मुल्क़ में भ्रष्टाचार पर चिंतित हैं ये लेखक

मित्रो, 
आज हम एक ऐसे वक्त में रह रहे हैं जब पूरे मुल्क़ में घपले, घोटाले और भ्रष्टाचार के नए-नए मामले रोज़-ब-रोज़ हमारे सामने आ रहे हैं. इनमें नेता भी हैं पूंजीपति भी, ब्यूरोक्रेट्स भी हैं जज भी, और पत्रकार भी.  और अब भ्रष्टाचार की तोहमत सिर्फ मर्दों पर भी नहीं लगाईं जा सकती. हर दिन, हर पल मीडिया की सुर्खियाँ बन रही भ्रष्टाचार की इन अनगिनत दस्तानों पर हमारा लेखक तबका क्या सोच रखता है, इसको लेकर 10 दिसंबर 2010 को चार लेखकों (अशोक वाजपेयी, असगर वजाहत, आलोक राय और अनामिका ) से बातचीत हुई, जो 11 दिसंबर के दैनिक भास्कर, नई दिल्ली संस्करण में साहित्य के पन्ने पर प्रकाशित हुई है. इन्हें आपके हवाले कर रहा हूँ. 
शुक्रिया.  
- शशिकांत  

लालची हो गया है हमारा मध्य वर्ग : अशोक वाजपेयी
देश में चौतरफा फैले भ्रष्टाचार के मामले में दो-तीन मुख्य बातें हैं।  पहली, संविधान की धारा तीन सौ गयारह है। इस धारा में देश के सिविल सेवकों को सुरक्षा मिली हुई है!

पहला सवाल यह उठता है कि सिविल सेवकों को इस तरह की सुरक्षा क्यों मिली हुई है। आज जब रोज-रोज घपले और घेटाले के मामले सामने आ रहे हें तो धारा तीन सौ गयारह, जो उन्हें सुरक्षा देती है, उस पर पुनर्विचार होना चाहिए। क्योंकि या तो देश के सिविल सेवकों द्वारा इसका दुरूपयोग हो रहा है, या इसके कारण भ्रष्टाचार में संलिप्त सिविल सेवकों पर ठोस कार्रवाई विलंबित हो रही है।

दूसरी बात ये है कि भारत सरकार यदि सचमुच देश में फैले भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहती है या इस तरह के मामलों को लेकर गंभीर है तो वह तत्काल प्रभाव से कम से कम पांच सौ प्रथम स्रेणी के वैसे अधिकारियों के खिलाफ उचित कानूनी कार्रवाई करके उन्हें बर्खास्त करने की पहल करे जिनकी भ्रष्टाचार के गंभीर मामले में संलिप्तता रही है और जिनकी अक्षमता जगजाहिर है। सरकार यह कदम सख्ती से उठाए ताकि सबको सबक मिल सके और लोग भ्रष्टाचार के मामलों में संलिप्त होने से परहेज कर सकें। 

तीन, देश में फैले भ्रष्टाचार के विरुद्ध और उसको पोसनेवाली राजनीति के विरुद्ध एक देशव्यापी सामाजिक अभियान चलाना चाहिए ताकि नागरिक निगरानी और चौकसी बढ़ाई जा सके । दरअसल राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना भी उतना ही जररूरी है।

आज के समय में हम जिन घपलों और घेटालों को लेकर चितित हैं। यह अब जगजाहिर है कि देश के मध्य वर्ग में बड़ी तेजी से बढ़ती दौलत और इसी मध्य वर्ग में बढ़ते लालच की वजह से ये सब हो रहे हैं।

मेरा कहना है कि हमारे देश के विराट मध्य वर्ग को थोड़ा ठिठकर, थोड़ा ठहरकर  अपने अंत:करण को टटोलना चाहिए और अचने लालच पर लगाम लगाना चाहिए।यदि हमारा मध्य वर्ग ऐसा करता है तो मुझे उम्मीद है कि भ्रष्टाचार की वर्तमान स्थिति में सार्थक बदलाव होगा। ये काम सरकारें और अदालतें नहीं कर सकतीं बल्कि हमारे समाज को ही करना होगा, जो इसका भुक्तभोगी है।

