक आंदोलनों, और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों पर पड़ रहा था। यहां कोई एक वामपंथ और कोई एक प्रगतिशील विचारधारा न पहले थी न आज है। आज भी प. बंगाल की वाममोर्चा में एक-दो नहीं सोलह वामपंथी राजनीतिक दल हैं जिनमें सुभाषचंद्र बोस का फॉरवर्ड ब्लॉक भी है।
अज्ञेय जब अपनी युवावस्था में लाहौर आए थे तब उनका संबंध भारत नौजवान सभा और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के साथ हुआ। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरू, सुखदेव अशफाक सब उसी दल में थे। अज्ञेय, भगवतीचरण वोहरा और यशपाल भी। 1919 का जालियांवाला बाग का भयानक हादसा उन्हीं दिनों हुआ था। उन्होंने भगत सिंह को लाहौर से छुड़ाने की असफल योजना में भी हिस्सा लिया था। 1930 में अज्ञेय को 19 साल की उम्र में आम्र्स एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया था और दोबारा 1931 में दिल्ली षडयंत्र केस में ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों के पास उनके विरुद्ध बम बनाने और क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के तमाम प्रमाण मौजूद थे।
अज्ञेय ने अपना महत्वपूर्ण उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ का आधार पाठ इसी कैदी जीवन में लिखा। यहीं रहते हुए वे प्रेमचंद और जैनेंद्र के संपर्क में आए और ‘अज्ञेय’ नाम हासिल किया। और यहीं उनके विचारों में वह मूलगामी परिवर्तन हुआ जिसने उन्हें सशक्तहिंसक आंदोलनों से अलग बदलाव के दूसरे विकल्पों की ओर बढऩे के लिए प्रेरित किया।
इस वैचारिक परिवर्तन का आधार था 1915 में गांधी का भारत आगमन और जनता का उनके अहिंसक आंदोलनों में हिस्सा लेना। यह कुछ ऐसा ही दृश्य था जैसा अभी हाल में मिस्र, ट्यूनिशिया, सीरिया आदि देशों में दिखाई दे रहा है। यह ध्यान रखने की बात है कि 1930 में गिरफ्तार होने से पहले अज्ञेय कांग्रेस सेवा दल में वोलंटियर के रूप में शामिल हो चुके थे और उनपर गांधी का साफ प्रभाव दिखने लगा था।
बौद्ध-दर्शन उनकी चेतना के केंद्र में बचपन से ही था।
बौद्ध-दर्शन उनकी चेतना के केंद्र में बचपन से ही था।
क्या यह सिर्फ संयोग ही है कि अज्ञेय और उनके उपन्यास के नायक ‘शेखर’, दोनों का जन्म उसी एक जगह होता है, जहां स्वयं बुद्ध का देहपात हुआ था, यानी कुशीनगर। और दोनों हिंदू जातिवादी व्यवस्था को त्यागते हुए उसी दिशा में बढ़ते हैं, जिधर बुद्ध और उनके बाद अंबेडकर, राहुल, नागार्जुन, भदंत कौशल्यायन आदि गये।
अगर ‘शेखर: एक जीवनी’ और अज्ञेय की अन्य रचनाएं पढें तो इसे स्पष्ट देखा जा सकता है। यह विडंबना ही है कि बुद्ध और गांधी के मार्ग पर जानेवाले हर समाजवादी लेखक विचारक को हिंदी की मुख्यधारा की राजनीतिक संस्कृति ने हमेशा हाशिए पर धकेला। क्या यह स्वयं राज्य और बाजार के हितों के लिए निर्मित और आज तक कार्यरत सांस्थानिक-आधिकारिक राजभाषा ‘हिंदी’ के प्रच्छन्न मानस या उसकी आंतरिक चेतना के असली बनावट को उद्घाटित नही करती।
