बंद हो कोख में क़त्ल
साथियो, आज 8 मार्च है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस. हिन्दुस्तान जैसे पुरुष प्रधान समाज में कन्या भ्रूण ह्त्या आज भी एक गंभीर समस्या है. आइये, आज हम सब बेटियों को बचाने का संकल्प लें. 14 मार्च 1999 (राष्ट्रीय सहारा) और 21 सितम्बर 2006 (जनसत्ता) में कन्या भ्रूण ह्त्या के खिलाफ़ प्रकाशित अपने ये लेख आपके हवाले कर रहा हूँ. शुक्रिया. - शशिकांत
पिछले दिनों सुप्रसिद्ध अमेरिकी पत्रिका 'फ़ोर्ब्स' ने दुनिया की सौ सशक्त महिलाओं की सूची में इंदिरा नूयी, सोनिया गांधी, ललिता गुप्ते, कल्पना मोरापिया और विद्या छाबड़िया को शामिल किया है. लेकिन इस खबर पर जब पूरा हिन्दुस्तान फ़ख्र महसूस कर रहा था, ठीक उसी दिन एक न्यूज़ चैनल ने राजस्थान के उदयपुर की एक झील में खून से लथपथ कन्या भ्रूणों को पानी में तैरते हुए दिखाकर हम हिन्दुस्तानियों को पूरी दुनिया के सामने शर्मसार कर दिया.
दिल दहला देनेवाली उस खबर से क्या यह साबित नहीं होता की परम्परागत पित्रिसत्तातामक समाज में पैदा होकर अपनी म्हणत और लगन से औरतों ने कामयाबी की सीढ़ियां तय कीं, लेकिन इस कामयाबी पर जश्न मना रहे हिन्दुक्स्तानी समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी खोखला है. वह उन्हीं गिसे-पिटे क्रूर सामंती संस्कारों की गिरफ़्त में है, जिनमें बेटियों के लिए या तो कोई जगह नहीं है याही तो हाशिए पर.
दरअसल, लिंग-भेद पर आधारित समाज में औरतों पर अत्याचार और यातना की कहानी पैदाइश के बाद, किशोरावाथा, या युवावस्था में नहीं, बल्कि गर्भ से ही शुरू हो जाती है. यूनिसेफ की एक रपट के मुताबिक़, एशिया में गर्भावस्था में बच्चियों और कन्या भ्रूणों की ज़िन्दगी की गुंजाइश बाक़ी दुनिया के मानदंडों के मुकाबले बहुत ही कम है.
हाल में एक अन्य न्यूज़ चैनल ने मध्य प्रदेश और राजस्थान के कई शहरों में स्टिंग ऑपरेशन किया जिसमें उसने वहां के सरकारी अस्पतालों और प्राइवेट क्लीनिकों में पैसे लेकर धड़ल्ले से गैर कानूनी तौर पर हो रहे अल्ट्रासाउंड और कन्या भ्रूणों के गर्भपात की खबर का पर्दाफ़ाश किया. इसी तरह राजधानी दिल्ली के कई पॉश कॉलोनियों में प्रति हज़ार लड़कों के बनिस्बत लड़कियों की लगातार कम होती तादाद की खबर भी आई.
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में कुछ ख़ास हालातों को छोड़ क़ानूनी तौर पर भ्रूण की लिंग जांच को अविध ठहराए जाने के बावजूद यदि ऐसे हादसे लगातार हो रहे हैं तो यह बेशक गंभीर मसला है, समाज और सरकार दोनों के लिए.
क़रीब दशक-भर पहले परिवार कल्याण निदेशालय ने प्रसव पूर्व लिंग जांच निरोधक अधिनियम लागू किया था. लेकिन यह सच्चाई है की आज भी बड़े पैमाने पर देश भर के महानगरों, छोटे-बड़े शहरों, यहाँ तक की क़स्बों के सरकारी और निजी अस्पतालों और क्लीनिकों में धड़ल्ले से भ्रूण परीक्षण हो रहे हैं और गर्भवती औरतों, उनके रिश्तेदारों और डॉक्टरों की मिलीभगत से कन्या भ्रूणों की बड़े पैमाने पर ह्त्या की जा रही है.