चूंकि भ्रष्टाचार अब मीडिया तक फैल गया है, ऐसे में हमें देश के भीतर व्यापक स्तर पर ऐसे मंच बनाने होंगे और ऐसे मंचों को लगातार पोसना पड़ेगा जहां से भ्रष्टाचार के विरुद्ध जोरदार ढंग से आवाज उठाई जा सके।

अव्वल तो यह है कि हमारे लेखकों की अब ऐसी स्थिति नहीं रहने दी गई है कि उसकी सामाजिक आवाज देश की आम जनता सुन सके और उसके आधार पर अपनी समस्याओं का हल ढूंढ सके। लेकिन इस विपरीत माहौल में ऐसा कोई कारण नहीं है कि लेखक तबका इन घपलों और घोटालों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाए।

भ्रष्टाचारियों को गोली मार देनी चाहिए : असगर वजाहत
मेरा यह मानना है कि हमारी जो सत्ता है इसमें आते हैं राजनीतिज्ञ, ब्यूरोक्रेट्स और बड़े पूंजीपति। इन्हीं सब से बनती है सत्ता। सत्ता ने इस देश को बंधक बना लिया है। ये ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसा जमींदार बंधुआ मजदूरों के साथ करता है कि जब तक वह मर नहीं जाता तब तक उसका शोषण करता रहता है। हमारा यह देश बहुत बड़ा है। यह मरेगा तो नहीं लेकिन यहां जो लोग सत्ता में आ रहे हैं वे लगातार देश के संसाधनों का दोहन कर रहे हैं।

हमारे यहां की गरीबी, बेरोजबारी की वजह यही है। हमारे देश के संसाधन देश की जनता पर खर्च नहीं किया जाता, सत्ता पर खर्च होता है। ये राजनीतिज्ञ लोग गरीबों के घर जाकर खाना खाते हैं, विकास को लेकर झूठ का ढिंढोरा पीटते रहते हैं।

असली मसला यह है कि संसद में भ्रष्टाचार पर आजतक कोई कानून नहीं बना। यही वजह है कि सारे भ्रष्टाचारी बच जाते हैं। यह आपत्तिजनक और निराशाजनक स्थिति है जिसमें लेखक समाज दिक्कत महसूस कर रहा है। इस माहौल को देखकर लेखक समुदाय में कटुता आ गई है। निर्मम और संवेदनहीन बनी हुई है सत्ता। लाखों-करोड़ों रुपये विदेशों में पड़े हैं। ये ऐसा काम कर रहे हैं कि अंततः डेमोक्रसी पर से देश के लोगों का विश्वास उठ जाएगा। ये भयानक काम कर रहे हैं।

जब तक पारदर्शिता, सहभागिता नहीं होगी तब तक हालात ऐसे ही रहेंगे। आप एमपी को पांच करोड़ रुपये देते हैं क्षेत्र में विकास करने के लिए। वो किसी से पूछता है कि कहां कौन काम करना है? काम करता है या नहीं यह भी उससे नहीं पूछा जाता। इसलिए पारदर्शिता और जनता की सहभागिता जरूरी है।

जनता को इन्होंने जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर बांट रखा है। अशिक्षित बनाकर रखा है पिछले साठ सालों से। जनता की जागरूकता जरूरी है। लेकिन सत्ता ने चालाकी से जनता को शिक्षित होने नहीं दिया। कितना खर्च है शिक्षा पर? बजट का सिर्फ दो प्रतिशत। जहां से विरोध की संभावना थी सत्ता ने उसे ही खत्म कर दिया।

उपाय यह है कि मीडिया आंदोलन चलाए। हालांकि मीडिया में भी करप्शन है लेकिन उतना नहीं जितना सत्ता में। हमारी सिविल सोसायटी, एनजीओ, मीडिया और सुप्रीम कोर्ट मिलकर एक माहौल बनाए। देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कानून बनाने की जरूरत है। चीन में यदि भ्रष्टाचारी को गोली मारी जा सकती है तो हम क्यों नहीं मार सकते? लेकिन सत्ता में भ्रष्टाचारी लोग ही बैठे हैं और  संसद में भी, तो ऐसा शख्त कानून कौन बनाएगा?

भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कोई लेखक कैसे लिखे? : आलोक राय
भ्रष्टाचार के मामले आज देश में जिस तरह के मामले रोज-रोज सामने आ रहे हैं और इन मामलों में जो कुछ हो रहा है, मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि ये सब क्या हो रहा है। मुझे तो लगता है कि सभी भ्रष्टाचारी आपस में मिले हुए हैं। आपस में मिल-बांट कर खा रहे हैं।

ताज्जुब होता है कि आखिर इनके विरुद्ध कोई आवाज क्यों नहीं उठ रही है। और जब कभी इनके खिलाफ कोई आवाज उठती है तो ये सभी मिल जाते हैं। ऐसे में क्या कहूं, बड़ी विकट स्थिति है। कई बार तो मुझे लगता है कि इन भ्रष्टाचारियों को फांसी लगाना भी काफी नहीं है।  इससे भी बड़ा गुनाह कर रहे हैं ये।

यदि सचमुच हम भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहते हैं तो हमें गंभीरतापूर्वक सोचना होगा। इसके लिए पर्याप्त कदम उठाना होगा। आज हम देख रहे हैं कि जिन-जिन लोगों का नाम भ्रष्टाचार के मामले में सामने आ रहा है उनमें हर कोई अपनी सफाई दे रहा है कि वो निर्दोष है। सभी में आपसी मिलीभगत है। एक जैसे हैं ये लोग।

मेरे जैसा व्यक्ति इस माहौल में बड़ा ही असहज महसूस कर रहा है। लेकिन देश के आम आदमी की दृष्टि से देखा जाए तो स्थिति की गंभीरता भयानक रूप लेती हुई दिखाई देती है। इन भ्रष्टाचारियों को मालूम होना चाहिए कि ये जो घोटाले कर रहे हैं वह सारा पैसा देश की आम जनता का पैसा है। 

इनको कल्पना भी नहीं होगी कि देश की आम जनता के मन में आज इन भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कितना आक्रोश, कितना गुस्सा और कितनी बौखलाहट है। इन्हें नहीं भूलना चाहिए कि आज हमारे देश में करोड़ों की तादाद में ऐसे गरीब और फटेहाल लोग हैं जिन्हें भर पेट खाना भी नहीं मिल रहा है। करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार के खुलासे की खबर सुनकर वह गरीब और फटेहाल जनता  क्या सोच रही होगी, इसका एहसास क्या इन्हें है, शायद नहीं।

ऐसे भयानक माहौल में लेखक तबके का एक ही काम है कि वह इन भ्रष्टाचारियों के खिलाफ लगातार लिखता रहे। लेकिन कोई लेखक जब इनके खिलाफ लिखता या बोलता है तो ये सब मिलकर उसे देशद्रोही साबित कर देते हैं।

दरअसल आम आदमी का स्वभाव कुछ ऐसा होता है कि वह रोज-रोज एक ही तरह की बातें सुनकर उसे अनसुना कर देता है या ऐसी बातें सुनना नहीं चाहता। लेखक भ्रष्टाचार के खिलाफ लगातार ऐसा धारदार लेखन करे कि ऐसी बातों की धार बनी रहे। आज के समय में लेखक का यही काम है।

ईमानदार बुजुर्गों और नवयुवकों का गठजोड़ बने :  अनामिका
धूल के साफ-सफाई की रोज जरूरत होती है। आदमी, उसके कामकाज, चरित्र और नैतिकता पर भी जब धूल जम जाती है तो उसकी सफाई होनी चाहिए। इसके लिए एक सजग नागरिक समूह की जरूरत पड़ती है। आज के समय में हमें लगातार नैतिकता की परीक्षा देनी  पड़ती है।
 