अज्ञेय एक और वजह से हाशिए पर धकेले गए, वह था उनकी व्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति गहरी निष्ठा। किसी भी राजनीतिक राज्य-व्यवस्था में व्यक्ति-इकाई के रूप में जीवित नागरिक की स्वतंत्रता। निर्मल वर्मा, मुक्तिबोध आदि अन्य रचनाकार भी इसी के शिकार बने। इन सबको ‘सामूहिक-समवेत’ सुर में ‘व्यक्तिवादी’, ‘आत्मकेंद्रित’ लगभग ‘अ-सामाजिक’ तक घोषित किया गया और स्कूलों-विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में अध्यापकों द्वारा यही युवा छात्रों को पढ़ाया जाता रहा। क्या ऐसे पाठ्यक्रमों और जातिवाद तथा राजनीति के चोर दरवाजों से संस्थानों में दाखिल ऐसे प्राध्यापकों की ‘आलोचना’ को खारिज करने का समय नहीं आ गया है।
यह एक अजीब विरोधाभास है कि जिस पूंजीवादी लोकतंत्र ने अपने जन्म के समय व्यक्ति की स्वतंत्रता का नारा सबसे पहले दिया था उसी ने अपनी व्यवस्था में स्वतंत्र व्यक्ति की जगह एक सर्वव्यापी निरंकुश स्वतंत्र बाजार का निर्माण किया, जिसमें ‘व्यक्ति’ का कोई शरण्य नहीं बचा। दूसरी तरफ औद्योगिक-समाजवाद ने भी एक ऐसे सर्वसत्तावादी राज्य और नौकरशाही का निर्माण किया, जिसमें वैयक्तिक स्वतंत्रता की मांग करनेवाला हर नागरिक प्रति-क्रांतिकारी, व्यक्तिवादी और समाजविरोधी मान लिया गया।
बहरहाल, हम आज जिस समय में हैं उसमें सत्ता के तमाम हिंसाओं और दमन के बावजूद व्यक्ति कम से कम अभिव्यक्तिके मामले में अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र है। और यह स्वतंत्रता उसे टेक्नोलॉजी, इंटरनेट, मोबाइल फोन, फेसबुक आदि ने दी है। अब अभिव्यक्ति की वैयक्तिक-नागरिक आजादी के असर दिखने शुरू हो गए हैं। एक जूलियन असांजे, वाएल गोनिम या तरुण तेजपाल कई बड़े दशों के बड़े राजनेताओं के सामने भारी पड़ रहे हैं।
कहने की आवश्यकता नहीं कि अज्ञेय और दूसरे बड़े लेखकों के मूल्यांकन का काम अब बड़े संगठनों का मोहताज नहीं बल्कि व्यक्तिया व्यक्तियों के छोटे-छोटे नेटिव समूह भी कर सकते हैं। कहा जाता है कि अब अबोधताओं और मासूमियतों के युग का अंत हो चुका है। वह इतिहास अब संदेहों के कठघरे में है, जिसे समय-समय की सत्ताओं ने अपने हितों के लिए लिखा था।
समय आ गया है कि अज्ञेय, फैज, मंटो, मुक्तिबोध, राहुल सांकृत्यायन, ऋत्विक घटक, निर्मल वर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र आदि ही नहीं, अन्य पुराने और एकदम समकालीन रचनाकारों के सृजनात्मक योगदान की आलोचना के लिए नए प्रतिमान विकसित किए जाएं।
(शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित)
महत्वपूर्ण व उपयोगी
जवाब देंहटाएंsuperb, informative
जवाब देंहटाएंकुछ खास समझ में नहीं आया। टिप्पणी का सिर्फ एक अंश्- जहाँ उपनिवेशविरोधी आंदोलनों के एक से अधिक प्रकार के विदेशी संपर्कों/समर्थनों और उकसावों की बात की गयी है- ऎतिहासिक ऊहापोह के दौर में लेखकों बुध्दजीवियों के असमंजस को नये परिप्रेक्ष्य में देखने की दृष्टि दे सकता है । बाकी सब कुछ विशफूल थींकिंग जैसा लगा। इतिहास moral और intellectual stamina की माँग करता है। एक ही साँस में सुभाष बोस, जयप्रकाश और अज्ञेय मुक्तिबोध को समेटकर अपने मन माफिक seamless narrative गढ़ना कम से कम historical thinking तो नहीं है, किस दर्जे का साहित्यिक सर्जनात्मक चिंतन है यह मैं नहीं जानता।
जवाब देंहटाएंशशिकांत जी आप उदय प्रकाश जी के साथ दोस्ताना (गुरु-भक्ति) निभा ही गए।
जवाब देंहटाएंअज्ञेय अगर प्रगतिशील हैं तो फिर एसी प्रगतिशीलता को धिक्कार है..... ! फिर उदय प्रकाश जी कुछ समय पहले तक किस प्रगतिशीलता के समर्थक थे? "समरथ को नहीं दोष गुसाई!"
