संकीर्ण पूर्वाग्रहों के बीच निर्मल वर्मा : उदय प्रकाश

निर्मल वर्मा आज ज़िंदा होते तो 81 बरस के होते। आज 3 अप्रैल ही के दिन 1929 में वे पैदा हुए थे। वे प्रेमचंद, और जैनेंद्र के बीच की एक ऐसी धारा थे जिसमें उन्होंने कहानी की ही नहीं, गद्य की अन्य विधाओं में भी नई संभावनाएं खोजीं। अक्सर आलोचना में उनको प्रेमचंद या भीष्म साहनी जैसे लेखकों के बीच रखकर देखने की कोशिश की जाती रही है जो कि सही नहीं है। 

निर्मल जी ने नई कहानी या हिंदी की आधुनिक कहानी का जन्म ही प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी से माना था। हिंदी गद्य में उपन्यास के रूप और संरचना को लेकर आलोचकों में लंबे अर्से तक दुविधा रही।

यह कभी न भूलें कि निर्मल वर्मा ने भारतीय उपन्यास की एक मौलिक और तर्कसंगत अवधारणा प्रस्तुत की। गद्य का कोई ऐसा रूप नहीं है जिसमें उनकी प्रतिभा अपने शिखर तक न पहुंची हो- चाहे निबंध हो या कहानी, डायरी अथवा अनुवाद। मेरी दृष्टि में वे हिंदी के अबतक के अप्रतिम अनुवादक थे। ‘कारेलयापेक की कहानियां’, ‘एमेकेएकगाथा’, ‘रोमियो-जूलियट’ तथा ‘अंधेरा’ जैसे अनुवाद आज भी अप्रतिम हैं। महादेवी वर्मा के शब्द-चित्रों के बाद “शायद ही किसी हिंदी लेखक ने ऐसी गद्य रचनाएं की हों जैसी निर्मल जी ने अपने जर्नल और डायरी के रूप में की। वह हिंदी गद्य के सृजनात्मक इतिहास की धरोहर हैं।

यह सच है कि निर्मल वर्मा ने भारतीयता की पहचान और उसकी खोज में अपने जीवन का एक लंबा समय लगाया जो अन्यथा उनकी कहानियों या उपन्यासों में लग सकता था। लेकिन वहां भी अगर ध्यान देकर देखें तो वे पौर्वात्यवाद (ओरिएंटलिज्म) की उस खाई में नहीं गिरे जिसमें हम वी एस नायपाल और अपने देश के कई पुनरुत्थानवादी भारतीयों को देखते हैं।

मुझे कई बार लगता है कि निर्मल वर्मा की मूल चेतना में आधुनिकता थी। उदारता और लोकतांत्रिकता थी। यही कारण था कि सर्वसत्तावाद ने इस आधुनिक लोकतांत्रिकता का अतिक्रमण किया। चाहे 1968 में चेकोस्लोवाकिया में सावियत रूस रहा हो या 1959 में तिब्बत में चीन रहा हो या 1975 में हमारे देश में आपातकाल रहा हो, निर्मल वर्मा ने अपना विरोध दर्ज कराया। 

परपराओं की ओर जाने और उनमें अपनी अस्मिता को खोजने की उनकी कोशिश को कई बार आब्सक्योर (दकियानूस) ठहराया गया। लेकिन यह कोशिश वैसी ही थी जैसी राधाकमल मुखर्जी, डा आबिद हुसैन या देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय में दिखाई देती है।

यह कभी न भूलें कि फासीवाद और नाजीवाद की बर्बरता पर लिख गया उनका निबंध ‘लिदित्से’ एक ऐसा संस्मरण है जो उनके निबंध संग्रह ‘चीरो पर चांदनी’ में संकलित है। यह आज भी उनकी बुनियादी बौद्धिकता का प्रमाण है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि निर्मल वर्मा एक समय वामपंथी विचारधारा के काफी निकट थे और अपने युवाकाल के सबसे उत्पादक वर्ष उन्होंने उस चेकोस्लोवकिया में बिताया था जहां सर्वसत्तावाद और अधिनायकवाद के सिकंजे में फंस चुके समाजवाद को अधिक मानवीय बनाने की कोशिशें की जा रही थी। ‘प्राग के वसंत’ के इस प्रयोगात्मक काल में दुबचेक की अगुआई में बहुत सारे लेखक एक साथ थे।

आज बहुत दुख होता है कि निर्मल वर्मा और उनकी अप्रतिम साहित्य साधना को जो सम्मान इस देश और हिंदी भाषा को देना चाहिए था वो संकीर्ण राजनीतिक पूर्वाग्रहों के कारण उनके जीते जी नहीं दिया जा सका। 
(डॉ शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित. 3 अप्रैल 2010, दैनिक भास्कर, नई दिल्ली में प्रकाशित) 

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