हिन्दुस्तानी मीडिया में युद्धोन्माद और वर्चस्ववाद !

फ्रैंक हुज़ूर

मित्रो,

हिन्दू कॉलेज के सखा और मीडिया में सहकर्मी-दोस्त मनोज, जो अब वैधानिक रूप से फ्रैंक हुज़ूर बन गए हैं, ने हिन्दुस्तानी इलेक्ट्रौनिक मीडिया के युद्धोन्मादी, साम्प्रदायिक और गैर ज़रूरी पाक विरोधी प्रसारणों पर बेबाक टिप्पणी करती हुई अपनी यह पोस्ट साथियों के हवाले करने का हुक्म फरमाया है. यह लेख मीडिया, बाज़ार और लोकतंत्र पर केंद्रित 'समयांतर' के फरवरी 2011 अंक में प्रकाशित हुआ है.  फ्रैंक

 

अंग्रेजी के पत्रकार और लेखक हैं. उनकी लिखी क्रिकेटर इमरान खान की जीवनी, ‘इमरान वर्सेस इमरान : द अनटोल्ड स्टोरी’ जल्द ही आने वाली है. 
हुज़ूर की रिहाइश आजकल लन्दन है.
फ्रैंक से frankhuzur@rediffmail.com और  frankhuzur@live.co.uk पर संपर्क कर सकते हैं. - शशिकांत 

हिन्दुस्तानी मीडिया में युद्धोन्माद और वर्चस्ववाद !

फ्रैंक हुज़ूर 
 
वो 26 नवम्बर 2008 की ही शाम थी. दिल्ली और मुंबई के बाज़ारों में गहमागहमी अपने उफ़ान पर थी. लोगबाग अपनी-अपनी ज़िंदगी में मशगूल थे. मैं भी दिल्ली के पहाड़गंज में आवारागर्दी कर रहा था. एक दुकान पर गोल्डफ्लेक सिगरेट को जैसे ही मैने चिंगारी के हवाले किया, मेरी नज़र सामने लगे एक मशहूर न्यूज़ चैनल की ब्रेकिंग न्यूज़ पर थम गईं - "मुंबई पर पाकिस्तान का हमला"... "हत्या और दरिन्दगी का सिलसिला बदस्तूर जारी"... विजुअल्स मुंबई की लगातार वीरान हो रही सड़कों के थे. 

कुछ ही पल में कैमरा हेरिटेज होटल ताज की सुर्ख मीनारों पर फ्लैश डांस करने लगा. इस विचित्र और रहस्यमय मंज़र की हक़ीक़त वहां मौजूद लोगों को समझ नहीं आ रही थी. अचानक मदन कैफ़े के विदूषक बैरे रामसिंह ने ऐलान कर दिया, "आतंकवादी हमला." जैसे ही आतंकवादी शब्द रामसिंह के मुंह से बाहर आया, कुछ फिरंगी मेहमानों के हाथ से गरम चाय की प्याली छलकते-छलकते बची. मदन कैफ़े पहाड़गंज में विदेशी सैलानियों की गुफ़्तगू का एक ज़बरदस्त अड्डा है, जहां वे हिन्दुस्तान के हर कोने से जमा होते हैं और क़रीब के सस्ते होटलों में मस्ती करते हैं.

इंडिया टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज़ का आगाज़ करने वाला एंकर कोट और पतलून पहना हुआ था. अंग्रेजों की माफ़िक उसने अपनी छाती के ऊपर ख़ूबसूरत  फ़िरोज़ी रंग की टाई लहरा रखी थी. उसकी जबान ज़बान जैसे-जैसे ‘आतंकवाद, ज़ेहाद, इस्लाम और पाकिस्तान पर वार करती, उसकी आंखें और सूर्ख़ होती चली जातीं, चेहरा भयानक होता जाता.

भयानक सूरत
 और सुर्ख आँखों वाले कोट-पतलून पहने उस एंकर की आवाज़ एक चीख़ बनकर मेरे कानों पर हमला कर रही थी. रामसिंह के हाथ कांपने लगे थे. उससे कोई भी डिश परोसी नहीं जा रही थी. बीड़ी पे बीड़ी सुलगाए जा रहा था. मैंने अपनी नज़र दाएँ और बाएँ दौड़ाई तो क़रीब में जमा हुए राहगीरों में मैंने दो-तीन मुस्लिम चेहरों को न्यूज़ चैनल के विस्फोटक ब्रॉडकास्टिंग का दीदार करते हुए पाया.

