मां-बाप को साथ नहीं रखना चाहते आज के बच्चे : एच. एल. सैनी

जनवरी 2005 में मैं डीडीए से रिटायर हुआ। वहां मैं कन्स्ट्रशन डिपार्टमेंट में इंजीनियर था। आज भी मैं सुबह-शाम पार्क में घूमता हूं और अपना काम खुद करता हूं। पार्क की भी देखभाल करता हूं। मैं देखता हूं कि पार्क में बुजुर्ग औरत-मर्द ही सैर के लिए आते हैं। कुछ बच्चे खेलते रहते हैं। लेकिन आजकल के युवक-युवतियों को पार्क में सुबह-शाम सैर करने की फुरसत कहां। 

घंटे-दो घंटे घूम-फिरकर जब घर पहुंचता हूं तब देखता हूं कि बच्चे सोकर उठ रहे हैं। हमारे बच्चों की शादी हो चुकी है। वे सभी जॉब  कर रहे हैं। आज हमें उनसे कोई शिकायत नहीं है क्योंकि हमने उन्हें अच्छे संस्कार दिए हैं।

लेकिन समाज में आज कुछ ऐसे बदलाव हो रहे हैं जिन्हें देखकर मन कभी-कभी दुखी हो जाता है। आज के बच्चों के कैरेक्टर बदल गए हैं। मैं गांव से दिल्ली आया हूं। गांवों में पड़ोसियों के साथ एक खास तरह का अपनापन होता था। गांव-मोहल्ले की बहू-बेटियों को इज्जत की निगाह से देखते थे लोग। आजकल के 10-12 वीं के बच्चे गर्लफ्रेंड रखते हैं। यह सच है कि दूसरी फील्ड में आज के बच्चे ज्यादा आगे जा रहे हैं। उनमें नॉलेज ज्यादा होती है। अब सीखने के साधन बढ़ गए हैं। उस वक्त की पढ़ाई से बहुत अंतर आ गया है।

मैंने गांव के स्कूल में पढ़ाई की। टेंट में हमारी क्लासें लगती थीं। बैठने के लिए घर से बोरी लेकर स्कूल जाते थे। होमवर्क नहीं करने पर स्कूल में पिटाई होती थी और गलती करने पर घर में भी। आजकल के बच्चों को आप पीट नहीं सकते, भले वे कितनी गलतियां करें।

बचपन में जब हम गिरते थे तो बड़े-बुजुर्ग कहते थे- गिरने दो, चोट लगने से बच्चे मजबूत होते हैं। उस वक्त हम पैदल चलते थे। खाने-पीने पर ज्यादा खर्च होता था, बाकी के खर्च कम थे। आज खाने का खर्च कम हो गया है और बाकी के खर्च बढ़ गए हैं। हमारी पीढ़ी के लोगों में इसका फायदा आपको दिखेगा। आज 65 साल की उम्र में भी हम पूरी तरह स्वस्थ हैं और अपना सारा काम खुद करते हैं। नई पीढ़ी के बच्चों को कार से उतरने में भी दिक्कत होती है। वे हांफते हुए घर पहुंचते हैं। पिज्जा, बर्गर और गलत खान-पान ने आज के बच्चों की रेसिस्टेंस पावर कम कर दी है।

आजकल के बच्चे अपने पैरेंट्स से आइसोलेटेड हो गए हैं। जो मां-बाप उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करते हैं, पढ़ाते-लिखाते हैं - बड़े होकर उन्हीं को वे घर से निकाल देते हैं। बच्चों के सताए बुजुर्गों की तकलीफ सुनकर कभी-कभी लगता है कि जमाना कितना बदल गया है। नजफगढ़ में हमारा पुश्तैनी मकान है। अभी हाल तक हम पांचों भाई  इकट्ठे रहते थे। ज्वाइंट फेमिली थी हमारी। साथ खाना बनता था। 

अब तो शादी हुई नहीं कि बच्चे अलग हो जाते हैं। आज के बच्चे नहीं समझते कि बूढ़े मां-बाप को अपने बच्चों के साथ रहने में सबसे ज्यादा खुशी मिलती है। उन्हें और कुछ नहीं चाहिए। आज के जमाने में प्यार उपर से नीचे होता है, नीचे से उपर नहीं होता। यानी आप बेटे, पोते को चाहे कितना प्यार करें लेकिन उन्हें आपसे कोई मतलब नहीं, वे आपसे बात करने से भी कतराएंगे।
(श्री सैनी डी.डी.ए. के रिटायर्ड इंजीनियर हैं. 3 मार्च 2010 दैनिक भास्कर, दिल्ली में प्रकाशित) 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

हिन्दी भाषा और साहित्य 'क' (दिल्ली वि.वि. के बी.ए. प्रोग्राम, प्रथम वर्ष के उन विद्यार्थियों के लिए जिन्होंने 12वीं तक हिन्दी पढी है.) लेखक : डॉ शशि कुमार 'शशिकांत' / डॉ. मो. शब्बीर, हिंदी विभाग, मोतीलाल नेहरु कॉलेज, दिल्ली वि.वि., दिल्ली, भारत.

हिन्दी भाषा और साहित्य 'ख' (दिल्ली वि.वि. के बी.ए. प्रोग्राम, प्रथम वर्ष के उन विद्यार्थियों के लिए जिन्होंने 10वीं तक हिन्दी पढी है.) लेखक : डॉ शशि कुमार 'शशिकांत' / डॉ मो. शब्बीर, हिंदी विभाग, मोतीलाल नेहरु कॉलेज, दिल्ली वि.वि., दिल्ली, भारत.

चाहे दक्षिण, चाहे वाम, जनता को रोटी से काम: नागार्जुन