जयपुर साहित्य उत्सव में किस किस की जय हो !
मित्रो, आज जयपुर साहित्य उत्सव और कपिल सिब्बल के काव्य संग्रह 'किस किस की जय हो' के लोकार्पण के मसले को लेकर फेसबुक पर ख़ूब बहस हुई. आपके हवाले कर रहा हूँ. शुक्रिया. -शशिकांत
भाई सुयश सुप्रभ ने फेसबुक पर बहस शुरू करते हुए लिखा, "जयपुर में साहित्य का जो उत्सव
मनाया जा रहा है उसकी सार्थकता को लेकर मन में
कई शंकाएँ उठ रही हैं। इस उत्सव के प्रायोजकों में
ऐसी कई कंपनियाँ शामिल हैं जो राष्ट्रमंडल खेलों के
घोटाले में शामिल थीं। अगर लेखकों का उद्देश्य
समाज को वैकल्पिक सोच देना और सत्ता के आगे
घुटने टेक देने की मानसिकता को बदलने की कोशिश
करना है तो ऐसे आयोजनों में शामिल होकर वे मेरे जैसे पाठकों को निराश ही करेंगे।"
शशिकांत, "भाई सुयश जी आज हम एक ऐसे समय में जी-मर रहे हैं जिसमें हमारे दौर के बहुत सारे लेखक अलग-अलग गिरोह बनाकर सत्ता, पूंजी, बाज़ार, माफ़िया तत्वों और भ्रष्टाचारियों के साथ मिलकर मलाई खा रहे हैं और लूटतंत्र के हिस्से बन गए हैं. ऐसे लेखकों, लेखक संगठनों और गिरोहों से समाज को वैकल्पिक सोच देने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है."
Anjule Elujna , " क्या साहित्य को सत्य की परवाह नहीं होती? या वह उन मौकों की तलाश में रहता है जब विभिन्न ताकतें अपना वर्चस्व बनाये रखने की कोशिश में उसे अपने साथ जोड़ लेती हैं? क्या साहित्य उस झूठ के फेर में होता है जो एक आभासी सच गढ़ता है, लोगों के व्यापक हित के बारे में महज़ अवधारणात्मक उछाल-कूद करता है जबकि दरअसल वह व्यावसायिक मठों की चाकरी भर कर रहा होता है? अगर इस उत्सव में हिस्सा ले रहे लेखक मानते हैं की एक बेहतर जीवन संभव है और उसे हासिल किया जाना चाहिए, तो उन्हें यह भी समझना होगा कि यथास्थिति को बनाए रखने में उनकी मिलीभगत उनकी मान्यताओं के बिल्कुल उलट है. अनैतिक और पापपूर्ण व्यापारिक समूहों के सहयोग से आयोजित एक साहित्य उत्सव को एक खूबसूरत अवसर के रूप में प्रस्तुत करना क्या सिर्फ़ सम्मोहन कि कोशिश-भर नहीं है?
कुछ कहने में नाकाम हूँ मैं क् या कहना चैये क्या नहीं, नहीं पता!"
शशिकांत, "भाई @anjule Elujna जी आपने बिल्कुल दुरुस्त फ़रमाया है, "अगर इस उत्सव में हिस्सा ले रहे लेखक मानते हैं की एक बेहतर जीवन संभव है और उसे हासिल किया जाना चाहिए, तो उन्हें यह भी समझना होगा कि यथास्थिति को बनाए रखने में उनकी मिलीभगत उनकी मान्यताओं के बिल्कुल उलट है."...कथनी और करनी में फ़र्क से भी नीचे गिर गए हैं ऐसे लेखक. क्या समझते हैं "अनैतिक और पापपूर्ण व्यापारिक समूहों के सहयोग से आयोजित" साहित्य उत्सव में प्रतिभागी बने लेखक बेबस, लाचार और अभिजात सत्ता समाज के उत्पीडन के शिकार आम आदमी के जीवन को बेहतर बनाने के लिए लिखेगा? साहित्य को सत्ता और पूंजी के साथ सांठ-गाँठ कर ख़ुद अपना और अपने बेटी-दामाद, चमचे, चापलूस और पिछलग्गुओं के जीवन ज़रूर बेहतर बना रहे हैं ये लेखक."
भाई सुयश सुप्रभ ने फेसबुक पर बहस शुरू करते हुए लिखा, "जयपुर में साहित्य का जो उत्सव
मनाया जा रहा है उसकी सार्थकता को लेकर मन में
कई शंकाएँ उठ रही हैं। इस उत्सव के प्रायोजकों में
ऐसी कई कंपनियाँ शामिल हैं जो राष्ट्रमंडल खेलों के
घोटाले में शामिल थीं। अगर लेखकों का उद्देश्य
समाज को वैकल्पिक सोच देना और सत्ता के आगे
घुटने टेक देने की मानसिकता को बदलने की कोशिश
करना है तो ऐसे आयोजनों में शामिल होकर वे मेरे जैसे पाठकों को निराश ही करेंगे।"
क्या साहित्य को सत्य की परवाह नहीं होती? या वह उन मौकों की तलाश में रहता है जब विभिन्न ताकतें अपना वर्चस्व बनाये रखने की कोशिश में उसे अपने साथ जोड़ लेती हैं? क्या साहित्य उस झूठ के फेर में होता है जो एक आभासी सच गढ़ता है, लोगों के व्यापक हित के बारे में महज़ अवधारणात्मक उछाल-कूद करता है जबकि दरअसल वह व्यावसायिक मठों की चाकरी भर कर रहा होता है?