हमले के आग
 उगलते धुएं ने कैफ़े  के बाहर एक लम्बी दाढ़ी वाले भगवाधारी साधू को भी भिनभिनाने के लिए उत्साहित कर दिया था. उसकी आवाज़ उस एंकर की तरह शैतानी कहकहा लगाने लगी. मुसलमान और पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करने और हर एक मुसलमान को चीर फाड़ देने का वो उचक-उचक कर ऐलान करने लगा. हमले के बमुश्किल एक घंटे भी नहीं बीते थे, मगर मुंबई के क़त्लेआम का मुजरिम पाकिस्तान और मुसलमान हर जबान पे साया हो चला था. ये जादू था उस कोट-पतलून पहने हुए एंकर का, जो अकेला नहीं था अपनी वहशत-ए-जंग में.

जब मेरी नज़र
अपने करीब दो मुसलमानों के चेहरे पे पड़ी तो उनके सूर्ख़ होंठ सफ़ेद पड़ चुके थे. आँखों से रौशनी ग़ायब थी. मैंने साफ़ महसूस किया कि उनके मन-मस्तिस्क से सुकून रफू चक्कर हो चला था. ऐसा लग रहा था जैसे वो क़साईख़ाने के बकरे हों और उनके दिल फड़क-फड़क दुआएं मांग रहे हों कि जल्दी से टीवी स्क्रीन पर नाच रहे दरिंदगी के विजुअल्स का इंतकाल हो जाए.

रामसिंह ने
 मासूमियत से लबरेज उन दोनों मुस्लिम लड़कों की बुझी-बुझी आँखों में बड़े एहतराम से झाँका और चाय की चुस्की लेने का इशारा किया. तभी मैंने देखा कि भगवा कुरता पहने साधू ने बमुश्किल चार फुट के रामसिंह की कोहनियों पर जोर से धक्का दे मारा, ” कैसा हिन्दू है तू राम सिंह, दुश्मन-आतंकवादी को चाय पिला रहा है?” ज़लज़ला एक हज़ार मील दूर अरब सागर के किनारे बसे हिंदुस्तान के चमचमाते शहर मुंबई में आया था मगर इसकी गूंज का असर मदन कैफ़े के रामसिंह से लेकर मैडम सोनिया गाँधी तक देखा जा सकता था.

इंडिया टीवी
 के एंकर की आवाज़ बदले के ज़ोश से सराबोर थी. उसके लिए पाकिस्तान का मतलब वो जगह थी जहां-जहाँ गुसल फ़रमाए जाने के अलावा और कोई काम नहीं हो सकता, एक चौड़ी-उथली नाली जिसके पानी में दहशतदर्गी का झाग मिला हो. मदन कैफ़े के हाक़िम, जिसे बंटी भैया कहते है, ने अपने टीवी के  रिमोट कंट्रोल को मोबाइल की माफ़िक  दबाना शुरू किया और एक के बाद एक सभी हिंदी और अंग्रेज़ी  ख़बरिया चैनलों पर दनादन चल रहे इस दहशतगर्दी के दर्दनाक सर्कस का लुत्फ़ उठाने लगा. “जब हमारी माओं, बहनों और भाइयों को खून में नहलाया जा रहा हो तो ...” एक अज़ीब-सी नफ़रत भरी यह आवाज़ एक न्यूज़ चैनल पर हिन्दू परिषद के किसी कारकून की थी.

ख़बरिया चैनलों के बीच
गलाकाट प्रतिस्पर्धा अपने उरूज पर थी. पाश्चात्य लिबासों में करन जौहर के क्रॉसओवर सिनेमा के चरित्र लग रहे एंकर लोग 'गर्द ही गर्द', 'खून ही खून', 'पाकिस्तान', 'लश्कर' और 'ज़ेहाद' जैसे शब्दों की चीख-चीख कर हर गली, बाज़ार और शहर को पैट्रियट (देशभक्त) बनाने पर तुले हुए थे. ये प्लास्टिक पैट्रियोटिज्म की हुंकारी थी. जो भी इससे बचने की कोशिश करेगा उसे 'देशद्रोही' करार दिया जाएगा. युद्धोन्माद (जिन्गोइस्म) कोट और पतलून पहने सैकड़ों एंकरों की आवाज़ों को चीखों में बदल दिया था. युद्धोन्माद का यह सिलसिला उतना है जितनी दहशतगर्दी.