हम जो नव स्वतंत्र समूह हैं, स्त्रियों या गरीबी से जो लोग उपर उठे हैं उनसे मुझे काफी उम्मीद रहती है लेकिन जब दंगे फैलाने या भ्रष्टाचार में लिप्त सित्रयों का नाम सुनती हूं तो बहुत तकलीफ होती है। स्त्रियों को यदि स्वतंत्रता, सुरक्षा और अधिकार मिले हैं तो उनका दायित्व भी बढ़ गया है। ऐसी सजग और जागरूक स्त्रियों से मेरी अपेक्षा रहती है कि घर का कोई पुरुष यदि कहीं से काला धन ला रहा है तो वे पूछें कि ये पैसे वो कहां से ला रहा है?

हर आदमी के मन पर किसी न किसी स्त्री मन का दबाव रहता है चाहे वह पत्नी, बेटी, बहन, दोस्त, सहकर्मी या प्रेमिका कोई भी हो। पुरुष स्त्री का मन जीतना चाहता है। और यहीं पर औरत की भूमिका कारगर साबित हो सकती है। नैतिकता एक बड़ा मसला है जिसके निर्माण में सित्रयां महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं लेकिन सित्रयां जब खुद इसमें फंस जाती हैं तो यह सुनकर मन बेचैन हो जाता है।

जहां तक सिस्टम का सवाल है तो इसमें बहुत सारी खामियां हैं। कहां से पैसा आया? किसने दिया? क्यों दिया? किस काम के लिए दिया? कहां खर्च हुआ? योग्य को दिया गया या चमचे-चालूसों, पिछलग्गुओं को? ये सारे सवाल पूछने के लिए हमारे नवयुवकों को सामने आना होगा। असली दायित्व उन्हीं की है। आज के समय में हर सिटीजन एक जर्नलिस्ट है। सजग और जागरूक सिटीजन। हर नागरिक एक पत्रकार है। ऐसे माहौल में औरतों और युवकों की भूमिका बढ़ जाती है।

मैं चाहती हूं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के लिए हर मोहल्ले में युवकों की टोलियां बने। पुलिस और  सीबीआई जो काम नहीं कर सकी वो काम युवकों के हाथ में सौंपा जा सकता है। पढ़े-लिखे बेरोजगार  और ईमानदार युवको को यह काम सौंपा जा सकता है। इस मुहिम में ऐसे रिटायर्ड अफसरों की मदद ली जानी चाहिए जिन्होंने जिंदगी भर ईमानदारी से काम किया।

ऐसे बुजुर्गों की संख्या बहुत बड़ी है जो अलग-अलग क्षेत्र में काम करने का लबा अनुभव रखते हैं, जो अपनी ईमानदार छवि की वजह से खुद अपने ही बाल-बच्चों से ताने सुनते रहते हैं। अक्सर इनमें कई स्वभव से चिड़चिड़े और डिप्रेस्ड हो जाते हैं। अब समय आ गया है कि जिंदगी भर ईमानदारी से काम करनेवाले बुजुर्गों को पुरस्कृत किया जाए ताकि नई पीढ़ी उनसे प्ररण ले सके।    

भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के लिए ऐसे ईमानदार बुजुर्गों का एक संगठन बनाना होगा। बुजुर्गों का पज्ञाकोष और नवयुवकों का हौसला- इन्हें मिलाकर भ्रश्टाचार के खिलाफ बलपूर्वक लड़ा जा सकता है। युवकों की जनजागरण टोली घर, मोहलले और आस-पड़ोस के भ्रष्ट लोगों के खिलाफ हल्ला बोले, उन्हें सुधार गृह भेजे, मनोचिकित्सकों से उनका इलाज कराए और फिर भी वे न सुधरें तो उनका अस्पतालों में उनका इलाज करवाए।

(सभी बातचीत शशिकांत के साथ.11 दिसंबर 2010 के दैनिक भास्कर, नई दिल्ली में प्रकाशित.)

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