ऐसी 'प्रगतिशीलता' जो तर्कशील न होकर किसी 'आस्था' (Faith/belief) की तरह काम करे, वह अपनी मूल बनावट में प्रतिगामी और जड़ (retrogressive/ conservative and dead) है। ऐसी 'प्रगतिशीलता', जो अपने से भिन्न विचार रखने वाले लेखक, कलाकार, बौद्धिक, नागरिक को उत्पीड़ित करे और उसके प्रति घृणा का प्रचार करे, वह 'लोकतांत्रिक' तो कत्तई नहीं है। इतिहास में ऐसे सर्वसत्तावादी राजनीतिक-सांस्कृतिक संगठनों ने असहमत लेखकों-कलाकारों-नागरिकों को लेबरकैंप, जेल या अन्य ऐसी जगहों पर भेजा। ऐसे संगठनों में सक्रिय कार्यकर्ताओं और उनके सदस्यों में किसी भी स्वतंत्र लेखक-नागरिक आदि के लिए कोई सम्मान या सदभावना नहीं होती। वे बुनियादी और व्यावहारिक रूप से सत्ताधारियों और सत्ता-संस्थानों के साथ नाभिनालबद्ध एक ऐसे विषाक्त और रचना-विचार-विरोधी वातावरण का निर्माण करते हैं, जिसमें बहुत से सचमुच प्रगतिवादी कलाकारों-लेखकों का जीवित हो पाना संभव नहीं रहता। ऐसी 'प्रगतिशीलता' की जड़ें १९३६ में बने 'प्रगतिशील लेखक संघ' (Progressive Writers Association) जैसे संगठन के मूल विचारों से नहीं, बल्कि आज़ादी के बाद भारतीय राजनीति के दुखद अध:पतन की गर्त से फूटी हैं। यह प्रगतिशीलता प्रेमचंद, सज्जाद ज़हीर, मख्दूम, राहुल की प्रगतिशीलता नहीं बल्कि एक ऐसी 'क्लेप्टोक्रेसी' की नज़ीर है, जिसे हम राजनीति, नौकरशाही और अन्य क्षेत्रों में भी देखते हैं। फिर सबसे ठोस और साफ़ सच यह कि ऐसी प्रगतिशीलताओं का अपहरण जिस संकीर्ण धार्मिक,जातिवादी, चापलूस और भ्रष्ट सत्तापरस्तों ने किया है उनकी हिंसाओं से अज्ञेय, निर्मल वर्मा, यशपाल आदि बड़े लेखकों के योगदान की ही नहीं, स्वयं अपनी रक्षा की भी आपात घड़ी है। इन लेखक संगठनों के एक तीसरे दर्जे के मीडियाकर चेले-गुमाश्ते के भी इतने 'ऊंचे' संपर्क हैं, कि मेरे जैसा लेखक गली गली चप्पलें चटखाता, कभी सांप्रादायिक, कभी जातिवादी, कभी नकलची, कभी चोर कहलाता हुआ भटकता है। हिंदी को कट्टर सांप्रदायिक जातिवाद ने ग्रस लिया है। इसका विरोध ज़रूरी है। व्यापक पैमाने पर।
जवाब देंहटाएंशशिकांत जी, देखिये ऊपर मैंने एक टिप्पणी लगा दी। अब कृपया ऐसे हिंदी-लेखकों को यह भी बता दें कि 'गुरु-शिष्य' परंपरा या तो पहलवानी के अखाड़ों और हिंदू मंदिरों में पायी जाती है या फिर 'हिंदी विभागों' में। आप बता दें भाई कि हम लोग दोस्त भी हो सकते हैं और सहकर्मी भी! (यही वह 'हिंदी-हिदू' मानस (mindset) है, जिससे निज़ात पाना लगभग नामुमकिन है। कल मैं गांव जा रहा हूं। देखते हैं, वहां इनके हाथ कहां-कहां तक फैले हैं? शुभकामनाएं!)
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