मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग...!!!

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
"तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
......................................................
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा  
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग"

साथियो, 
आज है 13 फरवरी 2011. ठीक सौ बरस पहले आज ही के दिन अविभाजित भारत के सियालकोट जिले के कालाकादर गाँव में पैदा हुआ था एक ऐसा बालक, जिसे आज दुनिया फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के नाम से जानती है. फ़ैज़ साहब  की यौम-ए-पैदाइश पर उनसे जुडे संस्मरण पेश कर रहे हैं - डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी 

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को पहली बार मैंने तब देखा था जब सज्ज़ाद जहीर की लंदन में मौत हो गई थी और वे उनकी लाश को लेकर हिंदुस्तान आए थे, लेकिन उनसे बाक़ायदा तब मिला था जब मैं प्रगतिशील लेखक संघ का सचिव था। यह इमरजेंसी के बाद की बात है। उन दिनों मैं ख़ूब भ्रमण करता था। बड़े-बड़े लेखकों से मिलना होता था।

फ़ैज़ साहब से मैंने हाथ मिलाया। बड़ी नरम हथेलियां थीं उनकी। फिर एक मीटिंग में प्रगतिशील साहित्य को लोकप्रिय बनाने की बात चल रही थी। मैंने फ़ैज़ साहब से पूछा कि आप इतना घूमते हैं, लेकिन हर जगह अंग्रेजी में स्पीच देते हैं, ऐसे में हिंदुस्तान और पाकिस्तान में हिंदी-उर्दू के प्रगतिशील साहित्य का प्रचार कैसे होगा?

फ़ैज़ साहब ने कहा,‘‘इंटरनेशनल मंचों पर अंग्रेजी में बोलने की मज़बूरी होती है, लेकिन आपलोगों का कम से कम उतना काम तो कीजिए जितना हमने अपनी ज़ुबान के लिए किया है।’’  उसके बाद उनसे मेरा कई बार मिलना हुआ।

फ़ैज़ साहब के बारे में
ये एक बात बहुत कम लोग जानते हैं। उसे प्रचारित नहीं किया गया। जब गांधीजी की हत्या हुई थी तब फ़ैज़ साहब "पाकिस्तान टाइम्स" के संपादक थे। गांधीजी की ’शवयात्रा में शरीक होने वे वहां से आए थे चार्टर्ड प्लेन से। और जो संपादकीय उन्होंने लिखा था मेरी चले तो में उसकी लाखों-करोड़ों प्रतियां लोगों में बांटूं।

गांधीजी के व्यक्तित्व का बहुत उचित एतिहासिक मूल्यांकन करते हुए शायद ही कोई दूसरा संपादकीय लिखा गया होगा। फ़ैज़ साहब ने लिखा था- ‘‘अपनी मिल्लत और अपनी कौम के लिए शहीद होनेवाले हीरो तो इतिहास में बहुत हुए हैं लेकिन जिस मिललत से अपनी मिल्लत का झगड़ा हो रहा है और जिस मुल्क़ से अपने मुल्क़ की लड़ाई हो रही है, उस पर शहीद होनेवाले गांधीजी अकेले थे।

पार्टीशन के बाद उन दिनों पाकिस्तान से लड़ाई चल रही थी और गांधीजी ख़ुद बड़े गर्व से हिंदू कहते थे। लेकिन यह इतिहास की विडंबना है कि नाथूराम गोडसे ने सेकुलर पंडित नेहरू को नहीं मारा, राम का भजन गानेवाले गांधीजी को मारा। आज भी नरेन्द्र  मोदी पटेल का नाम बार-बार लेते हैं लेकिन नरसी मेहता का नाम कभी नहीं लेते।

पाकिस्तान बनने के बाद फ़ैज़ साहब जब भी हिंदुस्तान आते थे तो नेहरू जी उन्हें अपने यहां बुलाते थे और उनकी कविताएं सुनते थे। विजय लक्ष्मी पंडित और इंदिरा जी भी सुनती थीं। दरअसल नेहरूजी कवियों और शायरों की क़द्र करते थे। नेहरू जी ने लिखा था- "ज़िन्दगी उतनी ही ख़ूबसूरत होनी चाहिए जितनी कविता।"

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ उर्दू में प्रगतिशील कवियों में सबसे प्रसिद्ध कवि हैं। जोश, जिगर और फ़िराक के बाद की पीढ़ी के कवियों में वे सबसे लोकप्रिय थे। उन्हें नोबेल प्राइज को छोड़कर साहित्य जगत का बड़े से बड़ा सम्मान और पुरस्कार मिला।

फ़ैज़ साहब
मूलत: अंगेजी के अध्यापक थे। पंजाबी थे। लेकिन उन कवियों में थे जिन्होने अपने विचारों के लिए अग्नि-परीक्षा भी दी। मशहूर रावलपिंडी षडयंत्र केस के वे आरोपी थे। सज्ज़ाद जहीर और फ़ैज़ साहब पर पाकिस्तान में मुक+दमा चलाया गया था। उन्हें कोई भी सज़ा हो सकती थी। वे बहुत दिन जेल में रहे।

उनके एक काव्य संकलन
का नाम है- ‘ज़िन्दांनामा।’  इसका मतलब होता है कारागार। अयूब शाही के ज़माने में उन्होंने सीधी विद्रोहात्मक कविताएं लिखीं। उन्होंने मजदूरों के जुलूसों में गाए जानेवाले कई गीत लिखे जो आज भी प्रसिद्ध हैं।

मसलन- ‘‘एक मुल्क नहीं, दो मुल्क नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे।’’  या ‘‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे, जब जुल्मोसितम के कोहे गिरा, रूई की तरह उड़ जाएंगे, हम महकूमों के पांव तले ये धरती धड़-धड़ धड़केगी और अहले हकम के सर ऊपर जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी.............सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख़्त गिराए जाएंगे, हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे।’’

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की इस चर्चित नज़्म को पिछले दिनों टेलिविजन पर सुनने का मौक़ा मिला। इसे पाकिस्तान की गायिका इकबाल बानो ने बेहद ख़ूबसूरती से गाया है।

फ़ैज़ प्रेम और जागरण के भी कवि हैं। उर्दू-फारसी की काव्य परंपरा के प्रतीकों का वे ऐसा उपभोग करते हैं जिससे उनकी प्रगतिशील कविता एक पारंपरिक ढांचे में ढल जाती है और जो नई बातें हैं वे भी लय में समन्वित हो जाती हैं।

फ़ैज़ साहब ने कई प्रतीकों के अर्थ बदले हैं जैसे उनकी एक प्ररंभिक कविता "रकीब से" है। रकीब प्रेम में प्रतिद्वंद्वी को कहा जाता है। उन्होंने लिखा कि अपनी प्रमिका के रूप् से मैं कितना प्रभवित हूं ये मेरा रकीब जानता है। उन्होंन लिखा- ‘‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग।’’

इतना ही नहीं उन्होंने लिखा- ‘‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा। राहते और भी वस्ल है राहत के सिवा।’’ और लेखकों के लिए उन्होंने लिखा- ‘‘माता-ए-लौह कलम छिन गई तो क्या ग़म है। कि खून -ए-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंनें।’’ 

इसी तरह अयूब शाही के दिनों में लिखी उनकी एक मशहूर नज़्म  है- ‘‘निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन कि जहां। चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले। जो काई चाहनेवाला तवाफ को निकले। नज़र चुरा के चले जामा ओ जां बचा के चले।’’ 

दरअसल फ़ैज़ में जो क्रांति है उसे उन्होंने एक इश्किया जामा पहना दिया है। उनकी कविताएं क्रांति की भी कविताएं हैं और सरस कविताएं हैं। सबसे बड़ा कमाल यह है कि उनकी कविताओं में सामाजिक-आर्थिक पराधीनता की यातना और स्वातंत्रय की कल्पना का जो उल्लास होता है, वो सब मौजूद हैं।