कुछ बरस पहले राजस्थान के एक गाँव में एक सौ पंद्रह साल बाद आई एक बरात की खबर ने लोगों को इस समस्या पर सोचने के लिए बाध्य किया था. परम्परागत सामंती और पुरुषवादी मानसिकता से ग्रस्त राजपूतों के उस गाँव में लड़कियों को पैदा होते ही मार दिया जाता था.
आज भी उस गाँव में गिनी-चुनी लडकियां ही हैं. कन्या भ्रूण और नवजात बच्चियों की सरेआम के जा रही ह्त्या की वजह से देश में औरत-मर्द अनुपात में असुंतलन आ गया है. पंजाब और हरियाणा सहित कुछ अन्य राज्यों में तो यह अनुपात काफ़ी चिंताजनक हालत तक पहुँच गया है.
हाल में एक ऐसी अमरीकी वेबसाईट के माध्यम से जानकारी जुटा रहे हैं. इस वेबसाईट के माध्यम से जानकारी जुटाकर कोई भी बिना किसी डॉक्टर की मदद के खुद ही भ्रूण के लिंग का पता लगा सकता है, क्योंकि इसके लिए जिन उपकरणों की ज़रुरत होती है वे आसानी से मेडिकल स्टोर में मिल जाते हैं. कहने की ज़रुरत नहीं की हिन्दुस्तान जैसे पुरुषसत्तात्मक मुल्क के लिए यह उन्नत और सहज तकनीक कितनी खतरनाक साबित हो सकती है. खासतौर पर तब जबकि पहले से ही उपलब्ध भ्रूण-ह्त्या की विभिन्न तकनीकों की वजह से केरल और प. बंगाल को छोड़कर कमोबेश पूरे मुल्क में औरत-मर्द अनुपात की खाई बढ़ती जा रही है.
राजस्थान के जैसलमेर जिले में तो प्रति हज़ार मर्दों के मुक़ाबलेऔरतों की तादाद महज़ आठ सौ दस है. जबकि वहीं भाती समुदाय में औरतों का अनुपात महज़ छह सौ से कुछ ही ज़्यादा है. इसी तरह बिहार के सीतामढी जिले के डुमरा प्रखंड में कम उम्र की लड़कियों की तादाद में भारी कमी आई है. प्रखंड के पांच गाँवों में किए गए एक सर्वे के मुताबिक़ वहां छह बरस की उम्र के पार्टी हज़ार लड़कों के मुक़ाबले महज़ छह सौ अट्ठावन लड़कियां हैं.
इतना ही नहीं, पंजाब और हरियाणा जैसे संपन्न राज्यों में भी औरत-मर्द अनुपात काफ़ी अफ़सोसनाक है. संयुक्त राष्ट्र बालकोष (यूनिसेफ) की एक रपट के मुताबिक़ एक पंजाबी घर में गर्भ से पांच साल तक की लड़कियों के मौत की आशंका लड़कों की तुलना में दस फ़ीसद ज़्यादा है. दिल्ली पुलिस की एक रपट के मुताबिक़ राजधानी दिल्ली की झुग्गी-झोपडी बस्तियों में भी कन्या -भ्रूणों की ह्त्या की दर ज़्यादा है.
उल्लेखनीय है, प्रसव पूर्व लिंग जांच निरोधक अधिनियम - १९९४ के तहत भ्रूण की लिंग जांच के लिई 'अल्ट्रासोनोग्राफी एमिनोसेंटेसिस' जैसी तकनीक का इस्तेमाल और लिंग संबंधी कोई भी जानकारी देने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है. इस बीच राष्ट्रीय महिला आयोग ने भ्रूण जांच के तौर-तरीक़े बतानेवाली अमेरिकी वेबसाईट पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की है.
जाहिर है, पुरुषसत्तात्मक मुल्क़ों में औरत-मर्द अनुपात को संतुलित करने के लिए यह ज़रूरी है. इसमें सरकार और क़ानून की भूमिका महत्वपूर्ण होगी. साथ ही, जनजागरूकता के लिए मीडिया और स्वयंसेवी संस्थाओं को भी सक्रिय भूमिका निभानी होगी.
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