एडवर्ड लोयूईस बार्नेस
 को पब्लिक रिलेसंस का भीष्म पितामह कहा जाता है. बार्नेस फ्रॉयड की बहन का बेटा था. पहले विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिकी अवाम के अवचेतन में युद्धोन्माद भड़काने का ज़िम्मा बार्नेस के हाथों में सौपा गया था. बार्नेस भीड़ मनोवृत्ति (हर्ड इंस्टिंक्ट) को प्रोपगंडा के तहत काबू में रखना अहम मानता था. उसकी नज़र में जम्हूरियत में जनता के विचारों में जोड़-तोड़ ज़रूरी है.


ऑस्ट्रलियन विद्वान
 जॉन पिल्गर ने शिकागो में दिए एक व्याख्यान में कहा कि प्रोपेगंडा करने वाला मीडिया एक अदृश्य सरकार (इनविज़िबल गवर्नमेंट) का प्रतिनिधि है. पिल्गर ने बार्नेस के विचारों को पब्लिक रिलेसंस की बाइबल गोस्पेल की माफ़िक बताया और यह भी कहा कि ‘अदृश्य सरकार’ वास्तव में असली हुकूमत है. क़रीब अस्सी साल पहले बार्नेस अपनी बात अमेरिकी अवाम पर गाहे-बगाहे लाद रहा था. एक तरह से यही कॉर्पोरेट जर्नलिज्म का बीजारोपण भी था.

बार्नेस ने
 सन 1965 में अपनी आत्मकथा प्रकाशित की. वो एक जगह लिखता है कि कार्ल वन विगंद हर्स्ट अख़बार का विदेश संवाददाता था. वो मुझसे गोएबल्स के नाज़ी प्रोपेगंडा के मुतालिक़ बहस कर रहा था. गोएबल्स ने कार्ल विगंद की किताब क्रिस्टलाइजिंग पब्लिक ओपिनियन से प्रेरणा लेने की बात कुबूली.

उसने लिखा है कि
 नाज़ी सत्ता को अबेध बनाने में और यहूदियों के खिलाफ़ अभियान चलाने में इस किताब का असर था. गोएबल्स ने विगंद को अपनी प्रोपेगंडा लायब्रेरी भी दिखाई. यह देखकर विगंद  खौफ़ज़दा हो गया था. उसके मुताबिक़ यहूदियों पर हमला किसी ‘भावना का विस्फ़ोट’ नहीं बल्कि नाज़ियों की एक सोची-समझी रणनीति थी.

एक अमेरिकी आलोचक
 मर्लिन पिएयेव ने बार्नेस को ‘ यंग मैकियावेली ऑफ़ आवर टाइम” कहा था. ये ख़िताब हिंदुस्तान के ख़बरिया चैनलों के सिपहसालारों पर ख़ूब जमता है.

भारत में ख़बरिया चैनलों का कॉरपोरेट चेहरा 1993 में बेपर्दा हुआ जब एक चावल के धंधे से  ख़बरों के सौदागर बने सुभाष चन्द्र गोयल ने जी न्यूज़ का आगाज़ किया. ये दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराने के ठीक बाद का वक़्त था. जब पूरा मुल्क मज़हबी हत्याओं और लूट-मार के तांडव से जंग लड़ रहा था. जी न्यूज़ के हाक़िम को नाज़ी प्रोपगंडा और विचारों से सरोकार रखने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविरों में सफ़ेद कमीज़ और ख़ाकी हाफ़ पैंट में सलामी ठोंकते देखा जाता रहा है.