फ़ैज़ की कविताओं में संगीतात्मकता, गेयता बहुत है। मैं समझता हूं कि जिगर मुरादाबादी, जो मूलत: रीतिकालीन भावबोध के कवि थे, में आशिकी का जितना तत्व है, बहुत कुछ वैसा ही तत्व अगर किसी प्रगतिशील कवि में है तो फ़ैज़ में है। उनकी सर्वाधिक लाकप्रिय और संगीतात्मकता की दृस्टि से बहुत उत्कृस्ट है, जिसे मेहदी हसन ने गाया है- ‘‘गुलों में रंग भरे वाद-ए-नौ बहार चले। चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले।’’  भाषा में ऐसे जो अन्वय होते हैं वे कविता को एक नया अर्थ देते हैं। बड़ा ही नाज़ुक अर्थ है इसमें। बड़ी याचना है।

फ़ैज़ की दो और ख़ासियतें हैं- एक,  व्यंग्य वे कम करते हैं लेकिन जब करते हैं तो उसे बहुत गहरा कर देते हैं। जैसे- शेख साहब से रस्मोराह न की, शुक्र  है ज़िन्दगी तबाह न की।’’  और दूसरी बात,  फ़ैज़ रूमान  के कवि हैं। अपने भावबोध को सकर्मक रूप प्रदान करनेवाले कवि हैं लकिन क्रांति तो सफल नहीं हुई। ऐसे में जो क्रांतिकारी कवि हैं वे निराश होकर बैठ जाते हैं। कई तो आत्महत्या कर लेते हैं और कई ज़माने को गालियाँ देते हैं।

फ़ैज़ वैसे नहीं हैं। फ़ैज़ में राजनीतिक असफलता से भी कहीं ज़्यादा अपनी कविता को मार्मिकता प्रदान की है। उनका एक शेर है-  ‘‘करो कुज जबी पे सर-ए-कफ़न,  मेरे क़ातिलों को गुमां न हो। कि गुरूर इश्क  का बांकपन, पसेमर्ग हमने भुला दिया।’’  अर्थात कफ़न में लिपटे हुए मेरे शरीर के माथे पर टोपी थोड़ी तिरछी कर दो,  इसलिए कि मेरी हत्या करनेवालों का यह भस्म नहीं होना चाहिए कि मरने के बाद मुझ में प्रेम के स्वाभिमान का बांकपन नहीं रह गया है।

यह ऐतिहासिक यातना की अभिव्यक्ति है। यह समाजवादी आंदोलन और समाजवादी चेतना की ऐतिहासिक अभिव्यक्ति है। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में ऐसी अनेक कविताएं बालकृष्ण शर्मा नवीन, निराला आदि कवियों ने लिखी थीं।

इसी भावबोध पर लिखी फ़ैज़ साहब की एक और नज़्म है, जो मुझे अभी याद नहीं है। एजाज़ अहमद ने उन पंक्तियों को अपने एक मशहूर लेख- ‘‘आज का माक्र्सवाद’’  में उद्धृत किया है, जिसका भाव है- हमने सोचा था कि हम दो-चार हाथ मारेंगे और यह नदी तैरकर पार कर लेंगे। लेकिन नदी में तैरते हुए पता चला कि कई ऐसी लहरें, धाराएं और भंवरें हैं जिनसे जूझने का तरीक़ा हमें नहीं आता था। अब हमें नए सिरे से नदी पार करनी होगी।

सो,  फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ केवल रूप, सौदर्य और प्रेरणा के ही कवि नहीं हैं बल्कि असफलताओ और वेदना के क्षणों में भी साथ खड़े रहनेवाले पंक्तियों के कवि हैं।

(डॉ. शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित. अमर उजाला, 2 अप्रैल 2010 में प्रकाशित)

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