आज पैसे की अहमियत बढ़ गई है : नासिरा शर्मा
मेरी पैदाइश सन अड़तालीस में इलाहाबाद में हुई। शुरुआती पड़ाई-लिखाई भी वही हुई, बीए तक। हमारे घर का माहौल ही कुछ ऐसा था जहां सभी लिखते-पढ़ते थे। लेकिन कौन लेखक बन जाएगा ऐसा कुछ नहीं का जा सकता।
जहां तक लिखने की बात है, तब मैं बहुत छोटी थी। अपने स्कूल के एक कॉम्पीटिशन में मैंने एक कहानी लिखी थी। फिर कॉलेज क मैगज़ीन में भी मेरी कहानियां प्रकाशित हुईं। लेकिन बड़े होकर मैंने 'बुतख़ाना' कहानी लिखी जिसे कमलेश्वर जी ने 'सारिका' के नवलेखन अंक में छापा।
अठारह साल की उम्र में मैंने मैरेज़ की और लंदन चली गई क़रीब तीन साल बाद वहां से वापस जेएनयू लौट आई। लेकिन एक लेखिका के तौर पर इलाहाबाद से कभी मरा कोई गुमान नहीं रहा। वहां उन दिनों बहुत बड़े-बड़े लेखक रहते थे लेकिन मैं कभी किसी से नहीं मिली।
अठारह साल की उम्र में मैंने मैरेज़ की और लंदन चली गई क़रीब तीन साल बाद वहां से वापस जेएनयू लौट आई। लेकिन एक लेखिका के तौर पर इलाहाबाद से कभी मरा कोई गुमान नहीं रहा। वहां उन दिनों बहुत बड़े-बड़े लेखक रहते थे लेकिन मैं कभी किसी से नहीं मिली।
मेरा पहला कहानी संग्रह ‘‘सामी काग़ज़’’1980 में स्रीपत राय जी ने छापा। उसके बाद ईरान पर मैंने बहुत लिखा। यह सच है कि वहां जाने से मेरी रायटिंग खिली। ज़ोरदार तरीक़े से लिखने की शुरुआत हुई जिसकी ख़ूब चर्चा भी हुई।
इधर जो हमारा काम हुआ है वो सब लगभग इलाहाबाद पर ही केंद्रित है। ‘‘अक्षयवट’’ उपन्यास में इलाहाबाद शहर तो समझो हीरो हो गया है। उसमें हां के तीन-चार इम्पोर्टेंट पात्र हैं- पुलिस, वकील, स्थानीय गुंडे वगैरह। उस उपन्यास में मैंने यह दिखलाने की कोशिश की है कि ये चारों मिलकर किस तरह वहां के पूरे सिस्टम को बिगाड़ रहे हैं।
दूसरा मेरा उपन्यास है ‘‘कुइयांजान’’ वो भी इलाहाबाद पर ही है। ज़ीरो रोड में मैंने दिखाया है कि इलाहाबाद का एक ग़रीब लड़का किस तरह कबूतरबाजों की गिरफ़्त में फंसकर दुबई जाता है और वहां के मकउ़जाल में फंस जाता है। ‘
‘पारिजात’’ में हमने दिखाया है कि कि आज किस तरह हमारे पूरे मुल्क में नफ़रत की दीवारें खड़ी की जा रही हैं। हमारे कल्चर कितने रिच थे। हमारे यहां गंगा-जमुनी तहज़ीब थी लेकिन आज कैसे उन्हें नेस्तनाबूद किया जा रहा है।
‘पारिजात’’ में हमने दिखाया है कि कि आज किस तरह हमारे पूरे मुल्क में नफ़रत की दीवारें खड़ी की जा रही हैं। हमारे कल्चर कितने रिच थे। हमारे यहां गंगा-जमुनी तहज़ीब थी लेकिन आज कैसे उन्हें नेस्तनाबूद किया जा रहा है।
हमेशा इस बात की बेहद खुशी रही है कि मुझे मेरे हस्बेंड, रिश्तेदारों और दोस्तों से इंस्परेशन मिलता रहा। लेकिन मैं आजतक किसी रायटर से पूरी तरह मुतास्सिर नहीं हो पाई। मुझे यह अच्छा नहीं लगता कि मैं यह कहूं कि मुझे फलां की तरह लिखना अच्छा लगता है। मेरा मानना है कि हर लेखक का अपना एक स्टाइल होता है।
आज हम महानगरों में विकास देखते हैं। लेकिन इलाहाबाद वैसा ही है जैसा था। यह अलग सवाल है कि इलाहाबाद के डेवलपमेंट पर क्यों नहीं तवज्जो दिया गया और इसके लिए कौन लोग जिम्मेदार हैं।
लेकिन मुझे लगता है कि इलाहाबाद का कल्चर बर्बाद हुआ उन लोगों की वजह से जो आसपास के इलाकों से काम की तलाश में वहां माइग्रेट करके आए।
आज भी आप सिविल लाइंस जाकर वहां के पुराने लोगों से मिलिए, उनके साथ बातचीत और उनके आचार-व्यवहार में आपको तब्दीली नहीं दिखाई देगी। हालांकि वे अब बूढ़े हो गए हैं।
नई जेनरेशन बहुत परेशान है। अपने इमोशनल रिलेशन को लेकर वे श्योर नहीं हैं। उनकी नौकरी श्योर नहीं है। उनको अच्छा माहौल हमने नहीं दिया। एक जो ठहराव होता है अंदर का जिसमें कुछ हो या न हो मारे पास लेकिन फिर भी हम मस्त रहते थे। आज के ज़माने मैं पैसा बहुत महत्वपूर्ण हो गया है।
(शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित. दैनिक भास्कर में प्रकाशित)
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