इस तरह
आज़ाद हिंदुस्तान में चौबीस घंटे के न्यूज़ चैनल की शुरुआत करने वाला संघ की भेदभाव वाली राजनीति पर भरोसा करने वाला शख़्स था. आप इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की टीवी मीडिया में सीधे दख़ल के तौर पर भी देख सकते हैं. ज़ी न्यूज़ ने ख़बरों को साम्प्रदायिक बनाने की जो नींव रखी वो आज कमोबेश हर टेलीविजन चैनल पर जारी है.

टेलीविजन चैनलों की रिपोर्टिंग में बार-बार धार्मिक पूर्वाग्रह दिखते रहे हैं. मुंबई धमाकों की रिपोर्टिंग के वक़्त भी ये बात खुलकर सामने आई. इसने समाज का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पहले से ही पाकिस्तानी ख़ुफिया एंजेंसी आईएसआई ने अपनी करतूतों से हिन्दुस्तान के मुसलमानों को मुश्किल में डाल रखा था. 


इस घटना के बाद माफ़िया डॉन दाऊद इब्राहीम के रास्तों पर चलते हुए मीडिया के अंडरवर्ल्ड में भी हिंदू बनाम मुसलमान की खाई दिखाई देने लगी. इस्लाम को आतंक का पर्याय बनाकर पेश करने का चलत बढ़ता ही गया. ठीक इसी तरह आतंकवाद का खौफ़ दिखाकर अमेरिकी मीडिया पहले ही अपना धंधा चमका चुका था.

भारतीय मीडिया भी
 उसी के नक्शे कदम पर चल निकला. सुभाष चंद्र गोयल की विचारधारा यहां हर तरफ़ थी, जिनको पाकिस्तान, तालिबान, लश्कर, ज़ेहादी इस्लाम के अलावा और किसी दुश्मन से देश की संस्कृति और परंपरा को ख़तरा नज़र नहीं आता. उन्हीं लोगों ने गुजरात होलोकास्ट के बाद नरेन्द्र मोदी को 'विकास पुरुष'  का होलोग्राम देने में कसर नहीं छोड़ी.

जिस तरफ नज़र डालता हूँ
 अँधेरा ही अँधेरा नज़र आता हैं. हमारे शाइनिंग मीडिया के साहबज़ादों के ऐसे लक्षण हैं कि पाकिस्तान और दहशतगर्दी की ख़बरों को पेश करते वक़्त वो अपने विवेक से मरहूम मालूम पड़ते हैं और अलक़ायदा के वहाबी टेररिस्ट की कब्र पर फातिहा एक हिंदुत्ववादी वहाबी की तरह पढ़ते हैं. वतनपरस्ती की ये आग सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान को ही लेकर उफ़ान पे सैलाब की तरह इन्हें क्यों चपेट में ले लेती है?

इतनी बेचैनी
देशवाशियों के दिलो-दिमाग़ पर अमेरिका और चीन के काले मंसूबों को लेकर क्यों नहीं चीख-चीख कर बताई जाती है? युनियन कार्बाइड  ने भोपाल में जो आतंक मचाया उसका खामियाज़ा लाखों लोग भुगत रहे हैं, फिर भी वारेन एंडरसन और अमेरिका के लिए हमारे दिल में कारपोरेट मीडिया के दीवानख़ाने ने नफ़रत के क़त्बे क्यों नहीं बनाए?

इस खिसिआनी हँसी के ब्रॉडकास्टिंग को लेकर टीआरपी के ख़तरनाक खेल ने मीडिया के अपने  अख़लाक़ को ही गिराया है. उन करोड़ों लोगों, जिनके बड़ों के कब्रिस्तान हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बंटकर बिखर चुके हैं, हमारी मीडिया ने उनकी आस्था में सिर्फ ख़लल ही नहीं डाला है बल्कि ज़हर घोलने का ज़ुर्म किया हैं. जो ख़ानदान एक जगह जिया, एक जगह मरा अब उसकी कब्र तीन कब्रिस्तानों में बंटी हुईं है.

ये बात दुरुस्त है कि हमारे मुल्क़ में पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसी आईएसआई ने दहशतगर्दी की बीज बोई है और इसकी बुनियाद को नेस्तनाबूद करने की जंग चलती रहेगी. मगर इस जंग को हम एक मज़हबी लिबास पहनाकर आख़िर कब तक ‘कुफ्रिस्तान और क़ब्रिस्तान’ करार देते रहेंगे?