अगर इस उत्सव में हिस्सा ले रहे लेखक मानते हैं की एक बेहतर जीवन संभव है और उसे हासिल किया जाना चाहिए, तो उन्हें यह भी समझना होगा कि यथास्थिति को बनाए रखने में उनकी मिलीभगत उनकी मान्यताओं के बिल्कुल उलट है. अनैतिक और पापपूर्ण व्यापारिक समूहों के सहयोग से आयोजित एक साहित्य उत्सव को एक खूबसूरत अवसर के रूप में प्रस्तुत करना क्या सिर्फ़ सम्मोहन कि कोशिश-भर नहीं है?
कुछ कहने में नाकाम हूँ मैं क् या कहना चैये क्या नहीं, नहीं पता!"
कुछ कहने में नाकाम हूँ मैं क्
शशिकांत, "भाई @anjule Elujna जी आपने बिल्कुल दुरुस्त फ़रमाया है, "अगर इस उत्सव में हिस्सा ले रहे लेखक मानते हैं की एक बेहतर जीवन संभव है और उसे हासिल किया जाना चाहिए, तो उन्हें यह भी समझना होगा कि यथास्थिति को बनाए रखने में उनकी मिलीभगत उनकी मान्यताओं के बिल्कुल उलट है."
Ernest Albert "दि मीन्स प्रूव दि एंड...." क्रिया और कारक.
मनीष रंजन : उनको प्रेमचंद से प्रे रणा लेनी चाहिए. क्या.....?
(नोट : फेसबुक पर बहस जारी है...)
इसी बीच, पेंगुइन हिंदी ने ख़बर दी, "आज शाम ६ बजे
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में दरबार हॉल में कपिल सिब्बल
के काव्य संग्रह 'किस किस की जय हो' का लोकार्पण होगा.
आपकी मौजूदगी से कार्यक्रम को गरिमा मिलेगी. लोकार्पण के
बाद कपिल सिब्बल और अशोक चक्रधर कविताओं का पाठ
करेंगे."
उस पर शशिकांत ने कहा, "मित्रो, कभी अटल बिहारी वाजपेयी 'महान कवि' बनकर उभरे थे, आज कपिल सिब्बल. बंधु, यह विडम्बना है कि हिंदी कविता अब सत्ता के गलियारे से निकल रही है राजपथ से जनपथ की ओर. दरबारी कविता! ...क्या सचमुच रीतिकाल दोबारा आ रहा है?"
रामप्रकाश अनंत बोले, "यह रीतिकाल से आगे की चीज़ है. रीतिकाल में राजाओं के यहाँ कवि होते थे. अब सत्ता साहित्य संगीत पैसा - कुछ भी हाथ से निकलने नहीं देना चाहती. उसे पेंगुइन और राजकमल जैसे प् रकाशक भी मिलेंगे और यही लोग इनके लिए नामवरों की व्यवस्था कर देंगे. सारी शक्तियां पूंजी में निहित हैं और हम पूं जीवाद की उच्च अवस्था की ओर बढ़ रहे हैं. कपिल सिब्बल आज जहाँ हैं उसके चलते तो कोई भी प्रकाशक उनके बयानों को भी कविता के रू प में छापने को तैयार हो जाएगा. "
शशिकांत : हाँ,...इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया की ख़बर बनेगी. फिर पत्र-पत्रिकाओं में रिव्यू का सिलसिला शुरू होगा.
जय कौशल : जब सत्ता में आने के बाद अचानक कवि- प्रतिभा जगे, कविताओं की गहराई इसी से पता चलती है...खैर, लोकार्पण के बाद वाजपेयी जी की तरह जनता इनको भी जान जाएगी की सिब्बल जी का विश्वास 'किस-किस की जय' में है...
दुर्गाप्रसाद अग्रवाल : "सवाल तो अशोक चक्रधर से पूछा जाना चाहिये कि बंधु! किस-किस की जय हो?"
जय कौशल : "सर, अशोक जी अब लगता है ऐसे सवालों से ऊपर उठ गए हैं.
(नोट : फेसबुक पर बहस जारी है...)
शशिकांत : हाँ,...इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया की ख़बर बनेगी. फिर पत्र-पत्रिकाओं में रिव्यू का सिलसिला शुरू होगा.
जय कौशल : जब सत्ता में आने के बाद अचानक कवि- प्रतिभा जगे, कविताओं की गहराई इसी से पता चलती है...खैर, लोकार्पण के बाद वाजपेयी जी की तरह जनता इनको भी जान जाएगी की सिब्बल जी का विश्वास 'किस-किस की जय' में है...
दुर्गाप्रसाद अग्रवाल : "सवाल तो अशोक चक्रधर से पूछा जाना चाहिये कि बंधु! किस-किस की जय हो?"
जय कौशल : "सर, अशोक जी अब लगता है ऐसे सवालों से ऊपर उठ गए हैं.
(नोट : फेसबुक पर बहस जारी है...)
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें