दिल की बुरी नहीं है वह औरत...!!!
"दिल की बुरी नहीं है वह औरत" शीर्षक से भाई विमल कुमार की एक बेहद संवेदनशील कविता पिछले सन्डे को 'दैनिक भास्कर' (रसरंग) में छपी है.
दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में स्त्री-पुरुष संबंधों में आए बदलाव की विडम्बना, आधुनिक अधिकार संपन्न और तथाकथित अहं के शिकार स्त्रीवाद का समकालीन यथार्थ तथा परम्परागत विश्वास और समर्पित प्रेम की आकांक्षा के द्वंद्व की त्रासदी को भलीभांति व्यक्त करती है यह कविता.
साथियों के लिए पेश है विमल जी की पठनीय कविता -
दिल की बुरी नहीं है वह औरत
लगता है, दिल की बुरी नहीं है
वह अकेली औरत
सुना है, सोती है वह
लगाकर चार तकिए अपने सीने से
चार बच्चों की तरह चिपकाकर
ख़्वाब ही ख़्वाब हैं
एक तकिए में उसके
पर ज़्यादातर गए हैं अब वे टूट
एक तकिए में जख्म हैं उसके
जो दिए हैं ज़माने ने उसे
एक तकिए में छिपे हैं
चाँद-तारे
एक तकिए में समुद्र
जो आंसुओं से बना है उसके
गुस्से में जब वह आ जाती है
कहती है बार-बार
नहीं बनाऊँगी तुमसे कोई रिश्ता
नहीं करूंगी किसी से कोई प्यार
बहुत दुःख देता है जीवन में प्रेम
पहले से अब वह ज़्यादा हो गया है
जटिल
करना यकीन किसी का
हो गया है अब मुश्किल
बहुत कर देखे हैं मैंने
भेड़ियों के चेहरे ज़हीन
कहता हूँ मैं उससे
है पास मेरे
विश्वास का तकिया एक
लगाकर तो देखो तुम सिर के नीचे
आ जाएगी तुम्हें बहुत सुन्दर नींद उसमें
पर कहती है वह बार-बार
नहीं लूंगी तुमसे वह कोई तकिया
बहुत सारे लेकर तकिए
देख लिए हैं मैंने
हर तकिए में छिपा
रूई की जगह धोखा
दिल की बुरी नहीं है वह औरत
लेकिन आ गया है ऐसा वक्त
कुछ मछलियों ने कर दिया है
सारे तालाब को गंदा
मैं हूँ कि नहीं जीत पा रहा हूँ
एक औरत का विश्वास इस शहर में
इससे बड़ी तकलीफ़
मेरे जीवन में
और क्या हो सकती है
जब आदमी का
उठ जाए किसी पर से विश्वास ही
पर कोई आप से हर बार मिले आप पर
अविश्वास करता हुआ
और मैं मिलूँ उससे हरदम डरता हुआ
दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में स्त्री-पुरुष संबंधों में आए बदलाव की विडम्बना, आधुनिक अधिकार संपन्न और तथाकथित अहं के शिकार स्त्रीवाद का समकालीन यथार्थ तथा परम्परागत विश्वास और समर्पित प्रेम की आकांक्षा के द्वंद्व की त्रासदी को भलीभांति व्यक्त करती है यह कविता.
साथियों के लिए पेश है विमल जी की पठनीय कविता -
दिल की बुरी नहीं है वह औरत
लगता है, दिल की बुरी नहीं है
वह अकेली औरत
सुना है, सोती है वह
लगाकर चार तकिए अपने सीने से
चार बच्चों की तरह चिपकाकर
ख़्वाब ही ख़्वाब हैं
एक तकिए में उसके
पर ज़्यादातर गए हैं अब वे टूट
एक तकिए में जख्म हैं उसके
जो दिए हैं ज़माने ने उसे
एक तकिए में छिपे हैं
चाँद-तारे
एक तकिए में समुद्र
जो आंसुओं से बना है उसके
गुस्से में जब वह आ जाती है
कहती है बार-बार
नहीं बनाऊँगी तुमसे कोई रिश्ता
नहीं करूंगी किसी से कोई प्यार
बहुत दुःख देता है जीवन में प्रेम
पहले से अब वह ज़्यादा हो गया है
जटिल
करना यकीन किसी का
हो गया है अब मुश्किल
बहुत कर देखे हैं मैंने
भेड़ियों के चेहरे ज़हीन
कहता हूँ मैं उससे
है पास मेरे
विश्वास का तकिया एक
लगाकर तो देखो तुम सिर के नीचे
आ जाएगी तुम्हें बहुत सुन्दर नींद उसमें
पर कहती है वह बार-बार
नहीं लूंगी तुमसे वह कोई तकिया
बहुत सारे लेकर तकिए
देख लिए हैं मैंने
हर तकिए में छिपा
रूई की जगह धोखा
दिल की बुरी नहीं है वह औरत
लेकिन आ गया है ऐसा वक्त
कुछ मछलियों ने कर दिया है
सारे तालाब को गंदा
मैं हूँ कि नहीं जीत पा रहा हूँ
एक औरत का विश्वास इस शहर में
इससे बड़ी तकलीफ़
मेरे जीवन में
और क्या हो सकती है
जब आदमी का
उठ जाए किसी पर से विश्वास ही
पर कोई आप से हर बार मिले आप पर
अविश्वास करता हुआ
और मैं मिलूँ उससे हरदम डरता हुआ
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पर कोई आप से हर बार मिले आप पर
जवाब देंहटाएंअविश्वास करता हुआ
और मैं मिलूँ उससे हरदम डरता हुआ
jivan ke kitne takiyon se haari naari ka kathy ...
कहता हूँ मैं उससे
जवाब देंहटाएंहै पास मेरे
विश्वास का तकिया एक
लगाकर तो देखो तुम सिर के नीचे
आ जाएगी तुम्हें बहुत सुन्दर नींद उसमें
बहुत ही गहरी अनुभूति
www.poetofindia.blogspot.com
ऐसे धोखेबाज़ लोगों से भरे समाज में अगर किसी का भरोसा
जवाब देंहटाएंमनुष्य मात्र से उठ जाये तो कोई आश्चर्य नहीं ! हालांकि यह
प्रवृत्ति किसी को एकांत में धकेल कर समाज से अलग-थलग कर देती है ,
इसलिए अपने -पराए की पहचान को रखते हुए समाज से जुड़ कर चलना होगा ,
क्रांतिकारी,सच्चे,ईमानदार लोगो की श्रंखला की कड़ी बनाना ही होगा !
हर तकिये से हार मिली...सम्पूर्ण समर्पिता होकर भी ...इससे बड़ी विडम्बना स्त्री के साथ और क्या होगी..
जवाब देंहटाएंसाभार
गीता पंडित .