कारगिल लड़ाई को
 जिस तरह मीडिया ने हमारी आँखों में बसाया उसने भी राष्ट्रवाद का परचम लहराने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वहां मारे गए नौजवानों के ताबूत में घोटाला कर लोग मलाई खाते रहे. उनकी  क़ुर्बानी को तिरंगे में लपेटकर वोट का ख़ूब खेल हुआ. 


एक जांबाज़ जवान की ज़िन्दगी को कुर्बान कर बार्नेस की प्रयोगशाला से बरखा दत्त जैसी मॉडल महिला पत्रकार अवतरित हुईं जिन्होंने कॉर्पोरेट मीडिया को राडिया जैसे फ़नकारों और हुकूमत के सिकंदरों को मिलाकर नई मिसाल पेश की. यह ख़बरिया महाकुम्भ ऐसा चला आ रहा है, जहां अलगाव ज़्यादा है और जुड़ाव कम. इसमें परंपरा, धर्म, संस्कृति और वतनपरस्ती के मायने गढ़ने का हक सिर्फ़ कुछ दक्षिणपंथी पत्रकारों को ही हासिल है.

सन 1928 में
 एडवर्ड बार्नेस ने अपनी मशहूर किताब "प्रोपगंडा" में लिखा है, "लोगों के विचारों की दुनिया को तहस-नहस कर उसे एक ख़ास शक्ल देना जम्हूरियत का तकाज़ा होना चाहिए. लोगों की संगठित आदतों और विचारों में सचेत और होशियारी से जोड़तोड़ करना (कॉन्शियस एंड इन्टेलिजेंट मेन्यूपुलेशन)  ज़रूरी है. जो लोग इसे करने में क़ामयाब होते हैं वही असली हुकूमत करते हैं."

निजी टेलीविजन चैनलों के
 न होने की वजह से बाबरी मस्जिद विध्वंस का लाइव प्रसारण नहीं हुआ था. मगर 30 सितम्बर 2010 को जब इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने फैसला सुनाने का दिन  मुक़र्रर किया तो ख़बरिया चैनलों ने बड़े धड़ल्ले से प्रसारण कर ख़ुद को देशभक्त और सुसंस्कृत होने का परिचय दिया.

फैसला आने से पहले
  क़रीब पूरे महीने सन 1990-92 के आडवाणी की रथयात्रा की उत्पाती फूटेज गरिमामयी अंदाज़ में दिखायी गई. इस तरह मीडिया ने लोगों के मन-मस्तिस्क में लगातार ड्रिल करने की कवायद जारी रखी कि आडवाणी और उनकी चौकड़ी ने राम राज्य के वास्ते मंदिर बनाने के लिए देशव्यापी “आन्दोलन” किस तरह छेड़ा था.

युद्धोन्मादी और वर्चस्वादी
मीडिया के कारसेवक बॉलीवुड की रिपोर्टिंग में भी नज़र आते हैं. नई शताब्दी के आरम्भ में शाहरुख़ ख़ान की लोकप्रियता को टक्कर देने के लिए ऋतिक रोशन को हिन्दू ह्रदय सम्राट की तरह पेश करने की कोशिश की गई. बाल ठाकरे को इस विभाजित करने वाली विचारधारा को तो हवा देनी ही थी. उनकी चीख दक्षिणपंथी मीडिया के लिए टॉप न्यूज़ आइटम में ऐसे ही शामिल नहीं होती है. 


सदी के महानायक का तिलस्मी तगमा लिए हिन्दू धर्मस्थलों की सैर करनेवाले अमिताभ बच्चन को मीडिया कार्निवल के अंदाज़ में प्रचारित करता है. अमिताभ नस्ली नरसंहार के केवट नरेन्द्र मोदी के वाइब्रेंट गुजरात के ब्रांड एंबेसडर होने के साथ ही देश के धनवंत मंदिरों के भी राजदूत हैं.

ख़बरिया चैनलों को
 ठंडा गोश्त परोसने से कोफ़्त होती है. लोगों की निगाहें स्क्रीन पर जमी रहें इसके लिए उन्हें सुपर ग्लू वाली ख़बरों की तलाश होती है. वो गर्मी उन ख़बरों में कैसे आ सकती है जो मालेगांव धमाकों में हिंदू आतंकवादियों पर सवाल उठाए. तब मासूम मुसलमानों को जेल में ठूंस कर उन्हें दहशतगर्द बना दिया गया था लेकिन बाद में असली मुज़रिम हिंदुत्व के सिपहसलार निकले.


ठीक उसी तरह
 जिस तरह न्यूयॉर्क टाइम्स के पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता जुडिथ मिलर ने किया था. मिलर ने बेहद मासूमियत से लिखा की सद्दाम हुसैन के  ज़खीरे में विध्वंसक हथियार हैं. मिलर की रिपोर्ट को बुश ने अमेरिकी अवाम के सामने लहराते हुए कहा था कि हम किस वक़्त का इंतज़ार कर रहे हैं, चलते हैं न सद्दाम के बग़दाद में बेसबॉल खेलने.

26 नवम्बर को
 पाकिस्तानी दहशतगर्दी की रिपोर्टिंग ने यकीन दिला दिया है कि जितना जोर से चिल्लाया जाएगा, दर्शकों को उतना ही ज्यादा लुत्फ़ और मज़ा आएगा. उन्होंने जो तड़का लगाया उससे प्राइम टाइम पर युद्धोन्मादी ख़बरों के प्रसारण से दस  फ़ीसदी की उछाल दर्ज़ की गई. इस तरह मीडिया ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध का माहौल बनाने में पूरी भूमिका निभाई.

पाकिस्तानी क्रिकेटर इमरान खान की जीवनी लिखने के सिलसिले में मुझे वहां के मीडिया को क़रीब से जानने का अवसर मिला. जिओ टीवी के एंकर हामिद मीर ने मुझसे एक बार पूछा, "हिन्दुस्तानी मीडिया पाकिस्तान में दहशतगर्दी के अलावा कोई और चीज़ क्यों नहीं देखना चाहता? हामिद का कहना था कि आपका मीडिया क्यों हिदुस्तानियों को अक्सर पाकिस्तान से जंग के लिए भड़काता रहता है. हमारा मीडिया तो ऐसा नहीं करता." मेरे पास जवाब तो कई थे मगर मैं मुस्कुराने के अलावा क्या कर सकता था.

पिछले साल
 अगस्त में पाकिस्तान ने सदी की सबसे भयानक बाढ़ झेली, जब उनके तीन करोड़ की अवाम बेघर हो गई और हज़ारों लड़के-लड़कियों को लश्कर-ए-तयबा के दहशतगर्दों ने अगवा कर लिया. पाकिस्तान के मीडिया ने इस ख़बर को दबाने की कोशिश नहीं की कि मासूम हिन्दू और ईसाई लड़के-लड़कियों को सैलाबग्रस्त इलाकों से अगवा किया जा रहा है. 


तब इस तरह की दिल दहला देने वाली पाकिस्तानी ख़बरों पर हमारे मीडिया की नज़र क्यों नहीं पड़ी? फिर मुझे ऐसा लगा जैसे पाकिस्तानी मीडिया को कश्मीर और बॉलीवुड की ख़बरों के अलावा बाकी हिंदुस्तान की ख़बरों में दिलचस्पी नहीं है, ठीक उसी तरह जैसे हमारे कॉर्पोरेट मीडिया को भी  हाफ़िज़ सईद, तालिबान और अजमल क़साब की नर्सरी आईएसआई के अलावा किसी और पाकिस्तानी चीज़ में मज़ा नहीं आता है.

पाकिस्तानी मीडिया में हिंदुस्तान को लेकर युद्धोन्मादी ऑब्सेशन मैंने उतना नहीं देखा. अक्टूबर 2009 में मैं पाकिस्तान के दौरे पर था वहां तहरीक़ -ए-तालिबान ने दहशतगर्दी फ़ैला रखी थी. ठीक उसी दरमियान हिंदुस्तान में भी विद्रोह तेज़ हो रहा था. तब मैंने जीओ टीवी के एंकर कामरान खान के शो में माओवादी हमले की ख़बर को देखा- “नाज़रीन, सिर्फ आपका मुल्क़ ही वॉयलेंस की चपेट में नहीं है, पड़ोस में भी हिंदुस्तान की सिक्यूरिटी फोर्सेस को माओवादी इन्सर्ज़ेंसी से जूझना पड़ रहा है.”

कामरान खान की
 रिपोर्ट में मैंने हिन्दुस्तान को लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं देखा. जिस भी जवान शख्स से मेरी लाहौर और इस्लामाबाद की सड़कों और गलियों में मुलाक़ात होती, ये जानते ही कि मैं हिंदुस्तान से तसरीफ  लाया हूँ वो थोड़े वक़्त के लिए हैरान होते, फिर फ़ौरन कहते, "कोई तकलीफ तो नहीं आपको? भाई, आपकी खैरियत हमारे अमानत की तरह है. हम भी हिंदुस्तान जाना चाहते हैं. हमारे बहुत सारे दोस्त हैं फेसबुक पर, ऑरकुट पर. हमने शाहरुख खान और ऐश्वर्या राय की सारी फिल्में देखने का खूब शौक़ है. मगर आपकी हुकुमत हम सब नौजवानों को दहशतगर्द समझती है और वीसा ही नहीं देती. क्या हम सचिन तेंदुलकर के दीवाने आपको दहशतगर्द नज़र आतें है?”

कुछ ऐसी ही जबान में
 अपनी तड़प को रफ़ीक जां ने भी बयां किया था ज़ब मैं उनसे इमरान खान के पार्टी, तहरीक़-ए-इन्साफ़  के इस्लामाबाद दफ़्तर में मिला था. रफ़ीक पेशावर के पठान हैं और तेंदुलकर के कवर और अस्क्वैर लेग के बीच से चीरते हुए बुलेट शॉट के मुरीद हैं.

रफ़ीक और न जाने
 कितने रफ़ीक से मेरी गुफ़्तगू ज़ब भी होती मैं दिल ही दिल उनकी बातों को अपने हिन्दुस्तानी दोस्तों और साथियों की पाकिस्तान को लेकर जो अज़ीज ख़याल हैं उसके बारे में सोचता. कौन हिन्दुस्तानी सिर्फ सैर-सपाटे के लिए भी पाकिस्तान जाना चाहता है? कोई सिरफिरा ही लगता है जो वाघा बोर्डर के उस पार जाने की जुर्रत करे. जो नफ़रत का गुसलख़ानी ख़याल शरहद के उस पार के लोगों के लिए हमारे शहरों और गाँव में गढ़ा गया है उसमें पाकिस्तान के आईएसआई का जितना हाथ है उतना ही हाथ हमारी मदमस्त कारपोरेट मीडिया का भी है.


अंधेरों के समुंदर के बीच
 में ‘अमन की आशा’ की जो अलख टाइम्स ऑफ इंडिया और जंग ग्रुप ऑफ़ पेपर्स पाकिस्तान ने जगाई है, उससे थोड़ी तसल्ली ज़रूर होती है. मगर ये नफ़रत के नखलिस्तान के बीच में ओएसिस की तरह ही है. हम कब तक दीवारों की ऊँचाई सरहदों पर और लम्बी करते चले जाएंगे?

हिंदुस्तान और पाकिस्तान की मीडिया में एक समानता ज़रूर दिखाई दे रही है पिछले कुछ सालों से और वो है दक्षिणपंथ की तरफ खुलूसी झुकाव. ये वही क़ातिलाना टिल्ट है जिसने सलमान तासीर जैसे खुले विचारों वाले लिबरल सियासतदां  को मौत के घाट उतार गयी. जब से सलमान तासीर ने काले ब्लासफेमी लव के  खिलाफ़   मोर्चा खोला तभी से पाकिस्तान के मीडिया ने मज़हबी लीडरान के भड़काने वाले बयान ब्रॉडकास्ट करने का आगाज़ किया. देओबंदी और वहाबी इस्लाम के ये ठेकेदार एक तरह से खुले सुपारी दे रहे थे तासीर की ज़िन्दगी की. ठीक उसी तरह जिस तरह हमारी मीडिया आरएसएस के लीडरान को.


इसी दक्षिणपंथी मीडिया के
खौफ़ ने तासीर को मौत के बाद भी विलेन बना दिया और इसी तरह की मानसिकता वाली हमारी मीडिया ने बाल ठाकरे, उमा भारती, लालकृष्ण आडवाणी, नरेन्द्र मोदी, प्रवीण तोगड़िया जैसों को हमारे देश का मुस्तकबिल सँवारने का ठेका दे रखा है. 


अल्लामा इकबाल के ग्रेट ग्रैंड सन नदीम इकबाल ने मुझसे पिछले अक्टूबर इस्लामाबाद में कहा था, "हमारे पुरे खित्ते में – हिंदुस्तान-पाकिस्तान –  में हमारी मीडिया ने वतनपरस्ती का एक प्लास्टिक मॉडल विकसित किया है और उसे वो ऑर्गेनिक फार्म के एक नो-साइड इफेक्ट वाले प्रोडक्ट की तरह प्राइम टाइम पर बेचती है. ये प्लास्टिक पेट्रियोटिज्म ठीक उस चायनीज प्लास्टिक डौल या किसी इलेक्ट्रोनिक गजट की ही तरह है, क्योंकि ये अन्दर और बाहर दोनों  तरफ से खोखला है. हम इसे प्राइम टाइम पे साया करके “पोप पेट्रियोटिज्म’ बना देते हैं और हम सब इस ज़हरीले नशे में खो जाते हैं जैसे युवा दिल रेव  पार्टियों में."

मीडिया से रूबरू होते वक़्त
पाकिस्तानी प्रेसिडेंट आसिफ अली ज़रदारी ने 19 जनवरी 2009 को कहा था, "जर्नलिस्ट आर वर्स दैन टेररिस्ट.”  यूँ तो मीडिया को ज़रदारी साहेब से किसी सर्टिफ़िकेट की दरकार नहीं, मगर मीडिया को ये नसीहत बेनजीर भुट्टो के वीडोवेर से लेने में कोई नुकसान भी क्या है भला!

संदर्भ:

सैमुएल जांसन : पेट्रियोटिज्म इज द लास्ट रेफ़ुज ऑफ़ स्काउंड्रल्स,
 7 अप्रैल 1775, लन्दन
एडवर्ड लुईस बार्नेस(1927) : क्रिस्टलाइजिंग पब्लिक ओपिनियन, होरेस लीवरराइट पब्लिशिंग कॉर्पोरेशन, न्यूयॉर्क,
एडवर्ड लुईस बार्नेस (1928), होरेस लीवरराइट, न्यूयॉर्क
द प्रोपगंडा गेम : एडिटोरिअल इन
 1928 बी मर्लिन पीव
प्रोपगंडा : एडवर्ड लुईस बार्नेस
ISBN-10: 0970312598
दि प्रोपगंडा गेम : एडिटोरिअल इन 928 बी मर्लिन पीव

टिप्पणियाँ

  1. मैंने आपका पोस्ट पढ़ा लगा किसी कांग्रेस के लीडर का पोस्ट हहै
    जो एक सुर में हर समस्या का कारन हिन्दू लोगो को बता देते है
    सिंग्ले साइड कमेन्ट vote bank ke liye

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

हिन्दी भाषा और साहित्य 'क' (दिल्ली वि.वि. के बी.ए. प्रोग्राम, प्रथम वर्ष के उन विद्यार्थियों के लिए जिन्होंने 12वीं तक हिन्दी पढी है.) लेखक : डॉ शशि कुमार 'शशिकांत' / डॉ. मो. शब्बीर, हिंदी विभाग, मोतीलाल नेहरु कॉलेज, दिल्ली वि.वि., दिल्ली, भारत.

हिन्दी भाषा और साहित्य 'ख' (दिल्ली वि.वि. के बी.ए. प्रोग्राम, प्रथम वर्ष के उन विद्यार्थियों के लिए जिन्होंने 10वीं तक हिन्दी पढी है.) लेखक : डॉ शशि कुमार 'शशिकांत' / डॉ मो. शब्बीर, हिंदी विभाग, मोतीलाल नेहरु कॉलेज, दिल्ली वि.वि., दिल्ली, भारत.

चाहे दक्षिण, चाहे वाम, जनता को रोटी से काम: नागार्जुन